चंद्रशेखर करगेती
‘‘श्रीमती पार्वती देवी ग्राम नवाली (पिथौरागढ़), उम्र 60 वर्ष। इन्हें 5 जुलाई को मेरे द्वारा सुशीला तिवारी अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। इनका नीचे का हिस्सा सुन्न हो गया है। लेकिन कोविड के चलते डाॅ. अभिषेक मना कर रहे हैं। मदद की जरूरत है। निर्धन महिला की आर्थिक स्थिति प्राइवेट में इलाज करवाने की नहीं है। सर्जरी न हो पाने के कारण बैड सोर होने लगे हैं। यह महिला किस चीज की सजा भुगत रही है ? जिम्मेदार कौन, हम, हमारा समाज, उसकी गरीबी या प्रशासनिक निष्ठुरता ?’’
मेरे व्हाट्सएप के मैसेज बाॅक्स में गुरविन्दर सिंह चड्ढा का यह एक संदेश पड़ा हुआ है। एक और संदेश में वे लिखते हैं, ‘‘मनीराम की आज दोपहर लगभग 1 बजे सुशीला तिवारी मेडिकल हाॅस्पिटल में मृत्यु हो गई। ये पिथोरागढ़ जिले के कनालीछीना ब्लाॅक के गाँव मतोली, घटखोल, पोस्ट चैनपुरी के एक बी.पी.एल.परिवार के हैं। बहुत गरीब परिवार है। परिजनों की स्थिति एम्बुलेंस कर पाने की नहीं थी। ऐसे में सोशल मीडिया में उनके लिए एक एम्बुलेंस हेतु मेरे द्वारा अपील की गई थी। उनकी मदद के लिए मदरसा इहायुल उलूम के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद मुकीम और एम.ए. खान आगे आये और आपके द्वारा बाॅडी ले जाने हेतु एम्बुलेंस का प्रबंध किया गया। आपका आभार।’’
ऐसे संदेश चड्ढा जी आये दिन भेजते रहते थे और निर्धन व जरूरतमन्दों के लिये संसाधन जुटाते थे। बाहर से न जुट पायें तो अपनी जेब से खर्च करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। सूरत-शक्ल से ही नहीं, अब अपनी संवेदना में भी महानगर बनते जा रहे हल्द्वानी में वे बहुत से लोगों के लिये आशा की एक किरण थे। इलाज के लिये हल्द्वानी पहुँचने वालों के लिये तो वे सचमुच मसीहा थे। सुशीला तिवारी अस्पताल में गरीब लोगों की भी सुनवाई हो, उन्हें यों ही न टरका दिया जाये इसके लिये वे अस्पताल के डाॅक्टरों-अधिकारियों से खूब झगड़ते थे। इससे वहाँ की कार्य प्रणाली में काफी सुधार भी आया और लम्बी कशमकश के बाद वहाँ के अधिकारी उन्हें गम्भीरता से लेने लगे थे।
मैंने एक व्यवसायी से इतर उन्हें पहचानना तब शुरू किया जब वे सूचना के अधिकार के लिए सक्रिय हुए और फिर वर्ष 2011-12 में अन्ना हजारे आन्दोलन में। अन्ना की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में वे हल्द्वानी में सबसे सुपरिचित चेहरा हुआ करते थे। एक बार योजना बनी कि हल्द्वानी में उन्हें मेयर पद के लिये उन्हें चुनाव लड़वाया जाये। चन्द्रशेखर करगेती से उनके पास प्रस्ताव भेजा गया, मगर ऐसी राजनीति में उनकी कोई रुचि नहीं थी। सूचना के अधिकार के उनके अभियान से बिलबिलाकर एक बार हल्द्वानी नगर निगम के अधिकारियों ने एक बार अपने सफाई कर्मचारियों से तमाम कचरा उनकी दुकान के आगे डलवा दिया था, ताकि उसकी बदबू से चड्ढा जी तो परेशान हों ही, उनके धन्धे पर भी असर पड़े। हमारे मित्र, ‘पिघलता हिमालय’ के सम्पादक आनन्द बल्लभ उप्रेती के देहान्त के बाद तो हल्द्वानी में मंगल पड़ाव स्थित उनकी दुकान ही एक ऐसा अड्डा रह गई थी, जहाँ पाँच-दस मिनट रुक कर कुछ गपशप की जा सकती थी।
कोरोना महामारी में जब स्कूल बन्द हो गये और पढ़ाई आॅनलाईन हो गई तो उन्होंने निध्र्रन विद्यार्थियों के लिये स्मार्टफोन जुटाने की मुहिम शुरू की, ताकि उनकी पढ़ाई में व्याघात न हो।
अब पता चला है कि कुटुम्ब के भीतर व्यावसायिक प्रतिस्पद्र्धा के कटु स्वरूप ले लेने के कारण वे टूट से गये थे और सारा व्यापार समेट कर पहाड़ में बस जाने की सोचने लगे थे। वे ऐसा करते इससे पहले ही ऊपरवाले ने उन्हें अपने पास बुला लिया। महज साठ साल की उम्र में, 3 फरवरी की रात एकाएक गुरविन्दर सिंह चड्ढा का देहान्त हो गया। इस दुःख की घड़ी में हम पेंग्विन इंडिया में एडिटर उनकी पुत्री गुरलीन और क्राॅकरी शाॅप चलाने वाले पुत्र गगनदीप के साथ हैं। इलाज के लिये पहाड़ से उतर कर हल्द्वानी आने वाले तमाम लोग तो उन्हें याद करेंगे ही।