तारा चन्द्र त्रिपाठी
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ था. इन 68 सालों में हम अजाद हो गये हैं. हमारी संसद हुड़दंगियों के जमावड़े में बदल गयी है और इसका कारण है हमारी मूल्यहीन राजनीति. हमारी मूल्यहीन न्याय व्यवस्था. मौका देख कर निर्णय लेने की आदत. कुल मिला कर ’अपने सय्याँ से नयना लड़इहैं हमार कोई का करिहै’ कि मनोवृत्ति. जब अढ़सठ साल में यह हाल है तो शताब्दी तक क्या होगा? देश विदेशी सत्ता से तो मुक्त हुआ पर अपने ही दादाओं ने उसे जकड़ लिया है. सत्ता का मोह देशबोध पर हावी हो गया.
राजनीतिक दलों में सत्ता को अपनी बपौती मानने वाली कांग्रेस है. अपने खानदान के लिए सत्ता और समृद्धि तक सीमित दल और उनके गुर्गे हैं. मुल्लामौलवियों और मुलायमों के जाल में फँसे सर्वहारा हैं, मायावती के मोह में लुटते दलित हैं. ऐसे में इस देश का क्या होगा समझ में नहीं आता? विशाल जनबल होते हुए भी आम आदमी पिस रहा है पूरा भारत अनाचार और भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है.
संसद और विधान सभाओं में पूर्व सामन्तों और नव सामन्तों के वंशज, दादा और सिनेमा के पर्दे से उतरे नायकनायिकाओं की संख्या बढ़ती जा रही है. प्रजातंत्र पैसा फैंको, तमाशा देखो बन गया है. जनता के लिए एक ही विकल्प रह गया है कि वह किस खाई में गिरे. मोदी, मुलायम, राहुल, मायावती, सब के सब किसी न किसी बहाने जनमत को खरीदने या बरगलाने में लगे हैं. राज्यसभा जो चुने हुए विवेक सम्पन्न लोगों की सभा के रूप में परिकल्पित हुई थी, जनमत जुटाने में असफल घुसपैठियों का अड्डा बन गयी है. एक ऐसा जमघट जो जन सामान्य को एक बिकाऊ वस्तु से अधिक महत्व नहीं देता. चुनाव आयेंगे, और देश की अपने भविष्य के प्रति बेखबर भोलीभाली जनता को जाति के नाम पर, सम्प्रदाय के नाम पर, बिके हुए मीडिया के बल पर और बाकी को बोतल और पैसे के बल पर खरीदकर सत्ता पर काबिज हो जायेंगे. इस सोच की भूमि पर जो राजनीति खड़ी है, वह देश का कब बंटाधार कर दे,कहा नहीं जा सकता.
पहले सर्वोच्च न्यायालय के राजनीति को अपराध मुक्त करने के प्रयास से सम्बद्ध निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए संविधान संशोधन, फिर राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर करने का निर्णय और अब महालेखा नियंत्रक और चुनाव आयोग के पर कतरने,सूचना के अधिकार को पंगु बनाने, लोकपाल को गर्भ में ही निष्प्राण करने,और किसी जन प्रतिनिधि की आलोचना करने को भी देश द्रोह बनाने की तैयारी है. नेताओं के वोट बैंक माने जाने वाले सम्प्रदाय के दादाओं को मनमानी करने पर रोकने वाले अधिकारी दंडित होते हैं. जनता में अधिकारियों की अच्छी छवि होना भी नेताओं को अखरता है….कहीं सब के सब जन प्रतिनिधि धारा नगरी के राजा मुंज के वंशज तो नहीं हैं जो इस देश के अस्तित्व को केवल अपने जीवन काल तक ही सीमित कर देने पर तुले हुए हैं.
भारतीय समाज का एक बड़ा समूह भस्मासुरों (अलगाववादियों) के मकड़जाल में है. खतरा बाहर से उतना नहीं है जितना भीतर से है. भारत के भाग्य विधाता बने ये अधिनायक आम जनता की आर्थिक स्थिति सुधारने और उनकी जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करने के स्थान पर नव सामन्तवाद को बढ़ाने के साथसाथ सांप्रदायिक और जातीय उन्माद फैलाते हैं.
