शंभू राणा
‘लच्छी’ भूमिका जोशी का इसी वर्ष प्रकाशित उपन्यास है. वाणी प्रकाशन से छपा यह उपन्यास एक घर, उसके वाशिन्दों और एक शहर की कहानी है. उपन्यास में अपने को पढ़वा ले जाने की क्षमता है. छह उप—शीर्षकों और उनके भी अनगिनत छोटे—छोटे शीर्षकों, मसलन साढ़े छह किलो की चाभी, के कारण पाठक की उत्सुकता अन्त तक बनी रहती है.
‘लच्छी’ लगभग डेढ़ सौ साल पुराने ‘विश्वनाथ निकेतन’ उसमें निवास करने वाले लोगों जिनमें श्रीमती लक्ष्मी तिवारी लच्छी भी हैं, की कहानी है. उन सब की आदत, स्वभाव व सनकों की कहानी. लच्छी इस कथा की मुख्य पात्र—नायिका हैं. लच्छी की बनावट कुछ ऐसी है कि कथा के अन्त तक वह हर पाठक की अपनी नानी—जगत नानी बन जाती हैं.
यह न केवल विश्वनाथ निकेतन का आख्यान है बल्कि अल्मोड़ा शहर की नगर कथा भी एक तरह से इसे कहा जा सकता है. नैनिहाल होने के कारण लेखिका का शहर से बचपन से नाता रहा है. पुरानी स्मृतियां हैं. बाद में वे लम्बे प्रवास पर अल्मोड़ा आकर रहती हैं और शहर को बकौल उनके अल्मोड़ियत को जीती व महसूस करती हैं. इस फुर्सतिये शहर की मंथर चाल, शहर में पाए जाने वाले चरित्र—पात्र सब इस कथा में आते हैं. लोगों द्वारा दूसरों के जीवन में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी और सवालों की झड़ी, समलन, सिर्फ कहां जा रहे हो पूछकर नहीं बख्शा जाएगा. कुछ और सवालों के जवाब अनिवार्य होंगे— क्यों, किस काम से, फलां की दुकान तक भी जाओगे या कहीं और भी जाओगे, आज क्यों नहीं, रोज तो जाते हो, अभी से घर में भी क्या करोगे, थोड़ा टहल आना…. अभी तक तो तुम काम निपटा कर आ भी जाते.
बतकही, गपबाजी और तानाकशी का शहर में पुराना रिवाज है. सीधे संबोधित किए बिना अपनी बात कारगर तरीके से कहने का एक नमूना मुलाहिजा हो— कुछ बड़ी उम्र के पुराने दोस्त किसी के घर में जमा हैं. समय काटने की गरज से ताश की बाजी चल रही है. तभी वहां एक और सज्जन आते हैं और कहते हैं— अभी रास्ते में फलां आदमी मिल गया. कहने लगा चाय पीकर जाओ. मैंने कहा— अबे, मैं क्या किसी भूखे—नंगे के घर जा रहा हूं जो चाय पीकर जाउं ?
आदमियों के नाम रखने की पुरानी परंपरा—सी रही है. मसलन, रसायन विज्ञान पढ़ाने वाले छोटे से कद के अध्यापक क्वांटम कहे जाते हैं. कई नाम इस कदर चल पड़ते हैं और जबान पर चढ़ जाते हैं कि पुश्तों तक साथ नहीं छोड़ते.
‘अल्मोड़िया चाल’ बड़ी मशहूर और बदनाम है. अल्मोड़ा से बाहर सामने अल्मोड़ा वाला बैठा है जाकर अक्सर लोग थोड़ा संभलते—से नजर आते हैं, जैसे पहाड़ का आदमी मैदानी इलाके के लोगों के सामने रक्षात्मक मुद्रा में आ जाता है. पहाड़ में अक्सर सुनने को मिलता है कि मरा हुआ देसी भी पहाड़ी को ठग सकता है. ऐसी ही कुछ छवि अल्मोड़ा और यहां लोगों की है.
इस सब में अल्मोड़ा वासियों और इस शहर से नाता रखने वालों की दिलचस्पी स्वाभाविक रूप से होनी ही चाहिए.
एक उप—शीर्षक है— बन्दर औरतों की आवाज से नहीं डरते. आवारा कुत्तों, जीना मुहाल किए हुए बन्दरों के अलावा दूसरे पशु—पक्षी भी इस कथा के पात्र हैं.
अल्मोड़ियापन, अल्मोड़ियत या अल्मोड़िया चाल जो भी कहा जाए, इस सबको जीने और भोगने के बाद कलात्मक रूप से कथा में पिरोया गया है. तकनीकी रूप से ‘लच्छी’ उपन्यास उतना नहीं जान पड़ती जितनी कि आत्मीय संस्मरणों व स्मृतियों का सुन्दर गुलदश्ता लगती है. यह चीज ‘लच्छी’ की एक अतिरिक्त खूबी बन जाती है और पठनीयता को रवानगी देती है.
भूमिका जोशी एक शोधार्थी के इतर भी सामाजिक सरोकारों पर लेखन व अनुवाद करती रही हैं. उपन्यास/पुस्तक के रूप में उनका यह पहला पर्याप्त अच्छा प्रयास है.