राजीव लोचन साह
कुमाऊँ, जो प्रकारान्तर से उस वक्त लगभग आज का सम्पूर्ण उत्तराखंड ही था, भारत का एक दूरस्थ प्रान्तर होने के बावजूद देश की मुख्यधारा से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। भारत के समाज और राजनीति में जो कुछ घटता था, वह यहाँ के समाज को भी गहराई से प्रभावित करता था। राजनैतिक चेतना भी यहाँ इतनी थी कि 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के वक्त से यहाँ के लोग उसके सम्मेलनों में शिरकत करने लगे थे।
1921 में जब कुमाऊँ में कुली बेगार का आन्दोलन चल रहा था तो उस वक्त भी यहाँ से लोग गांधी जी के पास उनसे यह आग्रह करने पहुँचे थे कि आप हमारे आन्दोलन का नेतृत्व कीजिये। गांधी जी इस आन्दोलन के बारे में जान कर बहुत प्रभावित हुए, मगर उन्होंने आ पाने में अपनी असमर्थता जाहिर की। उन्होंने आश्वासन दिया कि जब भी मौका मिलेगा वे कुमाऊँ की एक विस्तृत यात्रा करेंगे। उन्होंने आन्दोलनरत कुमाऊँ निवासियों को अपना संदेश भी भेजा, ‘‘बेगार नहीं देना होता है।’’ ‘अल्मोड़ा’ और ‘कुमाऊँ’ का आकर्षण गांधी जी के दिमाग में जमा रहा।
यह यात्रा करने का मौका गांधी जी को मिला 1929 की गर्मियों में, जब जवाहरलाल नेहरू द्वारा उनके लिये ‘काम के साथ-साथ आराम’ करने के लिये इस यात्रा की योजना बनायी गयी। यात्रा का पूरा कार्यक्रम प्रभुदास गांधी ने तैयार किया। ‘दरिद्रनारायण’ के लिये कोष एकत्र करने के अतिरिक्त इस यात्रा का कोई विशेष उद्देश्य भी नहीं था। हालाँकि लगभग तीन सप्ताह लम्बी इस यात्रा के अन्तिम चरण में वे कौसानी में श्रीमद्भगवतगीता की टीका के रूप में ‘अनासक्ति योग’ भी लिख पाये। ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने जिक्र किया कि इस यात्रा में मैं कुछ लोगों को काम के लिये नहीं सिर्फ उनके स्वास्थ्य लाभ के लिये अपने साथ ले जा रहा हूँ।
बापू की यात्रा शुरू होनी थी नैनीताल से। उनके काफिले में उनके, कस्तूरबा, देवदास गांधी और नेहरू जी के अतिरिक्त राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, प्यारे लाल और पृथ्वीराज थे। महिलाओं में थीं मीरा बहन, खुर्शेद बहन, जमना बहन और कुसुम बहन। जवाहर लाल नेहरू को उनकी पत्नी कमला नेहरू का स्वास्थ्य खराब होने की सूचना मिलने के कारण प्रेम विद्यालय ताड़ीखेत से वापस लौट जाना पड़ा था, मगर तब तक आचार्य जे. बी. कृपलानी दल से आ मिले थे।
नैनीताल में रईसों की कमी नहीं थी। लेकिन जो गांधी जी के इस भारी-भरकम काफिले को टिकाने की हैसियत रखते थे, वे या तो राजे-रजवाड़े थे या फिर राय साहब-राय बहादुर किस्म के सरकारपरस्त। गांधी जी की मेजबानी कर वे औपनिवेशिक सरकार का कोप भाजन नहीं बनना चाहते थे। गोविन्द लाल जी को भी बाद में इस दुस्साहस की कीमत अदा करनी पड़ी। गोविन्द बल्लभ पन्त आदि कांग्रेसी गोविन्द लाल जी के राष्ट्रवादी विचारों से परिचित थे। वे गोविन्द लाल जी के पास पहुँचे, यह पूछने कि क्या वे गांधी