देश में भीतर ही भीतर इतना बड़ा प्रपंच चल रहा है कि आम जनता केवल भोज्य पदार्थ मात्र रह गयी है. इनमें भी दलित और मुसलमान तो पशुओं की तरह खाद्य पदार्थ ही समझ लिये गये हैं. एक के लिए आरक्षण का इन्द्रजाल बिछाया गया है तो दूसरे को बलि के लिए कठमुल्लाओं के हवाले कर दिया गया है. हर देश में क्रान्ति का अग्रदूत माना जाने वाला मध्यवर्ग केवल अपने ही ’गुणमुणाट’ में लगा है.
’प्रजातंत्र’ शब्द ही अपने आप में इस बात को व्यक्त करता है कि कोई प्रजा को हाँकने वाला भी होता है, जिसे विधायक या सांसद कोई भी नाम दें मनोवृत्ति से सामन्त ही होता है. उसे पाँच साल मनमानी करने के लिए केवल एक दिन प्रजा या मतदाता की आवश्यकता होती है. अतः उस दिन वह उसको उतरैणी के पर्व सा काले कौआ मानता है. जिससे उसे अगले पाँच साल मतदाताओं का खतड़ुुवा मनाने का अधिकार मिल जाता है. उसके बाद वह, चाहे किसी वेश में हों ’जो देगा उसका भला’ का जप करता हुआ इस पर्व के लिए उन्हें दान या चन्दा देने वाले धनकुबेरों की सेवा में लग जाता है और कभीकभी मतदाता के सामने भी, तू भी क्या कहेगा के अन्दाज में, एकआध टुकड़ा डालता रहता है. कारण, प्रजातंत्र का उद्देश्य ही सुधार और विकास का ढोल बजाते हुए यथास्थिति बनाये रखना है.
यह प्रजातंत्र भी चुनाव तक सीमित है. मतदाता की अंगुली में कालिख लगी नहीं कि प्रजातंत्र गायब. योगी के वेश में आया रावण अपने वास्तविक रूप में आ जाता है. भिक्षा देहु कुटी से री माई की जगह पर तेरे पति को करूँ भक्षण न पीऊँ घूँट एक जल का निनाद व्याप्त हो जाता है. मत पेटिकाएँ लगातार नये राजवंशों को उगल रही हैं दिल्ली का नेहरू वंश, अवध का मुलायमवंश, बिहार में लालू और रानी राबड़ी, चेन्नइ का करुणानिधि वंश, उड़ीसा का पटनायक वंश, झारखंड का सोरेन वंश, छत्तीसगढ़ का जोगी वंश, महाराष्ट्र का शरद पँवार वंश, पंजाब का बादल वंश, यही नहीं, सिन्धिया,पायलट…, गिनते जाइये.. हर नेता अपनी गद्दी अपने बेटे को सौंपने की फिराक में है. न केवल बड़े नाम वाले नेता अपितु, हरीश रावत, यशपाल आर्य, इन्दिरा हृदयेश, जैसे दूसरे दर्जे के नेता भी वसीयत अपने बेटों के नाम कर रहे हैं.
