शिवम पाण्डेेय
बेेेतुके फैसलों, बयानों, गैर-ज़िम्मेदाराना रवैये के तमाम उदाहरणों और इस सब के चलते पैदा हुए विवादों से भरा श्री राणा का कार्यकाल आखिर उनके इस्तीफ़े के साथ खत्म हो गया लेकिन नव-नियुक्त कुलपति की अर्हता और अनुभव पर भी सवाल उठने लगे हैं
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति पद से डॉ.के.एस.राणा के इस्तीफ़े के बाद डॉ.एन के जोशी को कुमाऊँ विश्वविद्यालय का नया कुलपति नियुक्त किया गया है. विश्वविद्यालय के २९वें कुलपति के रूप में डॉ.जोशी ने इस सोमवार को पदभार ग्रहण किया.
हालांकि, पदभार ग्रहण करते ही डॉ.एन.के.जोशी की नियुक्ति भी सवालों के घेरे में आ गयी है. ‘दैनिक उत्तराखंड’ में १२ मई को प्रकाशित खबर के मुताबिक़ डॉ. जोशी की नियुक्ति नियमों के विरुद्ध हुई है. खबर में कुलपति की अर्हता और अनुभव दोनों को सवालों के घेरे में बताते हुए, इस बाबत हाईकोर्ट में याचिका दायर करने की तैयारी की सूचना भी है.
कुमाऊँ से ही ताल्लुक रखने वाले एन.के.जोशी ने इसी वि.वि. के डी.एस.बी.परिसर, नैनीताल से 1981 में भौतिक विज्ञान से स्नातकोत्तर किया है. इससे पूर्व वे उत्तरांचल यूनिवर्सिटी के कुलपति भी रह चुके हैं.
ज्ञातव्य हो कि, डॉ.के.एस.राणा ने बीती ०७ मई को राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को कुलपति पद से अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया था. दुनिया जब कोविद-१९ के संकट से जूझ रही है और सभी शैक्षणिक संस्थान इन विचित्र परिस्थितियों में न्यूनतम शैक्षणिक कार्य सुनिश्चित करने के नए रास्ते तलाशने में जुटे हुए हैं, ऐसे में एक कुलपति का इस्तीफ़ा बहुत से लोगों के लिए आश्चर्य का विषय बन रहा था. दैनिक अखबार ‘हिंदुस्तान’ में इस इस्तीफ़े को लेकर छपी खबर के मुताबिक श्री राणा, ३१ मार्च को ही इस्तीफ़े की पेशकश कर चुके थे और इसके लिए उन्होंने ‘परिवार से दूरी’ और “नैनीताल घूमने लायक तो ठीक है लेकिन रहने लायक नहीं” जैसे कारण बताए थे.
बेतुके फ़ैसलों, बयानों, गैर-ज़िम्मेदाराना रवैये के तमाम उदाहरणों और इस सब के चलते पैदा हुए विवादों से भरा श्री राणा का कार्यकाल, कुमाऊँ वि.वि. की दुर्गति को चार कदम और आगे बढ़ा कर उनके इस्तीफ़े के साथ खत्म हो ही गया.
इस दुर्दशा के चलते अपेक्षा की जा रही थी कि स्थायी कुलपति के रूप में कुमाऊँ विश्वविद्यालय को अगर अकादमिक रूप से मजबूत, कुशल संचालक और सबसे जरूरी इस पर्वतीय वि.वि. के अंतर्गत आने वाले महाविद्यालयों की सामाजिक-भौगोलिक परिस्थितियों को संवेदनशीलता के साथ समझने वाला एक कुलपति मिले तो वि.वि. की दशा-दिशा में कुछ सुधार हो.
डॉ.के.एस.राणा का विवादास्पद कार्यकाल
नए कुलपति के सामने खड़ी चुनौतियों पर चर्चा से पूर्व अगर श्री राणा के विवादास्पद कार्यकाल पर एक नजर डाली जाए तो वर्तमान की चुनौतियों को एक परिप्रेक्ष्य में समझने में मदद मिलेगी.
तकरीबन एक वर्ष पहले, १७ मई को कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति का अस्थायी रूप से कार्यभार संभालने वाले के.एस.राणा, कुमाऊँ वि.वि. के इतिहास में पहले ऐसे कुलपति थे जो राज्य के किसी भी विश्वविद्यालय के प्रशासन से ताल्लुक नहीं रखते थे.
