(इतिहासकार युवाल नोआ हरारी चेताते हैं कि फ़ासीवादियों को पहचानना आज इतना भी आसान नहीं है। वे हमेशा राक्षसी छवि के साथ सामने नहीं आते। हरारी बताते हैं कि 21वीं सदी के फ़ासीवादी वैसे नहीं हैं, जैसे 1930 के दशक में दिखाई देते थे। आज फ़ासीवादियों का पूरा फोकस डेटा कंट्रोल पर है और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस जैसी आगत टेक्नोलॉजी राजनीति का चरित्र बदल सकती है। लोकतंत्र पर आसन्न खतरों से आगाह कराती हरारी की यह बेहद विचारोत्तेजक वार्ता तेल अवीव से उनकी आभासी उपस्थिति (होलोग्राम) के जरिए दर्शर्कों तक पहुंची।)
यह बड़ी मजेदार बात है, क्योंकि कहीं मैंने लिखा था कि इंसान डिजिटल हो जायेंगे। लेकिन मैंने सोचा नहीं था कि यह इतनी जल्दी हो जाएगा और मेरे साथ होगा। आज मैं एक डिजिटल अवतार में आपके सामने हूँ। और इसी तरह मेरे सामने आप लोग हैं। जो भी हो, आइये चर्चा शुरू करते हैं और एक सवाल से शुरू करते हैं। आप दर्शर्कों में इस वक्त कितने फ़ासीवादी बैठे हुए हैं ? ठीक है, इसका जवाब देना थोड़ा मुश्किल होगा, क्योंकि हम भूल चुके हैं कि फ़ासीवाद होता क्या है। लोग अब ‘फ़ासीवादी’ शब्द को एक तरह की सामान्य गाली की तरह लेते हैं और कभी-कभी वे राष्ट्रवाद को फ़ासीवाद समझने लगते हैं। इसलिए आइये, कुछ पल इस बात को समझने में खर्च करें कि वास्तव में फ़ासीवाद है क्या और किस तरह यह राष्ट्रवाद से भिन्न है।
राष्ट्रवाद की नर्म किस्म मनुष्य की सबसे परोपकारी संरचनाओं में एक है। राष्ट्र लाखों लाख अजनिबयों के समुदाय हैं, जो वास्तव में एक दूसरे को नहीं जानते। उदाहरण के लिए, मैं उन अस्सी लाख लोगों को नहीं जानता, जो मेरी तरह इजरायली नागरिक हैं। लेकिन इसे राष्ट्रवाद का ही कमाल कहिए कि हम सब एक-दूसरे की परवाह कर सकत हैं और प्रभावाशाली रूप से सहयोग करते हैं। यह बहुत अच्छी बात है। कुछ लोग, जैसे जॉन लेनन कल्पना करते थे कि राष्ट्रवाद न रहे तो दुनिया एक शांतिपूण जन्नत में बदल जाएगी। लेकिन ज्यादा संभावना यही है कि राष्ट्रवाद न रहे तो हम कबीलाई मार-काट मचाना शुरू कर देंगे। अगर आज आप दुनिया के सबसे समृद्ध व शान्त देशों, जैसे स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड और जापान आदि पर नज़र डालेंगे तो वहाँ आपको राष्ट्रवाद की बहुत गहरी भावना देखने को मिलेगी। इसके विपरीत जिन देशों में राष्ट्रवाद की भावना कमज़ोर है, जैसे कांगो, सोमालिया और अफगानिस्तान, वे हिंसा और ग़रीबी से घिरेे हुए हैं।
तो फ़ासीवाद क्या है और राष्ट्रवाद से यह किस प्रकार भिन्न है? राष्ट्रवाद मुझ से कहता है कि मेरा राष्ट्र अनोखा है और अपने राष्ट्र के प्रति मेरे असाधारण कर्तव्य हैं। इसके विपरीत फ़ासीवाद कहता है कि मेरा राष्ट्र सवश्रेष्ठ है और इसके प्रति मेरे विशिष्ट कतव्र्य हैं। मुझे अपने राष्ट्र के अलावा किसी अन्य की परवाह करने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह भी सही है कि आम तौर पर लोगों की कई पहचानें और उनमें विभिन्न समूहों के प्रति वफ़ादारी की भावना भी होती है। उदाहरण के लिए, मैं एक अच्छा देशभक्त हो सकता हूं, जो अपने देश के लिए वफ़ादार है और साथ ही मैं अपने परिवार, अपने आस-पड़ोस, अपने पेशे, समूची मानवता, सत्य और सुन्दरता के लिए भी वफ़ादार हो सकता हूं। बेशक जब मेरी अनेक पहचानें और वफ़ादारियां हों तो कभी-कभी इनके बीच विरोधाभास और जटिलताएं भी पैदा हो सकती हैं.। लेकिन यह भी सही है कि ज़िन्दगी अपने आप में आसान नहीं है। जीवन जटिल है. इसे साधना पड़ता है।