सांसद, विधायक,जिला प्रधान से लेकर ग्राम प्रधान तक वंशवाद की बेलें फैल गयी हैं.परिणामतः हर नेता का बेटा अपने आप को पिता की गद्दी का मौरूसी हकदार मानने लगा है. मंत्री का बेटा मंत्री, सांसद का बेटा सांसद, प्रोफेसर का बेटा प्रोफेसर, ….यह प्रजातंत्र है या नव सामन्तवाद! इस देश में जनतंत्र केवल नाम का है. वास्तविकता यह है कि हम फिर से उत्पीड़क और स्वेच्छाचारी सामन्तवाद की ओर बढ़ रहे हैं. वह चाहे शाहजहाँपुर के एक पत्रकार को मंत्री के निर्देश पर पुलिस द्वारा जिन्दा जला दिये जाने और राज्य सरकार द्वारा अपराधी मंत्री को संरक्षण दिये जाने का हो या केन्द्र की भा.ज.पा. सरकार द्वारा 7 अरब से भी अधिक कालाधन विदेश भेजने के अपराधी ललित मोदी को पारपत्र निर्गमित करवाने का, दिल्ली की सरकार के हर काम में अड़ंगा डालने का, संदिग्ध शैक्षिक योग्यता वाली और चुनाव में पराजित टी.वी. सीरियल की नायिका को शिक्षा मंत्री बनाने का…. क्या आपको नहीं लगता है कि इस देश में सत्ता पर बैठते ही हर श्री राम में रावण का आवेश हो जाता है और वह रामचरितमानस के रावण की तरह ’हम काहू ते मरहिं न मारे. नर कपि भालु अहार हमारे’ के मूड में आ जाता है. परिणामतः हर बार ’अच्छे दिन आने वाले हैं’ की आशा मृगमरीचिका में रूपान्तरित होती रही है. आम आदमी का अपनी भूमि पर तभी तक हक है जब तक लाला की नजर उसकी जमीन पर नहीं पड़ी है. संसद राजनीतिक अन्धेरगर्दी का मंच बन गयी है.
राजनीति के अपराधीकरण के कारण पूरे देश में सरकारी तंत्र की सार्थकता समाप्त करने वाले माफिया तंत्र की समानान्तर सरकार चल रही है. ये विधाता अनेक रूपों में प्रकट होते हैं. विविध हथियार बन्द सेनाएँ, दवामाफिया, तस्कर, आर्थिक दलाल और अनेक नरमेध करने में समर्थ दादा इनमें प्रमुख हैं.राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं स्थानीय स्तर पर भी राजनेता, मंत्री, तंत्री, समाचार और प्रचार के नारद, अन्य तंत्रेतर महाकर्मी इनकी लीला के अधीन हैं. इन में तो कुछ का प्रभाव देश देशान्तरों तक व्याप्त है.
शासन में हावी वर्ग का सामन्ती दृष्टिकोण, किसी भी व्यक्ति की अपने हित के लिए नियम और कानूनों को ताक पर रख देने की क्षमता से उसके सामाजिक स्तर की पहचान के कारण समाज में भ्रष्टाचार को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता. भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ निमग्न अधिकतर नेताओं को व्यापक जनसमर्थन प्राप्त है. पारदर्शिता, संवेदनशीलता, उत्तरदायी सुशासन और सार्वजनिक कार्यों में शुचिता जैसे आदर्श केवल नारों में ही शेष रह गये हैं.
सत्ता पर हावी कोई भी राजनीतिक दल अपनी निर्बन्ध स्वेच्छाचारिता पर किसी प्रकार के नैतिक या विधायी नियंत्रण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. परिणामतः लोकपाल गर्भ से बाहर नहीं निकल पा रहा है. केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त का पद दीर्घान्तराल तक खाली रहा है. केन्द्रीय सूचना आयुक्त की कुर्सी धूल फाँकती रही है. न्यायाधीशों से लेकर पुलिस के सिपाहियों तक के हजारों पद खाली पड़े हैं. किसी भी दल की सरकार का वश चले तो वह संवैधानिक नियंत्रण के हर पद को बिना एक घूंट पानी के ही निगल जाय.
देश की संसद और विधान सभाओं में ही 207 प्रतिनिधियोंपर बलात्कार के आरोप हैं अनेक पुलिस अधिकारियों पर भी बलात्कार के आरोप हैं, नैना साहनी को तंदूर में भून कर मार डालने वाले और जेसिका लाल के हत्यारे अपने रसूखों के कारण बारबार पैरोल पर छूट कर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं. मधुमिता शुक्ला के हत्यारे अमरमणि त्रिपाठी को इसलिए उसके घर के पास की जेल में स्थानांतरित किया गया ताकि वह नाममात्र की जेल की हवा के साथ अपने पूरे इलाके पर नवाबी कर सके. जब हरियाणा की युवा खिलाड़ी रुचिरा गिरहोत्रा को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाला पुलिस महानिदेशक राठौर अपने रसूख के बल पर शान से घूम रहा हो, उस देश में नशे में चूर इन अपराधियों को ही फाँसी पर लटकाने से क्या होगा?
