अमित श्रीवास्तव
मुझे नाम याद नहीं रहते. दो-तीन साल पहले ‘दि हिन्दू’ के एक आर्टिकल में उस रिटायर्ड मुख्य सचिव और उसके सहयोगी कर्मचारी का क्या नाम था, मुझे याद नहीं. धुंधली सी याद है कि शायद वो राज्य केरल था. ये किस्सा उस सहयोगी कर्मचारी के जानिब से छपा था. सोशल मीडिया के नाबदान से निरन्तर बह रहे कीचड़ के बीच किसी गुलाब की तरह आपने भी शायद इसे पढ़ा हो.
सहयोगी कर्मचारी और रिटायर्ड मुख्य सचिव महोदय किसी कारणवश एक रोडवेज बस में बैठे हैं. उनकी नज़र एक औरत और दो बच्चों के परिवार पर पड़ती है. पति बाकी तीनों को वहीं बिठाकर कहीं चला गया है. शाम को लौटता है और उन्हें साथ लेकर वापस चला जाता है. ये क्रम तीन-चार दिन लगातार चलता है. परिवार का सुबह बस अड्डे पर आना पुरुष का कहीं चले जाना और शाम को लौटना फिर सबका वापस चले जाना. जितनी उत्सुकता आपको इसके पीछे का कारण जानने की हुई उससे कहीं कम नहीं हुई एक्स चीफ सेक्रेटरी साहब को. उन्होंने अपने साथी कर्मी से कहा कि पता लगाए कि आख़िर माजरा क्या है. दिन भर बस अड्डे के एक कोने में दो छोटे बच्चों के साथ बैठी महिला से जानकारी हासिल कर सहायक ने साहब को जो बताया वो इस ‘सिस्टम’ में कहीं, किसी भी स्थान पर चिपके किसी भी कल-पुर्ज़े को वहीं उसी स्थान पर जड़ कर देने के लिए काफी था.
उसने बताया कि ये आदमी जैसा दिखने वाला मजदूर पहले खेतो पर मजदूरी करता था, वहाँ कुछ दिक्कत होने पर अब यहाँ शहर की किसी फैक्ट्री में दिहाड़ी करने लगा है. उसके पास यहाँ कोई ठौर-ठिकाना नहीं है. गाँव में भी अपने परिवार को कहीं किनारे बनाई झुग्गी में अकेले रख नहीं सकता इसलिए औरत दिखने वाला ये कृशकाय ढांचा और इंसानी बच्चों की शक्ल वाले ये चूज़े, रोज़ ये तीन जने इस ख़ानाबदोश मजदूर के साथ गाँव से बस द्वारा शहर आते हैं, दिनभर बस अड्डे पर ही बैठे रहते हैं और दिन ढले जब वो लौटता है तब उसके साथ ही गाँव के किनारे बनी किसी झुग्गी में…
सहयोगी की बात खत्म होते-होते उसने किसी के सुबकने की आवाज़ सुनी. एक बहुत घुटी हुई सी रुलाई. साहब रो पड़ा था. उसने नफ़ीस अंग्रेज़ी में जो अपने सहयोगी से कहा उसका लब्बो लुबाब ये है कि ‘मैं दो साल इस राज्य का मुख्य सचिव रहा… दो साल! और अगर मैं इन’, उसने इशारे में उंगलियां नहीं बस आंखों की पुतलियाँ उठाईं, ‘इनके लिए इतना भी न कर सका तो मुझपर लानत है.’
मुझे नहीं मालूम उस सहयोगी ने ‘यू वर मेयर कॉग इन द मशीन’ वाली थ्योरी के जानिब से साहब को कैसे, किन शब्दों में ढाँढस बंधाया क्योंकि इस कहानी का सीक्वल नहीं मिला मुझे. लेकिन उस साहब की छटपटाहट कभी किसी तस्वीर, कभी किसी रिपोर्ट तो कभी किसी शुष्क आँकड़े के ज़रिए पहुंच रही है हम तक क्योंकि इस घटना के कितने ही प्रीक्वेल और असंख्य सीक्वल दिन-रात दिख रहे हैं हमें हमारे चारों तरफ. हर मेट्रोपोलिटन शहर से छोटे शहरों, कस्बों गांवों की ओर जाने वाले हाईवेज, रेलवे ट्रैक, पगडंडियों और अंडरपासों पर. मौत को टँगड़ी मारे लटके ट्रकों के पीछे, बसों की सीढ़ियों पर. मुंह छुपाए लंगरों के भीतर, भात के इंतज़ार में खुली हथेलियों पर. हर जगह.
उन साहब की हिचकियों से इतना तो तस्दीक होता है कि अपने तीन-साढ़े तीन दशक की नौकरी में उन्होंने ज़रूर संवेदनाओं की लाज रक्खी होगी तब ही खुद पर लानत भेजने भर का बूता जुटा सके, मगर हम?
Pic courtesy: आदि सत्य