कार्यकाल संभालने के दो सप्ताह भीतर ही वह तब विवादों के घेरे में आ गए जब उनका कैंप कार्यालय आगरा में होने की सूचना देता, उनके आवास का पता सार्वजनिक हुआ. इस पर पृथक कुमाऊँ वि.वि. के लिए संघर्ष कर चुके सम्मानित जनों, मीडिया कर्मियों एवं छात्रों-युवाओं द्वारा तीखी प्रतिक्रिया के बाद एक स्पष्टीकरण जारी करते हुए श्री राणा ने अपना कैंप कार्यालय नैनीताल में ही स्थापित करने की बात कही. ज्ञातव्य हो कि १९७३ में कुमाऊँ वि.वि. की स्थापना से पूर्व इन क्षेत्रों में स्थित महाविद्यालय, आगरा वि.वि. से ही संबद्ध थे. श्री राणा द्वारा कैंप कार्यालय आगरा में खोले जाने की खबर इस पृथक वि.वि. की स्थापना के मूल भावना के खिलाफ थी. ऐसा होना वि.वि. के कुशल संचालन में बाधा डालना और प्रशासनिक दृष्टि से दिक्क्तों को बढ़ाने वाला तो था ही, साथ ही कुमाऊँ वि.वि. के अंतर्गत आने वाले बहुत से क्षेत्रों के लिए, वि.वि. की स्थापना के लिए दी गयी शहादतों के चलते एक भावनात्मक मुद्दा भी था.
इसी तरह का विवाद एक बार फिर से तब पैदा हो गया जब के• एस• राणा ने पीलीभीत, बिजनौर और सहारनपुर जैसे मैदानी जिलों को उत्तराखंड में जोड़ने संबंधी पत्र प्रधानमंत्री को लिखा।उनके ऐसे सुझावों को राज्य आंदोलन की भावना और भौगोलिक अस्मिता के खिलाफ मानते हुए तीव्र प्रतिक्रिया हुई और फिर से कुलपति महोदय ने लीपापोती भरा स्पष्टीकरण जारी करते हुए ‘खेद’ व्यक्त कर दिया. परन्तु उनके इस पत्र ने एक बार फिर से स्पष्ट कर दिया कि जिस राज्य के विश्वविद्यालय के शीर्षस्थ पद पर वह बैठे हैं, उसी राज्य के सामाजिक इतिहास और उसके संघर्षों के प्रति वह कितने असंवेदनशील हैं.
उनकी इस गहरी असंवेदनशीलता का परिचय सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में हुए छात्र-छात्राओं के बहुचर्चित आंदोलन के दौरान भी देखने को मिला. पिथौरागढ़ महाविद्यालय में 38 दिनों तक चले शिक्षक पुस्तक आंदोलन और राष्ट्रीय मीडिया में उसकी गूँज के बाद भी विश्वविद्यालय के कुलपति होते हुए राणा ने इस मुद्दे पर एक बयान देने की जहमत तक नहीं उठाई. यहां तक कि आंदोलन से बढ़ते दबाव के चलते राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री तक को बयान देने को मजबूर होना पड़ा लेकिन कुलपति श्री राणा ने तब भी कोई टिप्पणी नहीं की और इस पूरे मुद्दे से बचते रहे. यहाँ तक कि संसद के उच्च सदन, राज्यसभा, तक में इस मुद्दे के उठने और बाद में उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा शिक्षक-पुस्तक की मांग पर स्वत: संज्ञान लेने के बाद भी कुलपति की खामोशी बनी रही. इस सब के बावजूद पूरे कार्यकाल में उन्होंने कुमाऊँ यूनिवर्सिटी से संबद्ध दूरस्थ महाविद्यालयों के लिए कार्ययोजना बनाना तो दूर, उन्होंने इन महाविद्यालयों में संसाधनों के अभावों का संज्ञान लेते हुए मांग अग्रेषित करने की कागज़ी कार्यवाही तक नहीं की.