पुलिस बल बहुलांश में अफसरों की बीबियों का नौकर और नेताओं का स्टेटस सिंबल है, उसे जैसे साहब या नेता के इशारे पर निहत्थी जनता को ठोकने का ही प्रशिक्षण दिया गया हो, तो इस देश में कौन सुरक्षित अनुभव कर सकता है.
दुनिया के प्रतिष्ठित देशों में न्याय की देवी की आँखों में सचमुच की पट्टी लगी होती है, इसलिए वहाँ न्याय होता है और तुरन्त होता है. पर अपने देश में न्याय की देवी को भी सम्पन्न और प्रभावशाली लोगों के मामले में कोने से झाँक लेने की सुविधा प्राप्त है. प्रभावशाली व्यक्ति को घर बैठे ही जमानत मिल जाती है पर अनन्तकाल तक चलने वाली ढीलीढाली, खर्चीली और संशयग्रस्त न्याय व्यवस्था में इतने छिद्र हो गये हैं कि उनसे समर्थ तो दोषमुक्त होकर निकल जाते हैं पर असमर्थ, जिनमें अधिकतर मात्र चायपानी की कामना करने वाले दरिद्र या मुट्ठी गरम न कर सकने वाले या भूख के कारण रोटी चुरालेने वाले हजारों लोग शामिल हैं, सालों जेलों में सड़ते रहते हैं.या वहीं गोलोकवासी हो जाते हैं.
जो गाँव को बदल सकते थे, वह गाँव छोड़ कर शहरों में आ गये. जो शहर को बदल सकते थे वे शहर को छोड़ कर महानगरों में बस गये, और जो देश को बदल सकते थे, वे एक के बाद एक देश छोड़ कर विदेशों में बस रहे हैं. गाँव में, शहर में, महानगर में और देश में उनकी तूती बोल रही है जिनको अपने से इतर कुछ नहीं दिखाई देता.
नैतिकता और विकास का शेर बनते हुए मोदी आता है और मूल्यहीनता के अभाव में साल भर में ही चूहा बन जाता है अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एक ईमानदार अधिकारी करोड़ों का घपला प्रकाश में लाता है तो उसे वहाँ से हटा दिया जाता है. भ्रष्टाचारी को संरक्षण देने वाले सांसद को ही स्वास्थ्य मंत्री बना दिया जाता है. विदेश मंत्री पत्नी की अस्वस्थता का बहाना लेकर अपने रसूख वाले भगोड़े अपराधी का पासपोर्ट मुक्त करवा देती हैं. संसद का पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ जाता है. संसद साँसत बन जाती है. वही मूल्य हीनता. मूल्य तो जैसे लालबहादुर शास्त्री के साथ ही चले गये.
माना कि देश का कुल घरेलू उत्पाद बढ़ा है प्रति व्यक्ति आय के मायाजाल से तो आभास होने लगता है कि देश में गरीबी और अभाव समाप्त हो गये हैं पर यह सब आंकड़ों के मायाजाल से अधिक कुछ नहीं है. तथाकथित आर्थिक प्रगति, सही अर्थों में बड़े व्यापारिक घरानों और उच्च, मध्यम वर्ग की उत्तरोत्तर वृद्धि के अलावाआम आदमी के जीवन स्तर में कहीं नजर नहीं आती.
