पुरुषोत्तम शर्मा
उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार द्वारा बहुप्रचारित नया भू-कानून आखिर अब सामने आ ही गया है. क्या यह सच में राज्य के लिए कोई नया भू-कानून है? बिलकुल नहीं! असल में उत्तराखंड राज्य को बने अब 25 वर्ष होने जा रहे हैं. लेकिन इन 25 वर्षों में राज्य का अब तक अपना कोई भूमि सुधार कानून है ही नहीं. यहाँ जो मूल अधिनियम लागू है वह “उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास कानून 1950” और पर्वतीय क्षेत्र के लिए इसके साथ ही एक और कानून “कुमाऊँ उत्तराखंड जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून 1960” ही अब तक लागू है. इसके नाम में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद एक संशोधन कर “(अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश 2001) (यथा उत्तराखंड राज्य में प्रबृत)” जोड़ दिया गया था. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राज्य के लिए एक नया भूमि सुधार कानून बनाने के बजाय यहाँ सत्तासीन सरकारें इस कानून के भू उपयोग और क्रय-विक्रय से जुड़ी धाराओं और उनकी उपधाराओं में संशोधन कर उसे ही नया भू-कानून बताती आ रही हैं.
आश्चर्य की बात तो यह है कि यहाँ का शासक वर्गीय राजनीतिक नेतृत्व और भू-कानून की मांग पर इस दौर मैं बड़े-बड़े आन्दोलन संगठित करने वाले हमारे युवा भी भूमि की क्रय विक्रय सम्बन्धी धाराओं को ही भू-कानून बताते फिर रहे हैं. उनकी मांग और विरोध के बिंदु इन धाराओं के इर्द गिर्द ही घूमते हैं. इसी लिए हर सरकार नया भू-कानून कह कर इन धाराओं में ही संशोधन करती रहती है. यही काम अब पुष्कर सिंह धामी सरकार ने भी किया है. इससे पहले 2002 में कांग्रेस की नारायणदत्त तिवारी सरकार ने धारा 154 में बदलाव कर राज्य से बाहरी लोगों के लिए 250 वर्ग मीटर तक आवासीय जमीन खरीद का प्रावधान किया था. 2004 में उन्होंने इसमें फिर बदलाव कर इसे 500 वर्ग मीटर की सीमा तक पहुंचा दिया. साथ ही कृषि भूमि की 12.5 एकड़ तक खरीद के लिए जिलाधिकारी से अनुमति का प्रावधान किया. 2007 में भाजपा की बीसी खंडूरी सरकार ने बाहरी लोगों को आवासीय भूमि खरीद के लिए फिर 250 वर्गमीटर की सीमा में सीमित कर दिया था.
पर इस बिंदु पर सबसे बड़ा विरोध तब उभरा जब 2018 में भाजपा की त्रिवेन्द्र रावत सरकार ने इन धाराओं में परिवर्तन कर औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि खरीद की सीमा को असीमित कर दिया. उस सरकार ने औद्योगिक श्रेणी में तमाम तरह के कारोबारों को जोड़ दिया. इसके साथ ही कृषि व अन्य उपयोग की भूमि का किसी अन्य प्रयोजन के लिए भू उपयोग बदलने की कानूनी प्रक्रिया को भी समाप्त कर दिया. त्रिवेन्द्र रावत सरकार की यह कार्यवाही उत्तराखंड खासकर भूमि संकट से जूझ रहे पर्वतीय क्षेत्र में कृषि भूमि की कारपोरेट लूट को बढाने वाली थी. जाहिर सी बात है कि इसके खिलाफ उत्तराखंड में कार्यरत वामपंथी और प्रगतिशील हिस्से की ओर से मुखर विरोध की आवाज गूँज उठी. उत्तराखंड विधानसभा में एकमात्र विधायक कांग्रेस के मनोज रावत ने इस बदलाव का मुखर विरोध किया. धीरे-धीरे यह मुद्दा न सिर्फ पहाड़ में बल्कि दिल्ली जैसे शहरों में प्रवासी युवाओं द्वारा भी उठाया जाने लगा. आन्दोलन के दबाव में पुष्कर सिंह धामी सरकार ने 2022 में पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार के नेतृत्व में ‘सख्त भू कानून’ बनाने का प्रचार कर एक समिति का गठन किया. इस समिति ने 5 सितंबर 2024 को 23 सिफारिशों के साथ राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी. अब प्रचारित किया जा रहा नया ‘सख्त भू कानून’ उन्हीं सिफारिशों का प्रतिफल है.