एक तरफ ऐसे अहम मूलभूत मुद्दों पर श्री राणा चुप्पी की गहरी चादर ओढे नजर आए वहीं दूसरी ओर महादेवी वर्मा सृजन पीठ में व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू करने की बात हो या गाँव गली में चुनाव ड्यूटी को प्रोफेसरों की गरिमा के खिलाफ बताने वाले पत्र चुनाव आयोग को लिखना हो, यह उनके कुछ ऐसे कारनामे थे जो उन्हें पूरी तरह शिक्षा की जमीनी वास्तविकता से कटे होने और उनके अभिजात्यपन की ओर संकेत करते हैं. वैसे भी, ऐसे ही अभिजात्य तबके के लोगों का शिक्षा क्षेत्र के उच्च पदों में सत्ता के आशीर्वाद के साथ बैठे रहना उच्च शिक्षा की दुर्गति का एक बड़ा कारण भी है।
अपने पूरे कार्यकाल में कुलपति के.एस.राणा ने पहले से स्थित भवनों के नाम बदलने के काम में सक्रियता जरूर दिखायी लेकिन एक ‘गौरा देवी’ के नाम को छोड़ उनके द्वारा बदले गए लगभग दस नामों में से एक भी पर्वतीय राज्य उत्तराखंड से संबंध या योगदान रखने वाला नाम नहीं है. राज्य आंदोलन में शहादत देने वाले या कुमाऊँ विश्वविद्यालय के निर्माण और अपने कार्यों से उसको गौरवान्वित करने वाले व्यक्तियों को सम्मान देने के बजाय उन्होंने सत्ता पक्ष की विचारधारा के प्रति वफ़ादारी दिखाते हुए इस भूगोल के लोगों को दरकिनार करना ही उचित समझा।
इसी वर्ष फरवरी माह में कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में करोड़ो के घोटाले की बात सामने आयी थी और यह खबर लोगों तक पहुँचने से पहले ही गायब हो गयी. इतने बड़े घोटाले पर किसी तरह का स्पष्टीकरण या कार्यवाही की जानकारी विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा सामने नहीं आयी. इस आशय का कोई बयान तक सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
कुमाऊँ वि.वि. के ही अल्मोड़ा स्थित सोबन सिंह जीना परिसर में छात्रसंघ और प्रशासन के बीच हुई नोक-झोंक के गंभीर हो जाने और ‘हत्या के प्रयास’ जैसी खबरों के अखबार में मुखपृष्ठ पर छपने के बाद भी जिस तरह मुद्दे को दबाने और लीपापोती की कोशिशें शासन-प्रशासन स्तर पर हुई और इस सब पर एक कुलपति के रूप में बरती गयी चुप्पी भी श्री राणा द्वारा अहम मसलों पर मौन धारण कर लेने का एक और उदाहरण बनी.
अभी तीन सप्ताह पूर्व ही यूनिवर्सिटी रजिस्ट्रार के पद पर डिप्टी रजिस्ट्रार को नियुक्त करने पर भी विवाद बढ़ गया जब रजिस्ट्रार के संज्ञान में लाए बिना ही उन्होंने यह निर्णय ले लिया. इस बाबत रजिस्ट्रार डॉ. महेश कुमार ने खुद आदेश जारी कर वि.वि. के अधिकारियों को उनकी अनुमति के बिना कोई आदेश जारी न करने को कहा।
इस घटना और इससे पूर्व भी ‘सत्ता की हनक’ दिखाते, मीडिया को दिए गए उनके बयानों से उनकी कार्यशैली का पता चलता है।
इन सबसे इतर एक मजेदार बात यह भी है कि कुलपति राणा नियमित रूप से अपना फेसबुक एकाउंट चलाते हैं, अपने निजी फेसबुक अकाउंट से देश के बहुतेरे विश्विद्यालयों के माहौल, कार्यप्रणाली की आलोचना करते और उनको नसीहत देते हुए नजर आते हैं. बहुधा ही उनकी पोस्टें ‘वाट्सएप यूनिवर्सिटी’ से निकले कंटेंट की उपज होती हैं जो उनके अकाउंट और एक सोशल मीडिया के ट्रोल एकाउंट में अंतर कर देना मुश्किल कर देती हैं.
कुमाऊँ वि.वि. के अंतर्गत नैनीताल में विधि संकाय की स्थापना जैसे इक्का-दुक्का कामों को छोड़ दिया जाये तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि एक कुलपति के रूप में वह पूरी तरह अक्षम और अयोग्य साबित हुए तथा उनके द्वारा लिए गए निर्णय, फ़िजूल बयान और जरूरत के वक्त धारण कर ली गयी चुप्पी, इस विश्वविद्यालय के कुलपति पद के इतिहास में एक गहरे धब्बे की तरह दिखते रहेंगे।
डॉ• डी डी पंत जैसे कुलपतियों से शुरू हुआ कुमाऊँ विश्वविद्यालय का सफर ऐसे कुलपतियों को भोगने को मजबूर होगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। बहरहाल, कुमाऊँ वि.वि. की दुर्गति को चार कदम और आगे बढ़ा, के.एस.राणा अब विदा हो चुके हैं और उनकी जगह नए कुलपति पद ग्रहण कर चुके हैं.