हमारी शासन व्यवस्था की एक और बड़ी विसंगति तदर्थवाद है. तदर्थवाद या ’फिलहाल ऐसे ही काम चला लेते हैं’ की प्रवृत्ति. कल देश का जो होगा, वह आने वाले जानें. परिणामतः पूरी व्यवस्था लड़खड़ा गयी है. पता ही नहीं चलता कि यहाँ कोई व्यवस्था है भी, या नहीं. इस व्यवस्था ने हम सब को मौका परस्त बना दिया है. मौका देख कर हम सब वह कर जाते हैं जो अपने आप को ईमानदार समझने वाले व्यक्ति को नहीं करना चाहिए. अपने देश में और विकसित देशों की व्यवस्था में जो अन्तर है उसका प्रत्यक्ष अनुभव विकसित देशों की व्यवस्था को देख कर होता है.
व्यवस्था के मामले में जापान तो अतुलनीय है. आम जापानी में देशप्रेम इस तरह कूटकूट कर भरा है कि उसके लिए देश ही सर्वोपरि है. अतः स्पष्ट निर्देश हों या नहीं जापानी नियम से बाहर नहीं जाता. इसीलिए प्राकृतिक आपदाओं को छोड़ कर जापान विश्व में सर्वाधिक सुरक्षित देश माना जाता है. यह मेरा ही अनुभव नहीं है अपितु उन भारतीय युवाओं का भी है, जो वहाँ रोजगार के लिए पहुँचे हैं या निवास कर रहे हैं. पर संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन जहाँ थोड़ाबहुत वह सब होता है, जिसकी अपने देश में कोई सीमा नहीं रह गयी है, नियमों को निर्पेक्ष रूप से लागू किये जाने से सुव्यवस्था बनी हुई है.
इस तदर्थवाद ने बहुत से विभागों को कानूनी याचिकाओं के जटिल जाल उलझा कर न केवल पंगु बना दिया है अपितु न्यायालयों पर भी अनावश्यक बोझ लादते हुए लाखों कर्मियों के भविष्य को अनिश्चित बना दिया है.
विकसित देशों में और अपने देश में केवल एक मुख्य अन्तर नजर आता है. वह यह की उन देशों के तंत्र में जरा भी लचीलापन नहीं है. वहाँ ’चलता है’ सिरे से गायब है और अपने देश का तंत्र इतना लचीला है कि यहाँ ’चलता है’ के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता. यहाँ तक कि और तो और न्याय की सर्वोच्च पीठ के पीछे तराजू लिये न्याय की देवी भी जैसे न्याय करने से पहले प्रायः आखों पर बँधी पट्टी के कोने से पात्र की सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक हैसियत देख लेती है.
देश की राजनीति पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हावी है.उसकी सोच में भारत के गरीब, मजदूर, किसान के लिए कोई ठिकाना नहीं है. केवल ’हिन्दू’ के लिए है. ऐसा हिन्दू जिसे रोटी नहीं चाहिए, मंदिर चाहिए, अतीत का सम्मोहन चाहिए, उस अतीत का जो उसके दिमाग में इन पुराणपन्थियों ने भरा है. वह जो हिटलर की तरह जर्मन जाति को सर्वश्रेष्ठ समझता है और इसी व्यामोह में गैर जर्मनों की हत्या करता है. विश्व को महायुद्ध के दलदल में झोंक देता है.
राजनीति में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का वर्चस्व बढ़ते जाने पर यह दुर्दशा और भी बढ़ेगी. लाला और भी हावी होगा. शिक्षा और मौलिक विचारों पर पुराणपंथियों दबदबा होगा. राजनीति युद्धोन्मुख होगी और एक शैतान को हराने के लिए उस से बड़े शैतान के हाथ में सत्ता सौंपना कितना खतरनाक हो सकता है, यह जर्मनी और इटली ही नहीं सारी दुनिया देख चुकी है.
