मई का महीना आते ही उत्तराखण्ड के जंगलों में आग का आतंक शुरू हो जाता है। आमतौर पर जंगलों की आग हर तीसरे साल अधिक उग्र होती है, हालांकि इसमें गर्मी व बारिश का प्रभाव भी रहता है। उल्लेखनीय है कि इस वर्ष मानसून के बाद बारिश बहुत कम हुई है। जैसे कि देश के अनेक हिस्सों में सूखे का प्रभाव नजर आ रहा है, उत्तराखण्ड इससे अछूता नहीं है। पर 66 प्रतिशत वन क्षेत्र होने के कारण वनों में आग का फैलना सामान्य जन को भी चिंतित कर देता है। इस वर्ष तो शीतकाल से ही लगातार वनाग्नि की दुर्घटना बढ़ रही हैं। अप्रैल आते वनाग्नि प्रचण्ड रूप से अधिकांश जंगलों को अपनी चपेट में ले चुकी है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के अनुसार मार्च से इस वर्ष उत्तराखण्ड के वनों में 1239 वनाग्नि की दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। इन इलाकां में कॉर्बेट नेशनल पार्क, राजाजी नेशनल पार्क व विनसर अभ्यारण्य के इलाके भी हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग क्षेत्रफल का विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। यह विवरण वन विभाग अपने फील्ड के आंकड़ों के आधार पर बतायेगा। उनकी सत्यता संदिग्ध रहती है क्योंकि उत्तरदायित्व से बचने के लिए वन विभाग के कार्मिक संभलकर ही सूचना देते हैं। जन सामान्य का अनुमान है जंगल बुरी तरह जल रहे हैं। किसी दिन इतना अधिक धुँआ होता है कि साँस लेने में तक कठिनाई होने लगती है। चिकित्सक इस तरह के वातावरण को बच्चों, बुजुर्गों व अस्थमा के रोगियों के लिए घातक बता रहे हैं। नैनीताल जैसे शहर में अप्रेल का अंतिम सप्ताह धुँए से भरा रहा। प्राप्त समाचारों के अनुसार उत्तराखण्ड में अब तक 6 लोग इस आग से मर चुके हैं व 12 लोग बुरी तरह झुलस गये हैं।
हर साल अत्यधिक नुकसान पहुँचाने वाली इस आग पर नियंत्रण का दायित्व वन विभाग का बनता है। छोटे से उत्तराखण्ड में वन विभाग के अफसरों की लंबी फौज है। यहाँ पर प्रमुख वन संरक्षक व मुख्य वन संरक्षक स्तर के शीर्षस्थ पद पर करीब 30 अफसर तैनात हैं। जबकि अविभाजित उ.प्र. में कभी केवल एक मुख्य वन संरक्षक ही पूरा प्रदेश को संभाल लेता था। पर निचले स्तर पर कर्मचारियों की स्थिति बहुत बुरी है। रेंज, सेक्सन और बीट स्तर पर आज भी उतने ही कर्मचारी हैं, जितने करीब 30 साल पहले थे। काम की जिम्मेदारी बढ़ने के बाद भी रेंज, सेक्सन और बीटों का पुनर्गठन नहीं होने से निचले स्तर के कार्मिकों का अपने कार्यक्षेत्र पर नियंत्रण रखना संभव ही नहीं है। यही नहीं विभाग में दैनिक मजदूरां की संख्या इतनी अधिक है कि उनमें से कईयों का तो रिटायर होने तक भी स्थायी होने का नंबर नहीं आ पाता है। कई 40-50 साल की उम्र में स्थायी होकर वन आरक्षी बन पाते हैं। विभाग में 1986 के बाद से वन रेंजरों की नियुक्ति नहीं हुई थी, अब जाकर यह भर्ती 2014 से शुरू हुई है। इसी तरह सहायक वन संरक्षक की भर्ती 1984 के बाद से नहीं हुई है। संभवतः विभाग में भर्ती को लेकर कोई योजना है ही नहीं।
