योगेश भट्ट
आजकल लिखना कम किया हुआ है, क्या बात ? सबठीक तो है न ? इन दिनोंअधिकांश मित्रों का यह सवाल होता है । यूं ही कुछभी कहकर मित्रों को टालना तो आसान है, मगर खुद को बहुत नहीं बहलाया जा सकता ।आखिर कुछ तो है कि जिन्हें लिखना चाहिए वो लिख नहीं रहे हैं, जिन्हें बोलना चाहिए वो बोल नहीं रहे हैं और जिन्हें लड़ना चाहिए वो लड़ नहीं रहे हैं ।जहां तक लिखने का सवाल है तो सच यह है कि जब लिखने के बाद भी गलत केखिलाफ बोलना, आवाज उठना और लड़ना ही बंद होजाए तो फिर लिखने का कोई कारण भी नहीं रह जाता ।
यकीनन हालात सही हैं नहीं, ऐसा लगता है कि निष्पक्ष जैसा कहीं कुछ है ही नहीं ।उत्तराखंड का तो अंदाजा भीनहीं लगाया जा सकता कि हालात कितने बदतर हो चुकेहैं । कई बार तो लिखना भी बेईमानी लगने लगता है । सरकार, पक्ष, विपक्ष,मीडिया, नेता, अफसर,डाक्टर, प्रोफेसर, मास्टर,इंजीनियर, ठेकेदार,कारोबारी, कर्मचारी,आंदोलनकारी, स्वयंसेवक,समाजसेवक, एनजीओ,कार्पोरेट, हर कोई कठघरे मेंहै । पहले प्रदेश की पशुपालन मंत्री और फिर मुख्यमंत्री ने भी यह कहकर कि “गाय एकमात्र ऐसा पशु है जो आक्सीजन लेता है औरआक्सीजन ही छोड़ता है”,गाय को ही नहीं पशुओं कोभी कठघरे में कर दिया है ।अब आप ही बताइये जबसिस्टम में ‘नख’ से लेकर ‘शिख’ तक हर कोई कटघरे में हों तो क्या क्या लिखा जाए और किसके लिए लिखा जाए ?
बात निकली है तो चलो यहीं से शुरू करते हैं । वैसे भी गाय को लेकर किये गए मंत्री रेखा आर्या और मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह के दावे के बाद, राज्य के बारे में लिखने के लिए तो कुछ शेष रह भी नहीं जाता । सच कहूंतो मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के इस कथन या कथित ज्ञान पर मुझे यकीन ही नहीं हुआ । मुझे लगा कि निश्चित तौर यह उनके सियासी विरोधियों की उन्हें बदनाम करने की ठीक वैसी ही कोई चाल है, जिसमें कुछ समय पहले उन्हें शराब पीते हुए दिखाया गया । जबकि सच्चाई यह थी कि वायरल होने वाला फोटो त्रिवेंद्र सिंह का था ही नहीं । इसमें कोई दोराय नहीं कि त्रिवेंद्र सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद सालों से चल रही कई दुकानें बंद हुईं । हालांकि इसी के साथ एक सच यह भी है कुछ नयी दुकानें खुली भी, जिनके कारनामों के चलते मुख्यमंत्री पर सवाल भी उठ रहे हैं । बंद हो चुकी पुरानी दुकानों और नयी खुली दुकानों के कारण उनके राजनैतिक विरोधियों के साथ ही व्यक्तिगत विरोधी भी बढ़े हैं । आए दिन उन पर सियासी और व्यक्तिगत हमले अब आम हो चुके हैं ।
खैर छोड़िये यह ,ढाई साल के कार्यकाल में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्रसिंह रावत और उनसे जुड़े तमाम वीडियो वायरल हो चुके हैं । कुछ को स्टिंग आपरेशन का हिस्सा बताया जाता है तो कुछ उनके बात व्यवहार जुड़े हैं। हाल यह है कि एक विवाद छूटता नहीं कि दूसरा पीछे लग जाता है ।अभी तक जो वीडियो वायरल हुए, हो सकता है उनमें कुछ फर्जी रहे हों, कुछ में सच और झूठ का घालमेल रहा, पर हालिया वीडियो पूरी तरह सही जान पड़ता है । मुख्यमंत्री के सलाहकारों और समन्वयकों ने भी इसे फर्जी या झूठ करार नहीं दिया है । कोई इसे गंभीर विषय न माने मगर सवाल सिर्फ मुख्यमंत्री के गाय को लेकर सामान्य ज्ञान का ही नहीं, बल्कि राज्य की व्यवस्था और उसके भविष्य का है ।
