रूपेश कुमार सिंह
उत्तराखण्ड पुलिस राज्य में माओवाद का हौव्वा बनाये रखना चाहती है। हर प्रगतिशील, सामाजिक कार्यकर्ता, वामपंथी सोच का व्यक्ति उसे माओवादी नजर आता है। सिडकुल में श्रमिक आन्दोलन के अगुवा हों, तो वो माओवादी हैं, किसानों की आवाज बुलंद करने वाले किसान नेता, माओवादी हैं, सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने वाले माओवादी हैं। यहां तक कि सरकार से सवाल करने, लिखने-पढ़ने वाले बुद्धिजीवी अर्बन नक्सली हैं, रंगकर्मी देशद्रोही हैं। हर वो शख्स जो मौजूदा सिस्टम की कमियों को उजागर करे और उसके खिलाफ मोर्चा बुलंद करे, पुलिस और सरकार के अनुसार वह व्यवस्था के लिए नासूर है।
उत्तराखण्ड में माओवादी बताकर जेल में डालने का सिलसिला 2004 से जो शुरू हुआ, वह आज भी जारी है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उत्तराखण्ड में अब तक किसी भी मामले में किसी भी कथित माओवादी को न्यायालय से कोई सजा नहीं हुई। ज्यादातर मामलों में उन्हें दोषमुक्त साबित किया गया है। पुलिस की चार्जशीट पर कई बार कोर्ट से फटकार लगायी गयी है। ऐसे में उत्तराखण्ड पुलिस की कार्यप्रणाली और सरकार की मंशा पर सवालिया निशान खड़े होते हैं। सवाल उठता है कि ‘‘क्या वास्तव में राज्य में माओवादी दस्तक है या किसी साजिश के तहत पुलिस ने राजनीतिक प्रोपेगंडा बनाकर उत्तराखण्ड की शान्त वादियों में जहर घोलने का काम किया है ?’’
30 अप्रैल, 2019 को दो और लोगों पर माओवादी गतिविधियों में संलग्न रहने के आरोप गलत साबित हुए हैं। रानीखेत के न्यायिक मजिस्ट्रेट धर्मेन्द्र शाह की अदालत ने देवेन्द्र चम्याल व भगवती भोज को दोषमुक्त पाया है। हालांकि पुलिस की ओर से आरोप साबित करने के लिए कोर्ट में कुल 17 गवाह पेश किये गये, लेकिन पुलिस की कहानी झूठ का पुलिंदा ही साबित हुई। पुलिस की ओर से चार्जशीट में कहा गया है कि 23 अप्रैल, 2017 को रानीखेत के बग्वालीपोखर क्षेत्र में कुछ अज्ञात लोगों ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के समर्थन में वॉल पेंटिंग की और पोस्टर लगाये। गिरफ्तारी के बाद देवेन्द्र और भगवती ने अपना जुर्म कबूल किया और इस घटना में खीम सिंह बोरा व भाष्कर पाण्डेय को अपने साथ शामिल बताया।
अदालत की जिरह में पुलिस का आरोप है कि उक्त लोगों ने लाल स्याही से ‘शराब नहीं, पानी व रोजगार दो’, ‘राज्य में पूर्ण रूप से शराब बंदी लागू करो’, अन्यथा जनता शराब के ठेकां को आग लगा दो‘ दीवार पर लिखा। नीचे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) लिखा। दूसरे हस्तलिखित पोस्टर पर शराब का कारोबार बढ़ाने के लिए राज्य सरकार की निन्दा की गई। पंचेश्वर बांध व बेहताशा खनन को बन्द करने की मांग की गई। जल-जंगल-जमीन की लूट बन्द करने के नारे लिखे गये। ऐसे ही तमाम आरोप पुलिस ने देवेन्द्र और भगवती पर लगाये। उत्तराखण्ड में इस किस्म के मुद्दे हमेशा से आन्दोलन के हिस्सा रहे हैं। जो आरोप पुलिस ने कथित माओवादियों पर लगाये हैं, वह बात तो उत्तराखण्ड का आम आदमी हमेशा से करता रहा है। इसमें गलत भी क्या है ?