नए कुलपति के सामने चुनौतियों का अंबार
इस पर्वतीय क्षेत्र के भोगौलिक स्वरूप के हिसाब से शैक्षिक ढाँचा विकसित करने और पर्वतीय विश्वविद्यालय की माँग के फलस्वरूप लम्बे संघर्षों और शहादतों के बाद 1973 में शुरू हुआ कुमाऊँ विश्वविद्यालय अब भी उन्हीं चुनौतियों से गुजर रहा हैं जिनके चलते पृथक विश्वविद्यालय की माँग की गयी थी। संस्थापक कुलपति डॉ• डी डी पंत जैसे विख्यात अकादमिकों और कुशल प्रशासक से शुरू हुआ विश्वविद्यालय का सफर अस्सी के दशक में अपना स्वर्णिम काल देख चुकने के बाद दिनोंदिन गिरावट की ओर ही बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। पिछले कुछ सालों में भी सरकारी दबाव और कामों में दख़लअंदाज़ी के चलते डॉ राकेश भटनागर से लेकर डॉ वी• के• नौडियाल जैसे कुलपति असमय इस्तीफा दे चुके हैं।
ऐसे में, स्थायी कुलपति के तौर पर पदभार संभाल रहे डॉ.एन.के.जोशी के सामने बड़ी चुनौतियाँ हैं. वह ऐसे वक्त में कार्यभार संभाल रहे हैं जब वैश्विक महामारी के चलते उत्पन्न हुई परिस्थितियों के आलोक में, देश में उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों की तर्ज पर कुमाऊँ विश्वविद्यालय भी पठन-पाठन और मूल्यांकन, ऑनलाइन करने की कोशिश में जुटा हुआ है.
उच्च शिक्षा में पठन पाठन के कार्य ऑनलाइन संचालित करना देश के सभी संस्थानों के लिए बहुत हद तक दिक़्क़तों और चुनौतियों से भरा तो है ही लेकिन कुमाऊँ विश्वविद्यालय के लिए इस क्षेत्र की भौगोलिक-समाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के चलते इस मामले में चुनौतियाँ और भी विकट हैं. मसलन, 12 मई के हिंदुस्तान अखबार में हल्द्वानी से प्रकाशित खबर के अनुसार कुमाऊँ विश्वविद्यालय और इससे संबद्ध महाविद्यालयों के 1.32 लाख छात्रों में से 60 हजार छात्र संचार सुविधाओं की कमी के चलते ऑनलाइन पढ़ाई से नहीं जुड़ पा रहे हैं.
इसके बावजूद भी उच्च शिक्षा निदेशालय का जोर येन-केन प्रकारेण ऑनलाइन माध्यम से शैक्षणिक गतिविधियों को करवा देने पर है. संचार सुविधाओं पर ज़मीनी वास्तविकताओं की ख़बरें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने और इस पर ही छात्र-छात्राओं की ओर से विरोध के स्वरों के बावजूद, निदेशालय की ज़िद के चलते वि.वि. प्रशासन भी इस फरमान पर कदमताल करने में जुटा हुआ है.
नव नियुक्त कुलपति डॉ.जोशी के लिए पहली तात्कालिक चुनौती तो इस मुद्दे से पार पाने के लिए वि.वि. की ओर से ठोस रणनीति तैयार करना ही है.
इसके अलावा, आगामी कुछ महीनों में देश भर के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में स्नातक से आगे की पढाई के लिए विभिन्न प्रवेश परीक्षाएं होनी हैं। हर वर्ष की तरह, कुमाऊँ विश्वविद्यालय के तमाम विद्यार्थी इस वर्ष भी इन परीक्षाओं में भाग लेने की तैयारी कर रहे हैं लेकिन वि.वि.द्वारा अब तक पिछले सेमेस्टर के ही परिणाम तक जारी नहीं किये गए हैं. वर्तमान सेमेस्टर में किस तरह परीक्षाएं कराई जाएंगी इस पर कोई कार्ययोजना तैयार नहीं है, ऐसे में प्रवेश परीक्षाएं देने के इच्छुक सभी विद्यार्थियों के सामने गंभीर समस्याएं आने वाली हैं जिस पर तत्काल सोचे जाने की जरूरत है।
इन तात्कालिक चुनौतियों के साथ ही, विश्वविद्यालय से संबद्घ 100 से ज्यादा शासकीय महाविद्यालयों की खराब दशा, सही ढंग से सत्र का न चल पाना, परीक्षाओं और परिणामों में अनियमितता यह ऐसे कार्य हैं जिन्हें दुरुस्त किया जाना बेहद जरूरी है. इन मूलभूत समस्याओं से निपटे बिना विश्वविद्यालय में गुणवत्तापूर्वक अकादमिक वातावरण तैयार करने जैसे लक्ष्य अप्राप्य ही रह जाएंगे.