कहने वाले कह सकते हैं कि मुख्यमंत्री के इस बयान का राज्य की व्यवस्था से क्या सरोकार है ? कहो कुछ भीसरोकार तो है, क्योंकि राज्य एक ऐसी व्यवस्था जिसे दिशाऔर गति सिर्फ राजनैतिक नेतृत्व से ही मिलती है ।मुख्यमंत्री के बयान के बाद किस तरह उत्तराखंड का मजाक बनने लगा है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अस्पतालों और मेडिकल कालेजों को आईसीयू में गाय पालने की सलाह दी जा रही है । ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री के इस बायान से कोई फर्क नहीं पड़ता । जब एक आम युवक की एक गलत टिप्पणी से मुख्यमंत्री को फर्क पड़ सकता है, तो मुख्यमंत्री के गलत बयान से भी राज्य को भी फर्क पड़ता है । बता दें कि हाल ही में उत्तराखंड के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करने पर एक विधायक के खिलाफ कार्यवाही न होने से आक्रोशित एक युवक ने फेसबुक पर मुख्यमंत्री के लिए अशोभनीय कमेंट पोस्ट किया था। इस पर युवक को जेल की हवा खानी पड़ी ।
बहरहाल मुद्दे पर लौटते हैं,बात राज्य के हालात पर लिखने की हो रही है । जहां तक लिखने का सवाल है तोबहुत कुछ है जिन पर लगातार लिखा जाना चाहिए,पहाड़ के तमाम सुलगते सवालों से लेकर राज्य के बुनियादी मुद्दों तक लंबी फेहरिस्त है । लुटता और उजड़ता पहाड़, टूटती उम्मीदें, जर्जर होती स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था, राज्य की मूल अवधारणा से भटकती सरकार, योजनाओंमें भ्रष्टाचार, बिगड़ती कार्य संस्कृति, सिस्टम की संवेदनहीनता, राजनैतिक और सामाजिक मूल्यों में गिरावट, कमजोर होती विधायिका और कार्यपालिका, विपक्ष का नकारापन, उच्च न्यायालय से बढ़ती उम्मीदें, नशे का फैलता जाल, विकास के नामपर संसाधनों की लूट औरराज्य में बढ़ती माफिया की दस्तक आदि तमाम विषय हैंजिन पर खूब लिखे जाने की जरूरत है । इन मुद्दों पर लिखा भी गया, मगर मौजूदा हालात और व्यवस्था में लिखा जाना और नहीं लिखा सब एक बराबर । क्योंकि इस राज्य में न तो लिखे जाने कीकिसी को कोई परवाह है और न ही नहीं लिखे जाने की फिक्र ।
अब इससे ज्यादा क्या लिखें ? पूरा राज्य बिक चुका है,भूभक्षी बनी सरकारों ने इस प्रदेश को लील लिया है ।सरकार शराब और भांग में इस राज्य का भविष्य और खुशहाली तलाश रही है । विकास और निवेश के नाम पर राज्य की खुल्ली बोली लगी है । एक ओर कृषि भूमिपर भांग बोने की योजना है तो दूसरी ओर पहाड़ी इलाकों में शराब की फैक्ट्रियां खुल रही है । देहरादून से लेकरदिल्ली, मुबई और विदेशों तक में निवेशक ढूंढे जा रहेहैं, जो राज्य में जमीन खरीदकर भांग की फसल तैयार कर सकें । सरकार ने पहाड़ से लेकर मैदान तक इसकेलिए भू कानून में बदलाव कर राज्य में जमीन की बेहिसाब खरीद फरोख्त का रास्ता साफ कर दिया है । राज्य के लोग अपने ही राज्य में हाशिए पर पहुंच चुके हैं । इस पूरे क्रम में राज्य की जनता के प्रतिनिधि मंत्री, विधायकों तक की कोई हैसियत नहीं रह गयी है । अब कैसे चेताएं कि राज्य केभू कानून के साथ इस तरह का खिलवाड़ सीधे राज्य की आत्मा पर चोट है । किसी भी हिमालयी राज्य का भू कानून इस तरह जमीन की अनियंत्रित खरीद फरोख्त की इजाजत नहीं देता । अब और कैसे कहें कि बचाओ इस राज्य को, आवाज उठाओ इस कि इस राज्य के प्रति संवेदनशील नजरिया रखने और विकास का अलग माडल तैयार करने की आवश्यकता है ।