पुलिस ने माओवाद के नाम पर सामाजिक कार्यकर्ताओं व वामपंथी विचारधारा के लोगों को 2004 से निशाना बनाना शुरू किया था। उस वर्ष नैनीताल जनपद के चोरगलिया क्षेत्र में हंसपुर खत्ता से आठ गिरफ्तारियां हुईं, जिनमें हयात राम, रमेश राम, संतोष राम, ललित, प्रकाश राम, अनिल राम, गोपाल भट्ट व ईश्वर फुलारा शामिल थे। पकड़े गये लोगों में पांच लोग गरीब दलित मजदूर थे। इस मामले में दो अन्य शिवराज बगडवाल व राजेन्द्र फुलारा पर अलग से मुकदमा चला। आरोप था कि उक्त लोग ग्रामीणों को लेकर हंसपुर खत्ता में माओवादी कैम्प चला रहे थे। उस साल पुलिस ने माओवाद के नाम पर जमकर आतंक मचाया। पूरे राज्य में आन्दोलनकारियों को चुन-चुन कर उत्पीड़ित किया। पुलिस ने मीडिया के माध्यम से माओवाद का हौव्वा फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीडिया ने भी बिना पड़ताल किये पुलिस की कहानी को प्रमुखता से प्रकाशित किया। ‘लाल आतंक की जद में उत्तराखण्ड’ शीर्षक से पहले पेज पर महीनों तक पुलिस की मनगढ़ंत सूचनाएं प्रकाशित हुईं। 2012 में इस मामले में ऐतिहासिक फैसला आया। न्यायालय ने पुलिस की दलील को नकारते हुए सभी आरोपियों को दोषमुक्त किया। लेकिन कथित माओवादियों को लगभग ढाई साल जेल में रहना पड़ा।
2005 में उधम सिंह नगर के दिनेशपुर से तीन गिरफ्तारियां पुलिस ने मीडिया के सामने रखीं। कुल पांच लोगों को नामजद किया गया। जिनमें अनिल चौड़ाकोटी, जीवन चन्द्र, नीलकान्त, गोपाल भट्ट व राजेन्द्र फुलारा थे। इन पर आरोप था कि उक्त लोग अपने साथियों के साथ दिनेशपुर के एक सूदखोर पर हंमला करने जा रहे थे। जबकि अनिल, जीवन और नीलकान्त को गदरपुर बाजार से पकड़ा था। लेकिन गिरफ्तारी दिनेशपुर में दिखायी गयी। अभियुक्तों पर रासुका के तहत कार्यवाही हुई। लगभग तीन साल तक अभियुक्त जेल में रहे। इस मामले में भी 2012 में अदालत का फैसला आया। कोर्ट ने एक बार फिर पुलिस की चार्जशीट को नाकाफी माना और सभी आरोपियों को दोषमुक्त किया।
इसके अलावा 2004 में चम्पावत व 2005 में अल्मोड़ा में चार-चार लोगों को माओवादी समर्थक बताकर पुलिस ने कार्यवाही की। उन्हें जेल भेज दिया। लेकिन वे सभी कोर्ट से बरी हुए। 2006 में एक मामला हाईकोर्ट में चला। अल्मोड़ा के दो लोग नामजद थे। हाईकोर्ट ने आर्म्स एक्ट में तो दोषी पाया, लेकिन देशद्रोह के आरोप से बरी कर दिया। 2008 में प्रशान्त राही व चन्द्रकला और दो अन्य के खिलाफ कार्यवाही की गयी। मामला न्यायालय में विचाराधीन है। 2017 में द्वाराहाट में देवेन्द्र चम्याल व भगवती भोज के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ। 30 अप्रैल, 2019 को सभी आरोपी दोषमुक्त साबित हुए। देवेन्द्र व भगवती पर नैनीताल व अल्मोड़ा में एक-एक अन्य मुकदमा अभी भी विचाराधीन है। 2018 में माओवादी प्रचार व पोस्टर लगाने के आरोप में पुलिस ने रमेश भट्ट व मनोज सिंह को पकड़ा। दोनों अभी जेल में हैं। मामला कोर्ट में विचाराधीन है।
दरअसल जब-जब समाज में सरकार व प्रशासन के खिलाफ असंतोष गहराता है, तब-तब उत्तराखण्ड में पुलिस की ओर से प्रगतिशील व वामपंथी विचार वाले लोगों पर शिकंजा कसने लगता है। दमन तेज हो जाता है। माओवाद का हौव्वा फैलाकर पुलिस लोगों में आतंक कायम रखना चाहती है। सिडकुल में पिछले कई सालों से श्रमिक हलाकान हैं। तमाम जगह मजदूरों के आन्दोलन चल रहे हैं। आन्दोलन को तोड़ने के लिए पुलिस श्रमिकों के नेताओं को भी माओवादी बता रही है। कई श्रमिक संगठनों के लोगों को पुलिस ने माओवादी करार देने की भरसक कोशिश की है, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। कैलाश भट्ट जैसे कई नौजवानों को मजदूरों को भड़काने व सिडकुल में असंतोष पैदा करने के आरोप में पुलिस ने जेल भेजा है।
सवाल उठता है कि आखिर वामपंथ से प्रशासन को खतरा क्या है ? जब देश में हर विचार के प्रचार-प्रसार की आजादी है तो वामपंथ के प्रचार-प्रसार पर प्रतिबंध क्यों ? माओवाद की आड़ में कब तक मूल मुद्दों से जनता को बेखबर रखा जायेगा ? केन्द्र से बड़ा फंड हथियाने के लिए माओवाद के जिन्न को जिन्दा रखना जरूरी तो नहीं हैं ? सवाल अनेक हैं, लेकिन जवाब देगा कौन ?