इस्लाम हुसैन
नए किसान कानूनों में हल्द्वानी की मण्डी की भूमिका और पहाड़ की सामाजिकी और आर्थिकी के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो आने वाले दिनों में पहाड़ का किसान भी फिर पैदल होने जा रहा है। यह बात अलग है कि दिमाग से पैदल कुछ लोग नए कृषि कानूनों की जय जयकार कर रहे हैं। पहले केवल आढ़तिए की बही में फंसता जा अबकी बार वह कारपोरेट के जाल में फंसे जाएगा। हल्द्वानी की नवीन मण्डी सब्जी और फल की उत्तराखंड ही नहीं उत्तर भारत की बड़ी मंडी मानी जाती है, जहां से पूरे देश में कारोबार होता है।
हल्द्वानी की नवीन मण्डी में पहाड़ के 250 किमी दूर हिमालय के एकदम नीचे के कृषि उत्पाद विशेषकर आलू का भी कारोबार भी होता है। यह मण्डी अनुमानतः आसपास के 100 किमी के कृषि उत्पाद खासकर सब्जियों और फलों की बिक्री में किसानों की बहुत मदद करती है। रुहेलखंड की सब्जी सहारनपुर, मुजफ्फरनगर के आम और हिमाचल और कश्मीर के सेब का भी यहां कारोबार होता है। लेकिन शुरुआत में यह मण्डी पहाड़ के किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य दिलाने के लिए बनाई गई थी।
70 के दशक और उसके आसपास जब सरकार के पास संसाधनों का अभाव था और देश युद्धों के बाद की आर्थिक दुरावस्था का शिकार था, तब पहाड़ में अपनी उपज मण्डी/बाजार पहुंचाने या ले जाने का रिवाज बहुत कम था। यातायात के साधन सीमित थे, बैलगाड़ियों की पहुंच कम थी, और फिर खेती किसानी खुद के लिए या फिर गांव और आसपास के उपभोग के लिए होती थी।
तराई भाबर में फसल थोड़ा ज्यादा होती थी, वहां मुस्लिम बंजारे गांव में ही आकर अतिरिक्त अनाज आदि खरीद लिया करते थे। घाटियों में पैदा होने वाला गन्ना खांडसारी वाले बैलगाड़ियों से ले जाते थे।
घोड़ों, बैलगाड़ियों (ऊंट गाड़ियों का भी प्रयोग होता था) और सीमित मात्रा में सरकारी/रोडवेज के सीमित संख्या में होने वाले ट्रकों से आसपास 50-60 किमी तक उत्पाद (सेब नाशपाती और आलू सब्जियां आदि) हल्द्वानी की आढ़तों में पहुंचता था।
शेष पहाड़ का उत्पाद घोड़ों के द्वारा स्थानीय बाजार में पहुंचता था या फिर मेलों में बिकता था। साल भर मौसम और फसलों के हिसाब से होने वाले मेले इस बात के गवाह हैं।
70 के दशक में और उसके बाद परिवहन के साधनों की विशेषकर टाटा के ट्रकों संख्या बढ़ने के बाद ही पहाड़ क़ृषि उत्पादन विशेषकर घाटियों में होने वाली सब्जी हल्द्वानी और वहां से रेल द्वारा पूरे देश में जाने लगीं। धीरे धीरे आढ़तिए भी अपने किसानों की फसल लाने के लिए ट्रक भेजने लगे थे। उस समय पहाड़ के उत्पादन को हल्द्वानी की आढ़तों में बेचा जाता था जो हल्द्वानी के विभिन्न बाजारों में थीं।
इन आढ़तों का कोई नियमन नहीं था। यह विशुद्ध व्यापार पर आधारित थी, किसान और आढ़तिए का रिश्ता माल की आपूर्ति से ज्यादा हैसियत और सम्बंधों पर टिका था। बड़ी आढ़त बड़ा किसान, और छोटी आढ़त छोटे किसान।
इन आढ़तों में या तो किसान को उसके उत्पादन की कीमत दे दी जाती थी और आढ़तिया उस उत्पादन को कहीं बेचने को स्वतंत्र होता था। दूसरा था स्थानीय स्तर पर बिक्री। जो बोली लगाकर या बाजार भाव से तय होती थी।