जी और उनकी टीम को ताकुला में अपने घर पर टिकाना चाहेंगे। नाना जी को तो जैसे मुँह माँगी मुराद मिल गई। उन्होंने बगैर आगा-पीछा सोचे हुए कांग्रेसियों का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। हालाँकि गांधी जी ने स्थानीय स्वागत समिति को स्पष्ट निर्देश दिये थे कि यात्रा बहुत सादगी से होगी, यात्री अपना खर्च स्वयं उठायेंगे और यदि एकत्र की गई चन्दे की धनराशि से कुछ रकम खर्च करनी ही पड़े तो उसका पूरा हिसाब उन्हें दिखाया जाये; मगर न तो कांग्रेसी उनके स्वागत में कोई कोर कसर छोड़ना चाहते थे और न ही उनके मेजबान गोविन्द लाल साह सलमगड़िया किसी तरह की सादगी बरतना चाहते थे।
14 जून 1929 को महात्मा गांधी ताकुला पहुँचे। नैनीताल हल्द्वानी मोटर मार्ग में, नैनीताल से पाँच किमी. पर जहाँ आजकल उत्तराखंड परिवहन निगम का ताकुला का ‘प्रार्थना पर बस स्टॉप’ है, बापू कार से उतरे। लाला गोविन्द लाल साह सलमगड़िया ने उनकी अगवानी की और नीचे उतरती पगडंडी पर बापू को ले चले। इस पगडंडी पर पानी का छिड़काव किया गया था और दोनों ओर चूना डाला गया था। चार माह पूर्व हासिल हुई ताकुला की जमीन पर अभी ‘गोविन्द नगर’ बसने-बसाने की शुरूआत हो ही रही थी और सारी इमारतें बन नहीं पायी थीं। गांधी जी को मोती भवन में ठहराया गया। पूरे मकान को कदली वृक्ष के द्वारों और रंगीन कागज की झंडियों से सजाया गया था।
गांधी के नाम का जादू कांग्रेसियों और नैनीताल के शहरियों को ही नहीं, आसपास के ग्रामीणों को भी ताकुला खींच लाया था। उस रोज तीसरे पहर नैनीताल जाते हुए तल्लीताल की नया बाजार में उनके जुलूस का जो दृश्य अखबार में छपा है, वह अपनी विशालता में 1994 के उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के जुलूसों का भ्रम देता है। गांधी के ‘दरिद्रनारायण’ के चन्दे के लिये औरतों ने खुल कर अपने आभूषण उनको समर्पित कर दिये।
वर्ष 1923 में निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में आये नैनीताल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बरान ने पहली बार किसी व्यक्ति को अभिनन्दन पत्र देने का निर्णय किया था। ‘संसार विख्यात सर्वमान्य भारतीय नेता’ के प्रति श्रद्धांजलि देने का अवसर मिलने से गद्गद अभिनन्दन पत्र में नैनीताल जनपद का विवरण देते हुए बताया गया था कि ‘सतारगंज, गदरपुर आदि विषैली तराई’ के कारण जनपद की आबादी वर्ष 1891 में तीन लाख से घट कर 1921 की मनुष्य गणना में दो लाख रह गई है। औषधालयों की संख्या बढ़ाये जाने पर भी यह ह्रास रुका नहीं है। हाथ के बुने कपड़ों का व्यवसाय केवल काशीपुर तहसील में बचा रह गया है। मगर बोर्ड इस दिशा में सजग है और उसके जिन कर्मचारियों को बोर्ड से वस्त्र मिलते हैं, उनके लिये खद्दर पहनना अनिवार्य है। बोर्ड की पाठशालाओं में सभी धर्मों, वर्णों और मतों के बच्चे पढ़ते हैं और उनमें स्पर्शास्पर्श का कोई भाव नहीं है।
डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बरान के अभिनन्दन पत्र के जवाब में उनको भेंट किये अभिनन्दन पत्र और चन्दे की थैली के लिये धन्यवाद देते हुए बापू ने कहा, ‘‘मैं दरिद्रनारायाण का प्रतिनिधि हूँ, इसलिये भीख माँगना छोड़ नहीं सकता। आप लोग मुझे कुछ न कुछ देते रहते हो, इसलिये मेरा लालच खत्म नहीं होता। यहाँ के लोग गरीब नहीं हैं, बल्कि वे लोग हैं, जिन्होंने अन्य लोगों से उनका रोजगार छीना है। मैं उन्हें उनकी जिम्मेदारी बतलाने आया हूँ।’’ नैनीताल जनपद में आबादी घटने को लेकर उनका कहना था, ‘‘इतनी अच्छी आबोहवा के बावजूद आबादी क्यों घटी ? क्यों इतने सारे लोग मरे या छोड़ कर चले गये ? ज़ाहिर है कि यहाँ लोगों के पास रोजगार नहीं है। हम अपना ऊन विदेशों को भेज देते हैं, ताकि उनकी मिलों में कपड़ा बने। हम गरीबों से उनकी रोटी छीन रहे हैं, क्योंकि हम मिल का बना कपड़ा खरीद रहे हैं। हमारे शौक बदल गये हैं। हम स्वदेशी कपड़े को घटिया और मिल के कपड़े को अच्छा समझने लगे हैं। साहबों की नकल कर साहब जैसा बनने के लिये हमने गरीबों को बर्बाद कर दिया है। लोग कायर हो गये हैं, जबकि इन्सान को भगवान के अलावा और किसी से नहीं डरना चाहिये। मेरी नजर में
हिन्दुस्तान की गरीबी और कायरता का इलाज यही है कि हम विदेशी कपड़ों का त्याग कर दें। इस कोशिश में हर भाई-बहन को सहयोग करना चाहिये। जबसे चरखे का संदेश देश में फैला है, हजारों औरतों को जिन्दगी मिल गई है। मुझे नहीं मालूम कि यहाँ शराब का प्रचलन कितना है। यह वह बुराई है, जिसने भगवान श्रीकृष्ण के होते हुए भी यादवों का नाश कर दिया।’’
लोगों का कांग्रेस में शामिल होने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यदि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और पारसी एकजुट हो जायें तो हमें आज ही स्वराज मिल जायेगा। दूसरी हटाने वाली चीज अस्पृश्यता है। यदि छुआछूत खत्म नहीं हुआ तो हिन्दू धर्म मिट जायेगा।’’ अन्त में अपने खास अंदाज में उन्होंने कहा, ‘‘किसी ने मुझे दो बड़े बक्से दे दिये हैं। वे बहुत खूबसूरत हैं। मगर मेरे पास उन्हें रखने की जगह कहाँ है ? मैं आपके साथ एक सौदा करना चाहता हूँ। आप मुझे इन बक्सों के अच्छे पैसे देकर इन्हें खरीद लीजिये।’’
बापू का यह एक दिन का गोविन्द नगर (ताकुला) प्रवास बहुत संक्षिप्त रहा। अगले दिन वे कुमाऊँ के अन्तवर्ती क्षेत्र की यात्रा के लिये भवाली की ओर रवाना हो गये। कुमाऊँ की प्राकृतिक सुषमा, विशेषकर कौसानी से नन्दादेवी व अन्य हिमशिखरों के दृश्य से अभिभूत होकर 5 जुलाई को वे साबरमती आश्रम वापस पहुँच गये। मगर उनके ताकुला से प्रस्थान करने से पूर्व लाला गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया ने उनसे सावित्री मंडप के नीचे एक खुले हुए स्थान पर एक इमारत का शिलान्यास करवा लिया।
निर्माण पूरा हो जाने के बाद इस भवन का नाम ‘गांधी मन्दिर’ रखा गया।
(जारी रहेगा)
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।