रवीश कुमार
उत्तर प्रदेश सरकार ने अध्यादेश के ज़रिए एक कानून बनाया है। इसका नाम है उत्तर प्रदेश रिकवरी ऑफ डैमेज टू पब्लिक एंड प्राइवेट प्रोपर्टी आर्डिनेंस। इस अध्यादेश के बारे में इंडियन एक्सप्रेस में अपूर्व विश्वनाथ और मौलश्री सेठ ने विस्तार से रिपोर्ट किया है। बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में लिखा है कि “कानून की सीमा से परे जाकर इस कानून को बनाया गया है। योगी आदित्यनाथ के इंसाफ के इस तरीको को कानून तरीके से ठोस चुनौती देने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो जाए कि पूरे भारत में यह कानून मॉडल बन जाए। “
अध्यादेश के तहत एक ट्रिब्यूनल बनेगा जिसे अधिकार होगा कि सुनवाई की प्रक्रिया यानि दोष निर्धारण के पहले ही तोड़फोड़ के आरोपी से हर्जाने का एक हिस्सा वसूला जा सकता है। यह ट्रिब्यूनल जो राशि तय कर देगा, जो फैसला कर देगा, वही अंतिम माना जाएगा। उसके फैसले को किसी सिविल कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
सरकार किसी एक घटना से संबंधित कई क्लेम ट्रिब्यूनल का गठन कर सकती है। तीन महीने से भीतर फैसला होना है। आरोपी पर आपराधिक मामला साबित होने से हर्जाने की राशि का फैसला आ सकता है। दोनों अलग अलग चलेंगे। अब इसकी छूट नहीं होगी कि अदालत ने हिंसा का दोषी नहीं माना तो उससे पहले हर्जाना की राशि कैसे वसूली जा सकती है।
इस अध्यादेश में प्रावधान हैं कि क्लेम ट्रिब्यूनल क्षतिग्रस्त संपत्ति की जांच करेगा और किसी संपत्ति को बचाने में प्रशासन और पुलिस बल का जितना खर्चा होगा, उसकी वसूली का भी हिस्सा तय करेगा।
अध्यादेश में यह भी है कि निर्दोष साबित करने का दारोमदार आरोपी पर होगा। आरोपी को ही साबित करना होगा कि उसका प्रदर्शन, हड़ताल, बंद, दंगा या भीड़-भाड़ से कोई नेक्सस यानि संबंध नहीं था। वैसे नेक्सस शब्द का इस्तमाल किया गया है जो कानून की नज़र में संबंध से अलग मतलब रखता है।अगर आरोपी अपना निर्दोष साबित नहीं कर पाता है तो उसकी संपत्ति ज़ब्त कर ली जाएगी।
यूपी के नागरिक सोचें। क्या वे खुद से निर्दोष साबित कर पाएंगे? पुलिस आपकी संपत्ति ज़ब्त करेगी। लाखों रूपये का हर्जाना लगा देगी। उसकी वसूली करेगी। और कहेगी कि आप निर्दोष साबित करें। क्या अपने बूते साक्ष्य जमा कर पाएंगे? मान लीजिए पुलिस ही सबूत गायब कर दे और कहे कि साबित कर दिखाओ तब आप क्या करेंगे?
अध्यादेश में यह भी लिखा है कि यदि दोष साबित हो गया यानि नेक्सस साबित हो गया तो नुकसान की पूरी वसूली की जाएगी।
इसके सेक्शन 21(2) में लिखा है कि अपराध की वास्तविक जिम्मेदारी जिस पर आएगी उससे तो वसूली होगी लेकिन उकसाने वालों को भी इसका भार वहन करना होगा। किसी की भूमिका उकसाने में रही है या नहीं, यह ट्रिब्यूनल तय करेगा। कानून में यह नहीं लिखा है कि उकसाना किस आधार पर तय होगा, उसकी परिभाषा क्या है? सरकार ही तय कर देगी कि आपके मीम या पोस्ट से हिंसा भड़की है। कल से लोग लिखना भी बंद कर देंगे।
साधारण समझ भी बताती है कि यह कानून किसी भी आंदोलन, धरना प्रदर्शन की कमर तोड़ देने के लिए काफी है। नेतृत्व हो या शामिल होने वाले लोगों के खिलाफ हर्जाने की नोटिस भेज कर। प्रदर्शन में हिंसा न हो यह सिर्फ प्रदर्शनकारियों पर ही निर्भर नहीं करता है। आप जानते हैं कि कई बार हिंसा करा दी जाती है। शांति से बैठे लोगों को पता भी नहीं चलता है। पुलिस ही हिंसा को उकसा देती ताकि जवाब में हिंसा हो जाए। एक ही बार में प्रदर्शन में शामिल लोगों के खिलाफ नोटिस भेज कर उन्हें अदालती चक्कर में फंसा दिया जाएगा। एक ऐसे ट्रिब्यूनल में जिसके फैसले को वे किसी और अदालत में चुनौती नहीं दे सकेंगे।
आरोप साबित होने से पहले हर्जाना वसूलने का यही मतलब है कि अब किसी भी मसले को लेकर नेतृत्व की संभावना समाप्त होती है। आप छात्र हैं। किसान हैं। टीचर हैं। व्यवसायी हैं। आने वाले दिनों में किसी नियम या सरकारी उदासीनता के खिलाफ लंबे आंदोलन की ज़रूरत पड़ सकती है। हिंसा नहीं होनी चाहिए लेकिन हिंसा रोकने के नाम पर किसी प्रदर्शन के दमन का ऐसा कानून बनना चाहिए? अगर किसी आंदोलन को खत्म करने के लिए हिंसा प्रायोजित हो गई तो क्या करेंगे, क्या बगैर आरोप साबित हुए आप हर्जाना देने के लिए तैयार हैं?