बड़ा आढ़तिया माल स्टाक करके उसे देश की अन्य आढ़तियों थोक व्यापारियों को बेचता। इसी कारण पूरे पहाड़ का आलू, हल्द्वानी का आलू बन गया और पूरे देश में हल्द्वानी के आलू की मांग होने लगी थी। उसी दौर में बड़े आढ़तिए देश की अन्य मंडियों के व्यापारियों को टेलीफोन से अर्जेन्ट काल/जुगाड़ काल करके (जिसे मजाक में आलू काल भी कहते थे), दूसरे बाजारों के रेट जानकर अपना माल बेचते थे। आलू और फल खासकर सेब में तो कुछ स्थायित्व था मगर कच्ची सब्जी टमाटर, बीन, शिमला मिर्च, गोभी की सप्लाई और बिक्री में खेल होता था, और बनने बिगड़ने की बात होती थी। रेल से सब्जी दूसरे प्रदेशों को भेजना भी ऊंची पहुंच का काम होता था। जिसका फायदा भी कुछ ही लोग उठा पाते थे।
हल्द्वानी में माल आने पर आढ़तिए की ही मनमानी होती थी। वह माल कब कहां कैसे बेचे ? सब उसकी मर्जी पर होता था। बाजार का नियम है, भेड़ जहां जाएगी, मुंढेगी! यहां यह काम बखूबी होता था, अक्सर किसान स्वयं अपना माल लाता और माल बेच कर या मुंढ कर वापस हो जाता था,
उस समय हल्द्वानी के व्यापारियों ने अपने व्यक्तिगत सम्बंध पहाड़ किसानों के साथ बना लिया था, जिसमें किसान और व्यापारी का एक अनौपचारिक रिश्ता हो गया था। जिसमें व्यापारी किसान की जरूरत का खयाल रखता और किसान अपनी फसल बिक्री के लिए उसी की दूकान या आढ़त में भेजता। व्यापारी/आढ़तिया किसान को समय समय पर घर की जरूरत, शादी, बीमारी,गमी में उधार पैसे देता, बीज की मदद करता, बदले में किसान की पूरी फसल व्यापारी के पास आती और वही माल बेचता। बाद में आढ़ती अपना एडवांस/उधार काटकर बाकि पैसा किसान को देदेता या भेज देता था। लेकिन यह रिश्ता बहुत अच्छा भी नहीं रहा। कई बार आढ़तिया मनमानी करता, भारी ब्याज पर पैसा देता और फसल की कीमत भी मनमर्जी की लगाता। किसान को उधार देकर आढ़तिया किसान को बंधक बना लेता था। फसल उसी की आढ़त में आती। मनमर्जी का ब्याज और मनमर्जी की फसल कीमत से कितने ही किसान खून के आंसू रोते थे।
आढ़त में अगर समय से ठीक-ठाक फसल बिक भी जाए तो उसमें कई तरह की कटौतियां होती थीं। कुछ बाकायदा लिखित होती थीं तो कुछ अलिखित होती थीं। किसान की फसल बिकने के बाद आढ़तिया अपना लाभ/कमीशन या दलाली काटने के बाद उसमें से अनेक मदों में मनमानी कटौतियां करता था जैसे पल्लेदारी, तुलाई, सुखाई/नमी छीज/बट्टा, धर्मादा (मन्दिर, श्मशान घाट आदि) लोकल भाड़ा, रखाई, बारदाना, एडवांस का ब्याज वगैरह-वगैरह
इस तरह फसल बिकने पर किसान एक बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं होता था।
मण्डी एक्ट बनने के बाद 1970 से देश में मण्डियां बनने लगीं पहले अनाज की मण्डियां बनीं और व्यापारी और व्यापार को नियमों में बांधा गया, किसानों से कटौतियां खत्म की गईं, मण्डी शुल्क और कमीशन, व्यापारी क्रेता को देने का नियम बना। इससे मनमानी कटौतियां खत्म हुईं और किसानों को अपनी फसल का अधिक पैसा पहुंचने लगा।