किसी समय वन विभाग राजस्व का महत्वपूर्ण स्रोत हुआ करता था। दूर दराज जंगलों की रखवाली के लिए वहाँ सभी पदों के कार्मिकों के लिए चौकियाँ बनी थी। आज ये चौकियाँ वीरान हैं। मुश्किल से कोई कर्मचारी इनमें रहते हैं। वनों में 1000 मीटर से अधिक ऊँचाई के क्षेत्रों में पातन पर प्रतिबंध लगने से वनों में काम एकदम कम हो गया। रही सही कसर 1996 के गोंडावर्मन बनाम भारत सरकार जनहित याचिका के तहत गठित विशेषज्ञ समिति ने वनों को दस वर्षीय पातन चक्र ने कर दी। इससे पर्वतीय वनों में वृक्षों के पातन का काम बहुत ही कम हो गया। पहाड़ों में कई इलाकों में बाहर से आकर बसने वाले लोगों को इमारती लकड़ी की आपूर्ति तस्करी से पूरी होने लगी। आज पूरे उत्तराखण्ड मे शायद ही कोई पर्वतीय इलाका होगा जहाँ पर तस्करी की इमारती लकड़ी आसानी से उपलब्ध न हो। कुल मिलाकर जो भी सिल्वीकल्चर था, उसे पूरी तरह बंद कर दिया गया। इससे वनों में अवांछित खरपतवारों की संख्या में अप्रत्यासित वृद्धि हुई औेर वनों में जैव पदार्थ की कमी होने से निश्चित रूप से वर्षा के पानी को रोकने व वन भूमि की नमी में भारी कमी हुई। इस कारण सूखा मौसम आने पर वन एकदम दावाग्नि के लिए संवेदनशील होने लगे हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वनों में अग्नि प्रतिरोधक शक्ति के निरंतर ह्रास होने से अग्निदुर्घटनाएं अप्रत्यासित हो रही हैं।
वनाग्नि दो प्रकार की होती है। पहली जमीनी आग दूसरी छत्र आग। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि जमीनी आग का फैलाव जमीन से होकर जाता है जबकि छत्र आग पेड़ों के छत्र से होकर फैलती है। पहाड़ों के जंगलों में आमतौर पर जमीनी आग ही अधिक होती है। यह आग क्योंकि जमीन में फैलती है इसलिए बुझने के बाद प्रभाव कम नजर आता है और विशेषकर 2-4 बारिश के बाद तो कुछ भी पता नहीं चलता। पर वास्तव में यह आग पारिस्थिकी की दृष्टि से विनाशकारी होती है क्योंकि इससे वन भूमि के धरातल में मौजूद खाद जल कर नष्ट हो जाती है, जिस कारण वन भूमि का कटाव बढ़ जाता है। जल स्रोतों में कमी हो जाती है, वृक्षों की वृद्धि रुक जाती है, वन के शाक व झाड़ियाँ जल कर नष्ट हो जाती हैं। इन सबसे वन्य जीव व पक्षी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। कुल मिलाकर वन की पारिस्थिकी का ह्रास होता है जिससे स्थानीय आबादी की आर्थिकी प्रभावित होती है। व्यापक रूप से सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, कृषि व पर्यावरणीय क्षति होती है। इसलिए वनों की आग की घटनाओं को हल्के में लेना उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र के लिए उचित नहीं होगा।
वन विभाग में अग्नि नियंत्रण को लेकर कार्ययोजना में उपाय निर्धारित होते हैं जिसके अंर्तगत प्रत्येक प्रभाग में अग्नि नियंत्रण के उपाय किये जाते हैं। जिनके लिए प्रत्येक स्तर पर उत्तरदायित्व निर्धारित होता है। इस काम के लिए बजट आबंटन होता है, सीजनल कर्मचारियों की नियुक्ति होती है। व्यापक प्रचार कार्य होता है। ग्रामीणों के साथ बैठकें की जाती हैं। जंगल में आग न फैले इसके लिए जाड़ों में नियंत्रित फुकान प्रस्तावित होता है, जंगलों में फायर लाइन को स्थायी रूप से बनाया जाता है। इन तमात उपायों के बाद जैसे ही मौसम प्रतिकूल हो जाता है तो सब कुछ ध्वस्त होकर वनाग्नि की पुनरावृत्ति क्यों हो जाती है, इस प्रश्न का उत्तर देने से वन विभाग कैसे बच सकता है? जाहिर है कि या तो योजना गलत है या उसका सही तरह