आज देश जिस हाल में पहुँचा है, उसका दायित्व कांग्रेस पार्टी की मूल्यहीन नीतियों पर है. गद्दी बचाने के लिए आपातकाल की घोषणा करना, संसद का कार्यकाल बढ़ाना, अपने मन पसंद व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश नियुक्त करना. मुस्लिम मठाधीशों को तुष्ट करने के लिए शाहबानो का मानवीय हक छीनना. सांसदों की खरीद फरोख्त से सरकार बचाना, जनतंत्र में वंशवाद का बीजारोपण, चुनाव जीतने के लिए जातिवाद और सम्प्रदायवाद को प्रश्रय, माफिया तंत्र को प्रच्छन्न सहयोग और जन सामान्य की घोर उपेक्षा प्रमुख हैं.
आज हिन्दू सम्प्रदायवाद का प्रेत यदि अँगड़ाई लेने लगा है तो उसे जगाने में कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति भी उत्तरदायी है. दुर्भाग्य यह है कि वोटबैंक बनाने की इस नीति में मुस्लिम समाज के उत्थान की घोर उपेक्षा भी शमिल है.
सच तो यह है कि कांग्रेस के तंत्र और भा.ज.पा. के तंत्र में कोई अन्तर नहीं है. जमीन हड़प दोनों ही हैं, वंशवादी दोनों ही हैं. 65 साल हो गये, न पुलिस बदली न प्रशासन. ठेके पर काम करवाना, न तब रुका है न अब रुकेगा. निजी स्कूलों में, सरकारी और गैर सरकारी उद्यमों में गुलामों की तरह न्यूनतम वेतन पर काम करने, और न्यायोचित माँग रखने पर निकाले जाने वाले युवाओं के बारे में सोच न अब तक बदली है न मोदी के आने पर बदलेगी.
मेरे दोस्त सब चिड़ीमार हैं, चुग्गा डाल रहे हैं मायावती हरिजनों को चर रही है, मुलायमसिंह मुसलमानों को, रही बात भा.ज.पा. की वह हिन्दुओं को चरेगी. येदुरप्पा सर्वव्यापी हैं. सब इस देश की सत्ता पर अपनेअपने वंशजों को काबिज करने में लगे हैं.
मेरा अम्बेदकर को आदर्श मानने वाले लोगों से भी कोई मतभेद नहीं है. मुझे तो चिन्ता इस बात की होती है कि मनु को मानने वाले और मनु की परम्परा का घोर विरोध करने वाले नेताओं के विचारों और आचरण में कोई अन्तर ही नहीं है. मायावती जी दलितजीवी हैं, जैसे मुलायम सिंह अल्पसंख्यक और यादव जीवी, भा.ज.पा. हिन्दूजीवी. जीवी या पलने वाला(पालने वाला नहीं). भारत के सभी बुद्धिजीवियों का यही हाल है. नहीं तो अम्बेदकर स्मारक या दूसरे शब्दों में अम्बेदकर मन्दिर बनाने से पहले अम्बेदकर ग्राम बनते. जिनमें युगों से दरिद्रता, उत्पीड़न और अपमान का भीषण दंश सहते आ रहे दलितों की अगली पीढ़ी को स्वस्थ और सम्पन्न परिवेश मिलता. पर ऐसा नहीं हुआ. मायावती भी अपने हित साधने के लिए अम्बेदकर और दलितों की नई पीढ़ी के आक्रोश का इस्तेमाल करती रहीं. वास्तविकता यह है कि हम बुद्धिजीवी केवल अपने से प्रतिबद्ध होते हैं.
मैं किसी वाद की अपेक्षा आचरण को ही मानक मानता हूँ. थोथे आदर्शों की दुहाई देने से कुछ नहीं होने वाला है. किसी वाद से देश की नींव में बोझ और अन्धकार के तले दबते श्रमजीवी वर्ग का भला होने वाला नहीं है.
मेरे विचार से यदि आम जनता की सामान्य जीवन जीने लायक आवश्यकताएं पूरी होती रहें और प्रशासन उन्हें अनावश्यक रूप से तंग न करे और समय पर उनके काम होते रहें उनके लिए दलों के राजनीतिक दृष्टिकोण बेमानी हो जाते हैं. शैव वैष्णव, माले, लाले और अधलाले, के झगड़े तो हम बैठे ठाले बुद्धिजीवियों के शगल हैं.