पुलिस हिंसा करेगी बगैर किसी उकसावे के तो उसका हर्जाना कैसे वसूला जाएगा इस पर कोई भी कानून चुप है। क्या आप मानते हैं कि पुलिस हिंसा नहीं करती है? क्या वे सारी घटनाएं झूठी है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस लाठियां बरसाने लगती हैं? क्या भारत देश में रहते हुए आपमें से किसी को ऐसा अनुभव नहीं है?
15 दिसंबर 2019 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मे हिंसा हुई थी। इसके कई वीडियो में पुलिस बाइक तोड़ती दिख रही है। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने यूपी पुलिस के प्रमुख को आदेश दिया था कि जो जवान बाइक तोड़ते दिख रहे हैं उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए।
आप कहेंगे कि क्या किसी को हिंसा की छूट होनी चाहिए? ये कोई नहीं कहेगा। हिंसा की छूट किसी को नहीं होनी चाहिए। मगर इसके नाम पर ऐसा कानून भी नहीं बनना चाहिए जहां सुनवाई और निर्दोष साबित करने का मौका न मिले।
किसी प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति को होने वाले नुकसान को लेकर 1984 का कानून है। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी कभी पर्याप्त नहीं माना है। समय समय पर सुप्रीम कोर्ट ने कई आदेश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस के टी थामस और मशहूर कानून विद की अध्यक्षता में दो कमेटी का गठन किया गया था। इसके आधार पर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचने की स्थिति में दिशानिर्देश दिए थे।
थामस कमेटी ने सुझाव दिया था कि निर्दोष साबित करने की जवाबदेही प्रदर्शनकारी पर न हो। सुप्रीम कोर्ट ने इस सुझाव को मान लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी संगठन के आह्वान पर बुलाई गई सभा के चलते किसी सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान हुआ है, यह सरकार साबित करेगी। अभियोजन पक्ष साबित करेगा। अभियोजन यानि पुलिस को साबित करना होगा कि कोई आरोपी व्यक्ति उस प्रदर्शन में शामिल था या नहीं। अगर कानून में आरोपी पर साबित करने की जिम्मेदारी है तो कानून को बदला जाना चाहिए। कानून की बुनियाद इसी पर है कि जब तक किसी आरोपी के खिलाफ दोष साबित नहीं हो जाता है वह निर्दोष है।
नरिमन कमेटी का सुझाव नुकसान के हर्जाना तय करने की प्रक्रिया को लेकर था। इनके सुझाव को मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जो दंगाई हैं जो हिंसा कर रहे हैं उन पर नुकसान की जवाबदेही थोपी जाएगी। उनसे वसूली होगी। हिंसक होने वाले प्रदर्शन में जो व्यक्ति नुकसान करता पाया जाएगा या जो हिंसक प्रदर्शन का हिस्सा होगा या जिन्होंने आयोजन किया है उनसे वसूली होगी।
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के अनुसार हाइकोर्ट इस बात की जांच की मशीनरी सेट अप करेगा कि किसी संपत्ति को कितना नुकसान पहुंचा है। तब जाकर मुआवज़ा और हर्जाना तय होगा। क्या ऐसा कानून बन सकता है कि आप हाइकोर्ट के क्लेम कमिशन के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट नहीं जा सकते हैं? यूपी सरकार ने जो अध्यादेश जारी किया है उसके शब्दों को आप ख़ुद भी पढ़ें।
आपने हाल में सुना होगा। राज्य सभा में दिल्ली दंगों पर बोलते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने एक बात कही थी। कि सरकार ने दिल्ली हाइकोर्ट से क्लेम कमिशन बनाने के लिए कहा है। मुमकिन है अमित शाह भी यूपी की तरह अध्यादेश ले आएं लेकिन वर्तमान में जो व्यवस्था बनी है उसके हिसाब से दोष तय करने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को क्या समस्या है?
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुई हिंसा और लखनऊ शहर में प्रदर्शनकारियों के होर्डिंग लगाने के मामले में कहा है कि सरकार संविधान के मूल्यों के अनुसार नहीं काम कर रही है। दो दो बार ऐसी टिप्पणी की है। क्या यह गंभीर नहीं है?
सरकार इलाहाबाद हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में नहीं बता सकी कि किस कानून के तहत लखनऊ में पोस्टर लगाए गए हैं? यही जवाब दिया कि इसका कोई कानून नहीं है। उसके बाद राज्य सरकार यह अध्यादेश लेकर आई है।
सवाल प्रक्रिया का है, प्रक्रिया में अगर इंसाफ़ न हो तो कानून से इंसाफ़ की क्या उम्मीद की जा सकती है?
नोट:आपने यूपी के हिन्दी अखबारों में इसकी समीक्षा पढ़ी ही होगी।