लिखेंगे तो सरकार और सिस्टम पर सवाल उतना ही गहराता जाएगा । सरकार की दक्षता और क्षमता पर सवाल उठेगा, आखिर ढाई साल में हुआ ही क्या है ? मुख्यमंत्री पहली घोषणा राज्य के दो हिस्सों गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ने वाले अपनी कंडी मार्ग का निर्माण तक तो पूरा नहीं करा पाए । एक जैसी प्रवृति और कार्यों वाले विभागों का एकीकरण भी असंभव नजर आता है । लोकायुक्त की तो खैर बात ही क्यों करनी हुई । सवाल उस पलायन आयोग पर भी उठेगा ,जिसकी रिपोर्टों का हवाला देकर सरकार नित नए खेल कर रही है । तब इस विरोधाभास की बात भी होगी कि एक ओर बातें ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की हो रही है, और फैसले गांवों को शहरों की सीमा में मिलाने और कृषि भूमि खत्म करने के हो रहे हैं । बात यहीं खत्म नहीं होगी, फिर बात शो पीस बने हुए राज्य के स्थानांतरण एक्ट की भी होगी । इस एक्ट पर अमल न होने के कारणों की पड़ताल भी होगी । राज्य के शिक्षा मंत्री का क्यों यह बयान आता है कि नौकरशाह उनकी नहीं सुनते, वह जनता से माफी मांगते हैं, इसकी भी चर्चा होगी ।
लिखा तो यह भी जाएगा कियह राज्य की सरकार उसका सिस्टम और उसके अफसर सिर्फ प्राइवेट अस्पतालों,मेडिकल कालेजों और प्राइवेट यूनिवर्सिटियों की चाकरी के लिए ही रह गये हैं। सरकारी स्कूल और संस्थान के हाल सुधारने के बजाय उन्हें या तो बंद किया जा रहेया बंदी की कगार पर धकेला जा रहा है । सरकारी अस्पताल और मेडिकल कालेजों इस हद तक बर्बाद किया जा रहा है कि उन्हें निजी हाथों में सौंपने का फैसला तार्किक लगे । यह भी लिखा जाएगा कि ढाई साल हो गया स्वास्थ्य जैसा संवेदनशील महकमा ढाई साल से बिना स्वास्थ्य मंत्री के चल रहा है । स्वास्थ्य महकमा खुद मुख्यमंत्री के पास है और स्वास्थ्य सेवाओं के हालत दिनोंदिन और खराब होते जा रहे हैं ।
लिखा जाएगा तो जोशीमठ के अस्पताल में सांप के काटेएक बच्चे को अस्पताल में उपचार न मिलने से मौत होने, दूसरे दिन एक युवक के पेट दर्द की शिकायत पर अस्पताल पहुंचने के बाद भीदम तोड़ने, प्रसव के लिएमहिलाओं को बांस के डंडो पर बांधकर लाना, सड़क किनारे प्रसव को मजबूर होना, जच्चा बच्चा का अस्पताल के फर्श पर ही दम तोड़ देने और पीपीपी मोड में दिए जाने वाले अस्पतालों में अंधेरगर्दी की खबरों भी नहीं छिपेंगी । तब सवाल यह भी उठेगा कि राज्य के स्वास्थ्यसिस्टम को किसकी चौखटपर गिरवी रखती जा रही हैसरकार । इस खेल के पीछे किन किन नेताओं औरअफसरों के हित सध रहे हैं, इसका भी खुलासा होगा ।
लिखने लगें तो सरकार की आबकारी नीति, औद्योगिक नीति और पर्यटन नीति पर सवाल उठेंगे । तथ्यों पर बात होगी तो लिखा ही जाएगा कि नीतियां राज्य का नहीं बल्कि चंद अफसरों, ठेकेदारों या नेताओं के हितों का सरंक्षण कर रही हैं । बात अफसरों की आएगी तो लिखा उन अफसरों पर भी जाएगा जो राज्य के भूगोल तक से तो सही से वाकिफ नहीं हैं और सरकार को अपनी अंगुलियों पर नचा रहे हैं । फिर बात उनकी भी उठेगी जो गैंगबनाकर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हैं और पूरे सिस्टम में धीमा जहर घोल रहे हैं । ब्यूरोक्रेसी नाम की संस्था राज्य में कैसे खत्म हुई और कौन हैं इसके दोषी ? इस पर भी लंबा लिखा जाएगा । लिखा जाएगा तोफिर उन सलाहकारों पर भी सवाल उठेंगे जो सरकार कीआड़ में सिर्फ अपना धंधाबढ़ा रहे हैं । फिर तो उन्हें भी नहीं बख्शा जाएगा जो सरकार की आंख, नाक,कान बनने के बजाय ‘दीवार’ बने हैं । लिखने के लिए बहुत कुछ है । एक बार शुरू हो जाए तो यह एक अंतहीन सिलसिला होगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या लिखे से सरकार सबक लेगी ? क्या लिखे से आम जनता चेतगी ?