से पालन नहीं होता। पर सच यह है कि न हीं योजना सही होती है और जो बेकार योजना बनती है वह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। जन साधारण द्वारा वनों की आग के संबंध में एक बहुत गंभीर आरोप लगाया जाता है, वह है कि वनों में साल भर अवैध कटान होता है और गर्मियों में इनमें आग लगाकर वन विभाग स्वयं ही अवैध कटान के सबूत नष्ट कर देता है। यह आरोप गंभीर है, इसका जिक्र राज्यपाल महोदय ने भी एक बयान में किया है। इस पर नियंत्रण कैसे हो यह भी सोचना होगा।
वन विभाग एक ऐसा विभाग है जिसका गठन ब्रिटिश काल में वृक्षों के विदोहन के लिए किया गया था। आज वनों को जन कल्याण के स्रोत के रूप में देखा जाता है। लेकिन वनों के पुनर्गठन के लिए गंभीर प्रयास नहीं हुए हैं सिवाय इसके कि अफसरों की लंबी फौज खड़ी कर दी गई है। आज वन विभाग में विशेषज्ञता का पूर्णतः अभाव हो चुका है। वन विभाग में एक ही कर्मचारी या अधिकारी इंजीनियर भी होता है, वन जीव विशेषज्ञ भी, वन वर्धनिक भी, पुलिस भी, कानूनी जानकार भी, सामाजिक कार्यकर्ता भी, वन रोग विशेषज्ञ भी, योजनाकार आदि। किसी भी विभाग में विशेषज्ञता के अभाव में कोई भी योजना न बन सकती है न क्रियान्वित हो सकती है। भ्रष्टाचार के मामले में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि स्थानीय अखबारों में शायद ही कोई दिन होता है, जब वन विभाग की किसी कारगुजारी का जिक्र न हो। ऐसे माहौल में वनाग्नि जैसी आपदा से निबटने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। हाँ, जैसा कि देखा गया है कि व्यापक वनाग्नि हर 3 या 4 साल के बाद होती है, इसलिए पहले तो गर्मी खत्म होते ही बरसात आने पर वनाग्नि के दाग धुलने लगते हैं और अगले तीन चार-साल तक इस पर फिर कोई चर्चा नहीं होती। इसलिए जन विमर्श से यह भीषण समस्या गायब हो जाती है। वन विभाग इस सच्चाई को जानता है इसलिए बेफिक्र रहता है। न हीं हमारे वन विभाग की कार्ययोजनाओं में अपनी वन संपदा का हिसाब-किताब रखने का कोई प्रावधान या तरीका है जिससे यह पता चल सके कि वास्तव में कितनी तस्करी हो रही है, कितना वन्य जीवों को क्षति हुई, कितनी प्राकृतवासों का क्षरण हुआ, जल स्रोतों का ह्रास हुआ, गैर प्रकाष्ठीय वनोपज का नुकसान हुआ और कितना वृक्षों को नुकसान हुआ?
उत्तराखण्ड के जंगलों की तस्वीरें जैसे ही सोसल मीडिया के माध्यम से वायरल हुई तो देश के राष्ट्रीय मीडिया के लिए ‘बढ़िया स्टोरी’ साबित हुई। सभी न्यूज चैनल अपनी तरह से इस खबर को दिखा रहे हैं। एन.डी.आर.एफ. की 3 टीमें जिनमें 135 व्यक्ति हांगे, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा में लगाये जाने की खबरें आ रही हैं। वायुसेना के एम़.आई. 17 हेलीकॉप्टर लगाये जा रहे हैं। ़़कहा जा रहा है कि अब तक जो 3000 वन अग्नि शमन कर्मचारी काम पर लगाये गये थे उनकी संख्या 6000 कर दी गई है। ये लोग दिहाड़ी मजदूर होते हैं जो स्थानीय ग्रामीण होते हैं। इनका कोई प्रशिक्षण भी नहीं होता है। एन.डी.आर.एफ. भले ही कितनी ही कुशल क्यों न हो, वह वनाग्नि की प्रवृत्ति से परिचित नहीं हो सकती है। इसी तरह अग्नि शमन कर्मचारी भी वनों की आग से निबटने के लिए प्रशिक्षित नहीं होते हैं। इसलिए इस प्रकार के आपातकालीन प्रबंध मात्र दिखावा से अधिक सिद्ध नहीं हो पायेंगें।
