देवेन मेवाड़ी
स्याह रातों में कभी तारों भरा आसमान देखा है आपने? अगर हां तो आसमान में आरपार फैली कहकशां और उसके चमकते बेशुमार तारों को भी जरूर देखा होगा। उन्हीं तारों में से एक तारा हमारा है। हमारा आफ़्ताब, हमारा सूर्य। इसके गिर्द जो आठ प्लेनेट घूम रहे हैं, उनमें से एक प्लेनेट है- हमारी अनोखी सरज़मीं, हमारी पृथ्वी। अनोखी इस मायने में कि साइंसदानों ने अब तक कायनात में जहां तक खोजबीन की है, उससे पता लगा है कि सिर्फ हमारी सरज़मीं में ही ज़िंदगी की शमा रौशन है। बाकी कहीं ज़िंदगी के निशां नहीं पाए गए हैं। इसीलिए तो अनोखी है हमारी यह सरज़मीं।
मगर ऐसी क्या बात है कि ज़िंदगी का चिराग बस यहीं रौशन हो गया? इसकी वजह क्या है? वजह यह कि हमारी सरज़मीं सूरज से ठीक इतनी दूरी पर है कि न यहां बेतहाशा गर्मी पड़ती है और न बेहद सर्दी, कि जिसमें ज़िंदगी पनप ही न सके। दूसरी वजह है- इसका एटमास्फियर। यानी, इसके चारों ओर 800 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैली हवा की परत। यह हमारी सांसों का खज़ाना है। कुदरत ने इसमें हमारी सांसें बड़ी हिफाजत से जमा की हुई हैं। हम दिन-रात इसी हवा में सांस लेते हैं। इस हवा में नाइट्रोजन गैस है, आक्सीजन है, थोड़ी आर्गन और कार्बन डाइआक्साइड गैस भी है। ओज़ोन और नियान गैस भी है। साथ ही पानी की नन्हीं बूंदें भी इसमें हैं। कुदरत ने इन्हें एटमास्फियर की हवा में नाप-तौल कर सही मिकदार में रखा था। हम ज़िंदा हैं तो इसी हवा में सांस लेकर ज़िंदा हैं।
ये तो रहीं दो वजहें कि इस सरज़मीं पर ज़िंदगी की शमा क्यों रौशन है। एक और बड़ी वजह है इसकी। वो यह कि ज़िंदगी के पनपने के लिए और ज़िंदा रहने के लिए बाकी जरूरतें हमारी मादरे-ज़मीं पूरा कर देती है। यह हमें हमारे खाने की चीजें मुहैया कराती है, पीने के लिए पानी देती है और हिफाजत से रहने के लिए हम इसी पर अपना आशियाना बनाते हैं। इस तरह मादरे-ज़मीं हमें हवा, पानी, खाना और रहने की जगह देकर हमें ज़िंदा रखती है।
‘हमें’ से हमारा मतलब यहां सिर्फ आदमजात से नहीं है बल्कि इस पूरी खूबसूरत सरज़मीं पर जी रहे लाखों-लाख जानवरों, परिंदों, बेशुमार कीट-पतंगों, ज़मीं और नदी-तालाबों व समंदरों में रहने वाले जानवरों से भी है। ये सभी लाखों-करोड़ों जानवर और हम कुदरत के आगोश में रहते और पनपते हैं।
पर यह कुदरत क्या है? कुदरत का मतलब है- वह सब कुछ जो हमारे चारों ओर है। यानी, हमारे चारों ओर की दुनिया। वह दुनिया जो हमारा माहौल बनाती है और उस माहौल में हम महफूज रहते हैं। यही माहौल ‘एंवायरनमेंट’ यानी पर्यावरण कहलाता है। इसमें हरे-भरे दरख्त हैं, ऊंचे-नीचे पहाड़ और गहरी घाटियां हैं। दलदल और रेगिस्तान हैं। दरिया, चश्मे, हरदम बहते झरने और झील-तालाब हैं, खारे पानी से भरे नीले समंदर हैं। और, सांस लेने के लिए हवा है।
अगर कुल मिला कर यह माहौल सही-सलामत रहेगा तो इसमें ज़िंदगी भी खूब पनपेगी और आदमजात के साथ-साथ बाकी सभी जानवर भी महफूज रहेंगे। हम सभी का वज़ूद बना रहेगा।
शुरूआत में हुआ भी यही। इंसान तब जंगलों में रहता था। फल-फूल खाकर और शिकार करके अपना पेट भरता था। कुदरत का सारा खज़ाना उसके सामने था। वह कुदरत के साथ जीने लगा, ठीक वैसे ही, जैसे बाकी जानवर जी रहे थे। मगर आदमी अधिक होशियार था। उसने नई-नई तरकीबें ईज़ाद कीं और अपनी मर्जी से कुदरत का इस्तेमाल करने लगा। अपना परिवार और कुनबा बना कर वह ज़मीन पर कब्जा करने लगा।
ज्यादा से ज्यादा जमीन हथियाने के लिए आदमी दरख्तों, जंगलों को काटने लगा। शौक के लिए जंगली जानवरों का शिकार करने लगा। उसने गांव बसाए, नगर बसाए और फिर कंकरीट की इमारतों के जंगल खड़े कर दिए। आदमी का लालच बढ़ता गया। आगे और आगे बढ़ने की कोशिश में आदमी ने जंगलों को बुरी तरह उजाड़ दिया। दरख्तों की हरियाली घटती और घटती चली गई। शहरों के क़दम आगे बढ़ने से खेती की ज़मीन का रक़बा भी घटता चला गया। गोया, हरियाली गायब होती चली गई।
लिहाजा, हमें सबक लेना होगा। तहे-दिल से महसूस करना होगा कि यह सरज़मीं, यह खूबसूरत प्लेनेट जिसमें ज़िदगी की शमा रौशन है, बची रहे। इसे बचाने के लिए हमें कुदरत से छेड़छाड़ बंद करनी होगी। इसके माहौल को सुधारना और उसका तहफ़्फुज़ करना होगा। तभी हमारा और इस सरज़मी पर हमारे हम सफर जानवरों और दरख्तों का वज़ूद बचा रहेगा। हमारा यह प्लेनेट पूरी कायनात में अनोखा है। यह खरबों तारों और कहकशांओं के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान है। हमें इसे बचाना होगा।