फ़ासीवाद तब पनपता है, जब लोग अपने जीवन को आसान बनाने के लिए इन जटिलताओं की उपेक्षा करने लगते हैं। फ़ासीवाद राष्ट्रीय पहचान के अलावा बाकी सभी पहचानों का निषेध करता है और इस बात पर जोर देता है कि मैं एकमात्र राष्ट्र के प्रति जवाबदेह हूं। अगर मेरा राष्ट्र चाहता है कि मैं अपने परिवार का बलिदान कर दूं तो मैं अपने परिवार का बलिदान कर दूंगा। अगर मेरा राष्ट्र मुझसे हजारों लोगों की हत्या करने की मांग करता है तो मैं हजारों लोगों की हत्या कर दूंगा और अगर मेरा राष्ट्र सत्य और सुन्दर का निषेध करने को कहता है तो मैं ऐसा ही करूंगा।
उदाहरण के लिए फ़ासीवादी कला का मूल्यांकन कैसे करते हैं ? फ़ासीवादी किस तरह तय करते हैं कि कोई फिल्म अच्छी है या खराब ? यह पता लगाना बहुत ही आसान है। उनके पास मात्र एक ही पैमाना होता है। अगर फिल्म राष्ट्र के हितों की सेवा करती हो तो वह अच्छी कही जाएगी; अगर फिल्म राष्ट्र के हितों की सेवा नहीं करती तो वह बूरी फिल्म है। बस इतना ही। इसी तरह फ़ासीवादी कैसे तय करता है कि बच्चों को स्कूल में क्या पढ़ाया जाये ? यह भी उतना ही आसान है। उनके पास सिर्फ एक ही पैमाना है। तुम बच्चों को सिर्फ वह पढ़ाओ जो राष्ट्र के हित में हो। यहां सत्य से कोई मतलब नहीं। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिकाएं और यहूदी नरसंहार इस तरह के सोच के भयावह परिणामों की याद दिलाते हैं।
लेकिन अमूमन जब हम फ़ासीवाद की बुराइयों की चर्चा करते हैं, तो हम यह बड़े अप्रभावी तरीके से करते हैं, क्योंकि हम फ़ासीवाद को एक खौफ़नाक राक्षस की तरह दिखाने का प्रयास कर रहे होते हैं, बिना यह समझाए कि इसकी कौन सी बात बेहद मोहक है। यह हॉलीवुड की उन फिल्मों की तरह है, जिनमें बुरे इंसानों (जैसे वोल्डामोर्ट, सौरोन या डर्थ वडर) को भद्दे कमीने और क्रूर आदमी के रूप में दिखाया जाता है। ये खुद अपने समर्थकों के प्रति भी बेहद क्रूर हैं। जब मैं इन फिल्मों को देखता हूं तो समझ नहीं पाता कि क्यों कोई वोल्डामोर्ट जैसे घृणित जानवर से आकर्षित होकर उसके पीछे चल सकता है ? वास्तविक जीवन में दुष्ट के साथ यह समस्या होती है कि ज़रूरी नहीं कि वह दिखने में भद्दा हो। वह बहुत आकर्षक भी हो सकता है। यह ऐसी बात है जिसे ईसाईयत बहुत अच्छी तरह जानती है। यही वजह है कि ईसाई कलाकृतियों में, हॉलीवुड के विपरीत, शैतान को अत्यंत आकर्षक व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया है। इसी वजह से शैतान के मोहपाश को रोक पाना इतना कठिन होता है और यही वजह है कि फ़ासीवाद के आकर्षण को रोक पाना भी बहुत कठिन होता है।