दरअसल हमारे जंगलों विशेषकर चीड़ के जंगलों की परिस्थितियाँ ऐसी हो गयी हैं, जो कि आग के लिए अत्यन्त संवेदनशील हो चुकी हैं। वनाग्नि के लिए तीन कारकों का होना आवश्यक है। पहला- ज्वलनशील पदार्थ, दूसरा-गर्मी, तीसरा- खुश्की। जंगल में पत्तियां, टहनियों आदि के गिरने सूखने से जंगलों में ज्वलनशील पदार्थों की प्रचुरता रहती है। इसका अधिक होना जंगल के लिए अच्छा है क्योंकि यह सड़-गल कर जंगल की वनस्पतियों के लिए खाद बनती है। दूसरा कारक- गर्मी है जो कि मौसम पर निर्भर है। इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। पर तीसरा यानी खुश्की को हम नियंत्रित कर सकते हैं। इसके लिए वनों का प्रबंध इस प्रकार होना चाहिये कि वनों में जमीनी वनस्पतियों व घासों के उत्पादन के लिए परिस्थितियाँ तैयार करनी होंगी। ये एक दीर्घकालीन प्रयास होगा। जमीनी वनस्पतियाँ जितनी विविध व सघन होंगी, उतनी ही वन के धरातल पर नमी बढ़ेगी यानी खुश्की घटेगी। यह जंगल की आग संवेदनशीलता को काफी हद तक कम करेगी। इसलिए यांत्रिक नियंत्रण के बजाय जैविक नियंत्रण की आवश्यकता है।
खबरों के अनुसार प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व राज्यपाल ने तक इस आग पर चिंता प्रकट की है। वित्तीय मदद देने के समाचार आ रहे हैं। सही योजना के बनाने के अतिरिक्त सही योजना का क्रियान्वयन इसके लिए जरूरी है। इसके लिए वनों के सिल्वीकल्चर में व्यापक बदलाव लाना होगा। लेकिन वन विभाग में आज विशेषज्ञता का अभाव है। ऐसे में भविष्य में कोई सार्थक योजना बनने की संभावना नहीं है। जैसे देखा गया है कि भयानक आग 3-4 साल के अंतराल में लगती है। इस साल मानसून के आने पर आग पूरी तरह खत्म हो जायेगी। और यह चर्चा जनता के विमर्श से समाप्त हो जायेगी। अलबत्ता वन विभाग को इसके बहाने जो बजट की सौगात मिलेगी उसका दरुपयोग ही अधिक होगा, क्योंकि पिछले अनुभव हमें यही बताते हैं।
इस जंगल की आग के बारे में मीडिया व सोसल मीडिया में जिस तरह प्रतिक्रिया हो रही है उससे किसी हल तक पहुँचना मुश्किल है। क्योंकि वह केवल दहशत को बढ़ाने वाली है, वह शहरी दृष्टिकोण है। वनाग्नि को जब तक केवल आग, धुँआ, गर्मी को बढ़ाने वाला, प्रदूषण या अस्थामा को बढ़ाने वाली दुर्घटना समझने की सोच रहेगी इस पर उतनी गंभीरता से विचार नहीं होगा। इसलिए जब तक वनाग्नि से हुई सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, कृषि व पर्यावारणीय क्षति का निष्पक्ष रूप से आंकलन नहीं होगा तब तक वनाग्नि एक आयी-गयी बात हो कर ही रह जायेगी। राजनीतिक बयानबाजी भी होगी, एन.जी.ओ. को मसाला मिलेगा, और वन विभाग का बजट बढ़ जायेगा। इस क्रम को हम बार-बार देखते रहेंगे। क्योंकि वनाग्नि कोरपोरेटों को सीधे प्रभावित नहीं करती इसलिए इस संबध में निर्णय न लेना पालिसी पैरालिसिस की श्रेणी में भी नहीं आता। इसलिए अभी किये जा रहे तथाकथित प्रयास व बयानबाजी केवल मातमपुरसी होकर ही रह जायेगे। यदि वनों की आग को वनों का कुप्रबंध वनों के उपजे अनियंत्रित कटान, वनों की तस्करी, वनों का निरंतर अवनतीकरण, वनों में बिगड़ते पारिस्थिकीय संतुलन से जोड़कर नहीं देखा जाता, वनों की आग से निजात नहीं पायी जा सकेगी।
विनोद पांडे