लगता तो नहीं, क्योंकि सरकार सिर्फ कहती है, दावे करती है मगर हकीकत में करती कुछ नहीं । करेगी भी कैसे जब सरकार और उसके तंत्र में कोई तालमेल ही नहीं है । सरकार बहादुर कहते हैं कि निकम्मे कामचोरों को जबरन सेवानिवृत्ति दे दी जाएगी और सरकार का सिस्टम कहता है कि निकम्मों को पहाड़ पर पोस्टिंग दी जाएगी । और को छोड़िये “परउपदेश कुशल बहुतेरे”, दो दिन पहले खुद ही मुख्यमंत्री सचिवालय में लोक सेवा मेंनैतिकता विषय पर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह कहते हैं कि लोकसेवक उत्तराखंड के आवरण हैं । हम सभी से राज्य कीपहचान होती है । शासन वसरकार में शामिल लोगों के आचरण से सरकार की छवि बनती है अच्छी छवि से जनता के बीच सकारात्मक संदेश जाता है । अच्छी शिक्षा या उच्च पद पाने पर अगर हमारा व्यवहार सही नहीं है तो उच्च शिक्षा या पद का कोई औचित्य नहीं है ।मुख्यमंत्री यही नहीं रुकते वह कहते हैं कि जितना ऊंचा पद उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी ।
है न गजब का विरोधाभास, किसी सिस्टम में जब इतना विरोधाभास हो तो उसमें उम्मीद भी कैसे की जाए कि लिखे का कोई असर भी होगा । हकीकत यह है कि कोई लिखेगा भी तो उसे या तो राजनैतिक चश्मे से देखा जाएगा या लिखने वाले को व्यवस्था विरोधी करार दिया जाएगा । रहा सवाल जनता का, तो जिस आम जनता पर इस सबका फर्क पड़ना चाहिए उस पर मानो कोई फर्क ही नहीं । पिथौरागढ़ में छात्र छात्राएं किताब शिक्षक आंदोलन चलाते हैं, समस्या पूरे राज्य की है मगर बात वहीं से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है । आपातकालीन सेवा 108 के सात सौ कर्मचारियों के परिवार भुखमरी के कगार पर हैं, उनकी यह समस्या राज्य की समस्या नहीं बनती जबकि बेरोजगारी का आंकड़ा दस लाख होने जा रहा है ।
राज्य की जमीनें लुट रही हैं मगर यह राज्य की समस्या नहीं है, राज्य के लोग खुद ही जमीनों के सौदागर बने हुए हैं । राज्य की जनता का चरित्र यह है कि शराब कारखाने के लिए पहले जनता अपनी जमीन देती है, उसके बाद तीन साल तक चुप्पी साध लेती है । जैसे ही शराब की बोतलें भरनी शुरू होती हैं तो विरोध शुरू हो जाता है, आश्चर्य तो यह है कि विरोध हवा लेने लगता है तो उसी क्षेत्र की जनता शराब प्लांट के समर्थन में उतर आती है । लिखा तो यह जाता है कि सरकार जन सहभागिता से फैसले नहीं लेती, मगर जनता के हाल यह हैं कि नैनीताल से हाइकोर्ट शिफ्ट करने के मुद्दे पर एक करोड़ की आबादी वाले राज्य में सिर्फ साढ़े पांच सौ लोगों की ही राय आती है । स्थायी राजधानी की तो खैर बात ही छोड़िये । अब बताइये ऐसी जनता के लिए क्या लिखा जाए?
किस लिए लिखा जाए ? क्या सिर्फ फेसबुक पर चंद लाइक और शेयर के लिए या फिर चंद विघ्नसंतोषी पत्र पत्रिकाओं के पन्ने रंगने के लिए । लिखे की अहमियत तो तब है सरकार उस पर गौर करें, लिखे हुए के मर्म को समझे, जनता जगारुक हो तथ्य और सत्य को जाने और गलत के खिलाफ आवाज उठाए । जनतंत्र में लिखा भी इसीलिए जाता है, मगर यहां तो मानो कुएं में ही भांग पड़ी है । सरकार ‘बहरी’, विपक्ष ‘गूंगा’ और जनता ‘अंधी’ हो चुकी है । बस अंत में इतना ही कि राज्य के हालात पर दुष्यंत की पंक्तियां मौजूं हैं कि “हर साख पर उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ता क्या होगा”.. ।