मैं बाहरी दुनिया की नहीं जानता. अपने देश की स्थिति के भीतर जितना ही पैठता हूँ, मुझे अगली पीढि़यों के लिए उतनी ही चिन्ता होने लगती है. जिसे हम सरकार कहते हैं वह वास्तव में बड़े इजारेदारों की दलाल नजर आती है. उपजाऊ जमीन को उद्योगों के हवाले किया जा रहा है या कंक्रीट के जंगल उगाने के लिए दिल खोल कर भूमाफियाओं को दिया जा रहा है. सवाल यह है कि क्या कल लोग अनाज के बदले औद्योगिक उत्पाद खायेंगे?
जापान जैसा आत्मगौरव और अनुशासन से सम्पन्न देश अपने आणविक ऊर्जा के फुकुशिमा से जल रहा है और हम जिन्हें चोरजार शिखामणि उपाधि से विभूषित करना अनुचित नहीं होगा, दुनिया के दूसरे नंबर की अणु तकनीकी ला कर महाविनाश के द्वार खोल रहे हैं. इण्डोसाल्फान जैसे जिन रसायनों को, दूसरे देश जीवन के लिए खतरनाक समझ कर, निषिद्ध कर रहे हैं, हमारे कृषि मन्त्री उसे दिल खोल कर भारत में खपाने के लिए वादे कर रहे हैं. यह भारत सरकार है या बड़े इजारेदारों की दलाल या चूँचूँ का मुरब्बा. गमले में उगे प्रधान जी और पैसे के बल पर ऊपर से टपकने वाले नेता. जय हो भारत भाग्य विधाता. कोई बात नहीं देश बचे या न बचे. लोग बचें या मरें. तुम्हारी गद्दी बची रहे.
देश के इस भीषणनैतिक अधःपतन के लिए हम सब जिम्मेदार हैं. क्योंकि हम सरकार बनाते हैं और फिर पाँच साल तक ’हाय! हमने क्या कर दिया’ सोच कर रोते हैं.लेकिन जब सरकार को बदलने का अवसर आता है, हमें अपना भविष्य नहीं, जाति, सम्प्रदाय, प्रलोभन और भय दिखाई देता है. परिणामतः जो भी सत्ता आती है वह हमारा भविष्य सँवारने के स्थान पर जाति, सम्प्रदाय, भ्रष्टाचार और उत्पीड़न का ही पोषण करती है. जब तक हम इस व्यामोह से नहीं निकलेंगे यही होगा. जनतंत्र के नाम पर दादातंत्र ही स्थापित होता रहेगा.
जो युवा हैं, तन से ही नहीं, मन से भी युवा हैं, जो राजनेताओं, प्रशासकों के परिवारवाद और लालाओं की खरीद फरोख्त से बड़ी तेजी से आकार ले रहे नव सामन्तवाद के खतरे से अपनी भावी पीढि़यों को बचाना चाहते हैं, उनके पास इस लुटेपिटे वर्तमान में,केवल उस सोच के जो कभीकभी हम सब के मन में उठती है, कि चुनाव के झुनझुने में अंगुली पर कालिख पुतवाने के अलावा इस देश में सामान्य जन का कोई हक है या नहीं, कोई विकल्प भी नहीं है.
अभी तो तरहतरह के प्रलोभनों से जाति और सम्प्रदाय की चादरों से ढक कर विद्रोह के ज्वालामुखी को फूटने से रोकने की चूड़ान्त चेष्टा हो रही है. ज्वालामुखी के फूटने में अधिक देर नहीं है. ज्वालामुखी फूटेगा, कुछ काल के लिए दृश्य बदलेगा. लेकिन जो नयी पौध होगी, सत्ता उसे भी ऐसा ही बना देगी. यह इतिहास की नियति है. क्रान्ति के पुत्र भी नेपोलियन बन जाते हैं और जनतंत्र की भूमिका में राजतंत्र स्थापित हो जाता है.