अब उस खेल को देखें कि कैसे इस बहुप्रचारित नए ‘सख्त भू-कानून’ के नाम पर धामी सरकार ने राज्य के लोगों की आँखों में धूल झोंकने का प्रयास किया है. असल में त्रिवेन्द्र रावत सरकार ने जमीनों के क्रय विक्रय और भू उपयोग संबंधी जो नियम बदले थे, उनमें अब धामी सरकार ने सिर्फ इतना बदलाव किया है कि असीमित जमीन खरीदने या भू उपयोग बदलने के लिए राज्य सरकार से स्वीकृति लेनी होगी. इसमें भी जो काम पहले जिलाधिकारी करते थे, वो काम अब सीधे देहरादून सचिवालय में बैठे अधिकारी ही करेंगे. यानी जमीनें तो लोग अब भी उसी तरह खरीद पाएंगे, फर्क सिर्फ यह होगा कि राज्य सरकार और सम्बन्धित विभाग की स्वीकृति के लिए उन्हें देहरादून में कुछ चढ़ावा अलग से देना होगा. इसके लिए धारा 154 की उप धारा (2) का विलोप कर उसकी जगह उप धारा (2 क) को जोड़ा गया है.
इसमें कहा गया है कि औद्योगिक प्रयोजनों, आयुष, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा, उद्यान, विभिन्न प्रसंस्करण उद्योग तथा पर्यटन के लिए किसी न्यास, संस्था, कम्पनी, फार्म, पंजीकृत सहकारी समिति, या दानोत्तर प्रयोजनों के लिए स्थापित संस्था के पास अगर अपनी जरूरत के लिए जमीन चाहिए, या उसके पास उनकी जरूरत से कम जमीन है तो राज्य सरकार अपने किसी सामान्य या विशेष आदेश से उपधारा (1) में स्वीकृत सीमा से अधिक भूमि हस्तान्तरण का आदेश कर सकती है. इसके लिए जमीन खरीदने से पहले सम्बंधित विभाग निवेश की मात्रा, रोजगार सृजन, प्लांट और मशीनरी इत्यादि के परिप्रेक्ष में मिले प्रस्ताव का आंकलन करते हुए भूमि अनिवार्यता प्रमाण पत्र निर्गत करेगा. इसके लिए सम्बंधित विभाग द्वारा एक अधिकारी नामित किया जाएगा, जो विभागाध्यक्ष या उससे एक स्तर कम होगा. इसका मतलब साफ़ है कि कोई भी व्यक्ति ऊपर वर्णित प्रयोजनों के लिए असीमित भूमि अब भी खरीद सकता है.
धामी सरकार का नया संशोधन कहता है कि धारा 154 के (दो) खंड 3 के उपखंड (क) में जोड़ा जाएगा कि धारा 154 के प्रतिबंधों के तहत चिकित्सा-स्वास्थ्य, होटल, अतिथिगृह, भोजनालय, मद्यशाला, झरना, मार्ग में सुविधाएं, सैरगाह, शिक्षा सम्बन्धी प्रयोजन, सांस्कृतिक प्रयोजन, 154 धारा के अंतर्गत उल्लिखित स्थलों से भिन्न स्थलों में औद्योगिक इकाइयां या अन्य प्रायोजन के लिए सूक्ष्म, लघु व माध्यम श्रेणी उद्यमों के लिए, केंद्र, राज्य की आवास योजना के तहत किफाइती आवासीय योजना के भवन के लिए, खेल अकादमी या स्टेडियम के लिए भी इसी प्रक्रिया को अपनाकर पहाड़ हो या मैदान कहीं भी अपनी व्यावसायिक जरूरत के हिसाब से जमीन खरीदी जा सकती है. इन संशोधनों में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि इन प्रयोजनों के लिए पहाड़ में कृषि भूमि की खरीद बिक्री पर प्रतिबन्ध होगा जहां पहले ही बड़ा भूमि संकट पैदा हो गया है. खंड 3 के उपखंड ख में जोड़ा जाएगा कि कोई व्यक्ति, सोसाइटी या निगमित निकाय शपथ पत्र देकर कृषि व औद्यानिकी के लिए सिर्फ हरिद्वार और उधमसिंह नगर में भूमि का उपयोग कर पाएगा. इसके लिए उन्हें भूमि खरीदने से पहले राज्य की पूर्व अनुमति लेनी होगी.