फ़ासीवाद के असर में लोग खुद को दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण और सुन्दर रचना- राष्ट्र से जुड़ा हुआ महसूस करने लगते हैं और तब लोग सोचते हैं, ‘‘ठीक है हमने पढ़ा है कि फ़ासीवाद भद्दा होता है। लेकिन मैं जब दर्पण में देखता हूं, तो सामने बड़ी सुन्दर वस्तु को देखता हूं। इसलिए मैं फ़ासीवादी नहीं हो सकता। ठीक है ?’’गलत। फ़ासीवाद के साथ यही मुश्किल है। जब आप फ़ासीवादी दर्पण में खुद को देखते हैं तो आप खुद को वास्तविकता से ज्यादा सुन्दर देखते हैं। 1930 में जब जर्मन लोगों ने फ़ासीवादी दर्पण में देखा तो उन्हें जर्मनी दुनिया की सबसे सुन्दर रचना दिखाई दी। रूस के लोग यदि आज फ़ासीवादी दर्पण में देखेंगे तो उन्हें रूस दुनिया में सबसे शानदार नज़र आएगा और अगर इजरायली फ़ासीवादी दर्पण में झाकेंगे तो उन्हें भी इजरायल दुनिया की सबसे सुन्दर सभ्यता नज़र आने लगेगी।
इस बात का यह कतई मतलब नहीं कि 1930 का दशक फिर से दोहराया जानइक्कीसवीं सदी में फासीवाद वाला है। फ़ासीवाद और तानाशाहियों की वापसी हो सकती है, लेकिन वे अब नए चोले में प्रकट होंगे। ऐसा चोला जो 21वीं सदी की नई तकनीकी वास्तविकताओं के लिए ज्यादा प्रासंगिक होगा। पुराने ज़माने में ज़मीन दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पूंजी थी। समूची राजनीति इसलिए ज़मीन पर नियंत्रण के संघर्ष पर केन्द्रित रहती थी। तानाशाही का मतलब था कि सारी जमीन पर किसी एक शासक या एक छोटे से कुनबे का कब्जा है। और आधुनिक युुग में, मशीनें जमीन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गईं। राजनीति मशीनों पर नियंत्रण का संघर्ष बन गई।
और तानाशाही का मतलब बहुत सारी मशीनों का स्वामित्व सरकार या एक छोटे से ताक़तवर तबके के हाथों में सिमट जाना। अब डेटा, सबसे महत्वपूर्ण पूँजी के तौर पर, मशीन और जमीन दोनों को विस्थापित कर रहे हैं। राजनीति का अर्थ डेटा के प्रवाह पर नियंत्रण हासिल करने का संघर्ष हो गया है और तानाशाही मतलब सरकार या एक छोटे से अभिजात तबके के हाथों में बहुत बड़े डेटा का संकेन्द्रण। उदार लोकतंत्र के सामने आज सबसे बड़ा खतरा यह है कि सूचना तकनीक में आई क्रान्ति तानाशाहियों को लोकतंत्र से ज्यादा दक्ष बना देगी।
20वीं सदी में लोकतंत्र और पूंजीवाद ने फ़ासीवाद और साम्यवाद को परास्त किया, क्योंकि डेटा प्रोसेसिंग और निर्णय लेने की क्षमता के लिहाज से लोकतंत्र कहीं ज्यादा बेहतर साबित हुआ। 20वीं सदी की तकनीकी दक्षता को देखते हुए बहुत बड़े डेटा और बहुत ज्यादा शक्ति को एक ही जगह पर केन्द्रित करना अलाभकारी था। लेकिन यह कोई प्रकृति का नियम नहीं कि केंद्रीकृत डेटा प्रोसेसिग विकेंद्रीकृत डेटा प्रोसेसिग की तुलना में हमेशा कम लाभकारी होती है। आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के आगमन के बाद, डेटा की विशाल मात्रा को बेहद सक्षमता केे साथ एक जगह प्रोसेस करना संभव है। सभी फैसलों को एक जगह पर लेना संभव है और तब केंद्रीकृत डेटा प्रोसेसिंग विकेंद्रीकृत डेटा प्रोसेसिग से ज्यादा सक्षम हो जाएगी। और 20वीं सदी की निरंकुश सत्ताओं की सबसे बड़ी कमजोरी- समस्त सूचनाओं को एक जगह पर केन्द्रित करने का प्रयास- अब उनके लिए सबसे ज्यादा फायदे की चीज़ होने जा रही है।