धीरे धीरे अनाज के बाद सब्जीयों और अन्य फसलों की मण्डियां बनीं। हल्द्वानी में मण्डी बनाने की मांग अस्सी के दशक में उठी और कुछ सालों में मण्डी का निर्माण हो गया, लेकिन व्यापारी और आढ़तिए नवीन मण्डी में जल्दी जाने को तैयार नहीं हुए, बड़ी हीले हवाले हुए, मीटिंग्स हुई , जब मंगलपड़ाव में चलने वाली आढ़तों के कारोबार पर प्रतिबंध लगाया गया। तब कहीं जाकर नवीन मण्डी में आढ़ती और व्यापारी गए, लम्बे समय तक शिकायतें चलती रही बाद में यही मण्डी किसानों के लिए एक बड़ा सम्बल बन गई।
अब पहाड़ का किसान, जो अक्सर छोटा ही होता है इस नवीन मण्डी में किसी वाहन के ज़रिए अपना थोड़ा बहुत उत्पाद भेज देता है, और आढ़तिया उसका माल बेचकर न्यूनतम कटौती करके (सिर्फ पल्लेदारी और किराया) फसल की कीमत किसान को भेज देता है। इस समय भी किसान और आढ़तिए के आपसी ताल्लुक हैं उसकी जरूरत को आढ़तिया पूरी करने वाला है, पर मण्डी के कारण किसान मजबूर नहीं है और न आढ़तियों की मनमानी है, जैसा कि पहले मंण्डियों के न होने के समय था।
नए कृषि कानूनों में जो प्राविधान किए गए हैं उससे इस तरह की मण्डी पर संकट के बादल आ गए हैं, अभी इक्का दुक्का किसान अपना माल अपने बलबूते पर मण्डी के बाहर बेच पाता है, अब बिना रजिस्ट्रेशन कराए व्यापारी फसलों का व्यापार कर सकेगा। पुराना अनुभव बताता है कि ऐसे में व्यापारी और आढ़तिया बहुत जल्द मण्डी समिति का घेरा तोड़कर कारपोरेट का दलाल और कमीशनखोर बन जाएगा। अगर मण्डी समाप्त हुई तो छोटा बड़ा किसान अपना माल पहले की तरह आढ़तियों, दलालों या कमीशनखोरों के मार्फत बेचने को मजबूर होगा। पहाड़ के किसानों के साथ कारोबार करने वाले एक व्यापारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि कारपोरेट के आने के बाद आढ़तिए फिर भी रहेंगे, तब वो किसानों से अधिक कार्पोरेट के एजेंट और हितैषी होंगे।और वो मण्डी में न बैठकर बाहर या पहाड़ में बैठेंगे। तब कोई देखने वाला नहीं होगा कि किसानों की फसल कैसे बिके रही है ? कितना मूल्य मिल रहा है ? इस तरह वह बाजार के फंदे में फंस जाएगा, जैसे वह अस्सी के दशक से पहले आढ़तियों और दलालों के पंजे में फंसा रहता था।
इस बार बड़ा मालिक कारपोरेट होगा तब न व्यापार का कोई नियमन हो सकेगा और न किसानों का हित संरक्षण हो सकेगा, क्योंकि इस बार सरकार ने किसानों के हित संरक्षण के लिए कानून नहीं बनाए हैं यह कानून कारपोरेट के लिए बनाए हैं। नए कानूनों से पहले सरकार सब्जियों का स्टाक और एम एस पी से मूल्य नियंत्रित करके किसानों और उपभोक्ताओं का हित संरक्षित कर सकती थी , अब नए कानूनों से ऐसा नहीं हो सकेगा। नवीन मण्डी समिति के पूर्व अध्यक्ष सुमित हृदयेश का मानना है कि नए कानूनों से किसानो और आढ़तियों का वर्तमान ठीक-ठाक रिश्ता टूट जाएगा। और किसान कारपोरेट के चंगुल में फंस जाएगा।
कांट्रेक्ट फार्मिंग के फेर में किसान अपनी जमीन से हाथ धोकर खेत में दास मजदूरों की तरह काम करेगा।
आने वाले दिनों में न सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य की अपेक्षा रखी जा सकेगी न पहाड़ के किसान आलू और अदरक के बीज व खाद की आपूर्ति की उम्मीद रख सकेंगे। कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर व प्राकृतिक आपदा में राज सहायता/ तकावी की मांग पर भी कोई जोर दिया जा सकेगा। सरकार इन सब के उत्तरदायित्व से मुक्त होकर अच्छे दिन ले आएगी।