धामी सरकार का संशोधन खंड 3 में नए उपखंड ग, घ को जोड़ने की बात करता है. उपखंड ग के अनुसार कोई व्यक्ति उत्तराखंड में भूमि का खातेदार नहीं है और उसने उपर्युक्त नियमों के तहत स्वीकृति के बिना भूमि खरीद ली है, तो धारा 29 ख के अधीन वह विशेष श्रेणी का भूमिधर बना रहेगा. ऐसा भूमिधर बैंक या वित्तीय संस्थानों से ऋण ले सकेगा. जमीन बंधक रख सकेगा व भूमिधरी अधिकार के तहत मिलने वाले लाभों को पा सकेगा. ऐसी जमीनों के नीलाम होने पर खरीददार को क्रय की अनुमति लेने की जरूरत नहीं रहेगी. अगर उसके परिवार के पास 2003 या उससे पहले खातेदारी की जमीन या अचल सम्पत्ति है तो वह इस जमीन का अंतरणीय अधिकारों वाला भूमिधर हो जाएगा. उपखंड ग 5 के ही एक और प्रावधान के अनुसार अनुसार जिस प्रयोजन के लिए भूमि ली है, उससे भिन्न प्रयोजन के लिए या राज्य सरकार से अनुमति के बिना उसका विक्रय, उपहार में देना या अंतरण नहीं किया जा सकेगा. यानी राज्य सरकार ही इसके लिए भी अनुमति देने की अधिकारी होगी. उपखंड घ 1, जिस प्रयोजन के लिए भूमि ली है, उसी प्रयोजन के लिए बेचने पर राज्य सरकार से इजाजत की जरूरत नहीं होगी. परन्तु घ 2 के अनुसार समान प्रयोजन से भिन्न पर बेचने पर राज्य सरकार से पूर्व अनुमति आवश्यक होगी.
156 कि उपधारा 1 का खंड ग का उपखंड 1 में कृषि या उससे जुड़े सहायक रोजगार के लिए 30 वर्षों के लिए भूमि का पट्टा लेने का प्रावधान कर दिया गया है. इसे बढ़ाकर 90 वर्ष तक ले जाया जा सकता है. यह पहाड़ और मैदान की कृषि भूमि में अनुबंध खेती के व्यापक विस्तार का कार्यक्रम है, जो आगे चलकर यहाँ भूमि की कारपोरेट लूट को बढ़ाएगा. सौर ऊर्जा कम्पनियों द्वारा पहले ही बड़े पैमाने पर अनुबंध के माध्यम से पहाड़ के कृषकों की भूमि को हथियाने का अभियान जारी है. बाहरी लोगों के आवासीय भूमि खरीद को न्लेकर नए संशोधन में (iii) उपधारा (4) में खंड 1 के उपखंड क में जोड़ा गया है कि क्रेता भूमि क्रय से पूर्व उप निबन्धक को शपथ पत्र देकर कहेगा कि इससे पूर्व उसने या उसके परिवार ने अपने जीवन काल में आवासीय प्रयोजन के लिए 250 वर्ग मीटर जमीन क्रय नहीं की है.
कुल मिला कर कहा जाए तो धामी सरकार ने उत्तराखंड में भूमि की कारपोरेट लूट को बढाने के लिए त्रिवेन्द्र रावत सरकार द्वारा बदले गए भूमि कानूनों को उसी तरह जारी रखा है. इस सरकार ने नए संशोधनों में राज्य गठन के दौरान और उसके बाद बड़े पैमाने पर यहाँ हुए भूमि के अवैध सौदों को कानूनी मान्यता देने की राह खोली है. इस सम्बन्ध में 2003 को आधार वर्ष मानने का धामी सरकार का कानून किन बड़ी मछलियों को सीधे फायदा पहुंचाने के लिए है, यह आने वाले समय में सामने आ ही जाएगा. कुल मिलाकर धामी सरकार का नया ‘सख्त भू-कानून’ गधे के खुर में ऊंची एड़ी ठोक कर उसे घोड़ा साबित करने के कवायद से ज्यादा कुछ नहीं है. उत्तराखंड में कृषि भूमि के संरक्षण, कृषि क्षेत्र के विस्तार और खेती पर निर्भर गरीब किसान व भूमिहीन परिवारों को आजीविका चलाने लायक भूमि के आवंटन के साथ एक नए भूमि सुधार कानून की जरूरत है. इसके बिना न तो पहाड़ में जमीन की बिक्री को रोका जा सकता है और न ही बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन को रोका जा सकता है.