लोकतंत्र के भविष्य को एक और बड़ा ख़तरा सूचना तकनीक व बायोटैक्नोलॉजी के संगम से है। इन दोनों का मिलन ऐसे अल्गोरिथम को जन्म दे सकता है, जो मेरे बारे में मुझसे ज्यादा जानता हो। और एक बार ऐसा अल्गोरिथम हाथ लग गया तो कोई भी बाहरी व्यवस्था, जैसे कि सरकार, न सिर्फ मेरे फैसलों की भविष्यवाणी कर सकती है, बल्कि यह मेर अहसासों व भावनाओं केे साथ छेड़-छाड़ भी कर सकती है। एक तानाशाह, संभव है, मुझे अच्छी स्वास्थ्य सुविधाए न दे पाए, लेकिन वह मुझे उसको प्यार करने और उसके विपक्षियों से घृणा करने की मनःस्थिति में डाल सकता है। ऐसी परिस्थितियों में लोकतंत्र के लिए बचे रहना बहुत कठिन हो जाएगा, क्योंकि अंततः लोकतंत्र मनुष्य के तार्किक चितन पर आधारित नहीं है; यह मनुष्य की भावनाओं पर आधारित है। चुनावों और जनमत संग्रहों में आपसे यह नहीं पूछा जाता, ‘‘आप क्या सोचते हैं ?’’ वास्तव में आपसे पूछा जाता है, ‘‘आपको कैसा लगता है ?’’ और अगर कोई आपकी भावनाओं को प्रभावी तौर पर तोड़-मरोड़ सकता है तो लोकतंत्र भावुकता से भरा कठपुतली शो बनकर रह जाएगा।
फ़ासीवाद की वापसी और नई तानाशाही के उदय को रोकने के लिए हम क्या कर सकत हैं ? पहला सवाल हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है: डेटा को कौन कण्ट्रोल करता है ?
अगर आप इजीनियर हैं तो ऐसे तरीके खोजिए ताकि बहुत ज्यादा डेटा चंद हाथों में न सिमट पाए। और ऐसे तरीके खोजिए जो विकेंद्रीकृत डेटा प्रोसेसिग को केंद्रीकृत डेटा प्रोसेसिग जितना प्रभावकारी बना सके। यह लोकतंत्र के लिए सबसे अच्छा सुरक्षा कवच साबित होगा। बाकी हमारे जैसे उन लोगों के लिए जो इंजीनियर नहीं है, यही रास्ता बचता है कि डेटा कण्ट्रोल करने वाली ताकतों के हाथों की कठपुतली बनने से खुद को बचाएं।
उदार लोकतत्र के दुश्मनों के पास आज एक तरकीब है। वे हमारे अहसासों को हैक कर सकते हैं।
हमारे ई-मेल और बैंक खाते नहीं, वे डर, नफ़रत और दंभ के हमार अहसासों को हैक कर लेते हैं और फिर इन अहसासों के इस्तेमाल वे ध्रुवीकरण करने और लोकतंत्र को भीतर से तोड़ने के लिए करते हैं। वास्तव में यह एक सुविचारित तरकीब है जिसे सिलिकन वैली ने अपने उत्पाद बेचने के लिए विकसित किया।
लेकिन अब लोकतंत्र के दुश्मन इस तरकीब का इस्तेमाल हमें डर, नफ़रत और दंभ बेचने के लिए कर रहे हैं व इन भावनाओं को हवा में पैदा नहीं कर सकते। इसके लिए वे हमारी पहले से मौजूद कमज़ोरियों को पकड़ते हैं और फिर उन्हें हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल करते हैं। इसिलए यह हम सब की ज़िम्मेदारी बनती है कि अपनी कमज़ोरियों को जानें और यह सुनिश्चित करें कि ये कमज़ोरियां लोकतंत्र के दुश्मनों के हाथों का हथियार न बनने पाएं। अपनी कमज़ोरियों को जानना हमें फ़ासीवादी दर्पण के मायाजाल में फंसने से भी बचाएगा।
जैसा कि हमने पहले समझने की कोशिश की, फ़ासीवाद हमारी झूठे दर्प का दोहन करना है। यह हमें उससे कहीं ज्यादा ख़ूबसूरत दिखाता है, जितने कि वास्तव में हम होते हैं। यह एक तरह का झांसा है। लेकिन अगर आप खुद को वास्तव में जानते होंगे तो आप इस किस्म के झांस में नहीं फंसेंगे। अगर कोई आपकी आँखों के सामने ऐसा दर्पण रखे जो आपके चेहरे के दाग़-धब्बों को छुपाकर आपको उससे कहीं ज्यादा ख़ूबसरत व कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण बना कर दिखाए, जितने कि आप हैं, तो उस दर्पण को तोड़ डालिए। धन्यवाद।
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)