राजीव लोचन साह
1990 का साल था। अक्टूबर का महीना। मण्डल- कमण्डल में पूरा देश झुलस रहा था। छात्र आक्रामक ढंग से आन्दोलित थे। आत्मदाह की घटनायें हो रही थीं। आन्दोलन की लपटें नैनीताल में भी पहुँचीं। छात्र तोड़-फोड़ पर उतर आये। पुलिस ने अपने चरित्र के अनुरूप दमन किया। छात्रों को ही नहीं पीटा, घरों में घुस कर बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं की भी ठुकाई कर डाली। कई छात्र गिरफ्तार कर फतेहगढ़ जेल भेजे गए।
छात्र मदद के लिए भागे-भागे प्रबुद्ध नागरिकों के पास आये। दो छात्रों के नाम मुझे विशेष रूप से याद हैं, नीरज तिवारी और विनय मेहरा। मैं व्यक्तिगत रूप से आरक्षण को सही मानता था और छात्रों के आन्दोलन गलत और दिशाविहीन। असमंजस में था कि छात्रों की बैठक में जाऊँ अथवा नहीं। सलाह-मशविरे के लिए अपने निकटतम साथी गिर्दा और शेखर पाठक भी नैनीताल में नहीं थे। मोबाइल तब तक आया नहीं था। तमाम उहापोह के बाद इस नतीजे पर पहुँचा कि यह नागरिक अधिकारों का सवाल है। पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ मुझे छात्रों के साथ खड़ा रहना चाहिये।
नैनीताल नगरपालिका भवन के दूसरे माले पर स्थित सभागार में बैठक चल रही थी कि पुलिस ने इमारत घेर ली। बैठक खत्म कर तितर-बितर हो जाइये, अन्यथा गिरफ्तारी होगी। मैं सभा का संचालक था। मैंने उपस्थित लोगों से कहा कि वे इस बबाल से बचना चाहते हैं तो शान्ति से बाहर निकल जायें। जबर्दस्ती बहादुरी दिखाना अक्लमंदी नहीं है। ज्यादातर लोग बैठक छोड़ गये। 30-35 जन बचे होंगे। बैठक चलती रही। तत्कालीन एस.डी.एम. डॉ. मोहन चन्द्र जोशी (बाद में उत्तराखंड सरकार में वित्त सचिव बने) ने मुझे मल्लीताल थाने में बुलाया और तितर-बितर हो जाने को कहा। मैंने इन्कार कर दिया। हमारी गिरफ्तारी का आदेश देते समय डॉ. जोशी बहुत तनाव में थे। मेरी बहुत इज्जत करते थे। मगर नौकरी तो नौकरी।
हमें गिरफ्तार कर कालाढूंगी, लखनऊ होते हुए मीरजापुर जेल भेज दिया गया। हम कैदियों में एडवोकेट बिशन सिंह विर्क (अब स्वर्गीय) के बाद सबसे सीनियर मैं ही था। हमारे साथियों में दो, नारायण सिंह जंतवाल और खड़क सिंह बोहरा, बाद में विधायक बने और संजय कुमार संजू नगरपालिका के चेयरमैन। छात्रों की बंदर सेना को नियंत्रित और अनुशासित रखने की जिम्मेदारी मुख्यतः मेरी ही थी।
हम कैदियों में ज्यादातर आरक्षण के विरोधी थे। बाहर से सुन-सुन कर जो लोग हमसे मिलने आते और खाने-पीने की चीजों के साथ सिगरेट आदि दे जाते, वे भी सब आरक्षण विरोधी होते। मैं सोचता कि कहीं इन लोगों के साथ आकर मैंने गलती तो नहीं कर डाली।
जेल में हमें ज्यादा दिन नहीं रखा जा सका। हमारे पीछे नैनीताल में जनता ने जबरदस्त प्रतिरोध किया। रोज लम्बे-लम्बे जलूस निकलते। बाजार लगातार बन्द रही। भोजन के लिए व्यापार मण्डल ने लंगर खोल दिया। शरदोत्सव जो होना था, वह रद्द हो गया। दशहरे में रावण नहीं जलाया जा सका कि जब हमारे बच्चे जेल से छूट कर आयेंगे, तभी जलेगा। विवश होकर प्रशासन को चार-पाँच दिन में ही हमारी रिहाई के आदेश देने पड़े।
वापसी में वीरेन डंगवाल से मिलने के लिए मैंने बस बरेली में अमर उजाला के दफ्तर पर रुकवाई। वीरेन दा ने भी कहा, यार, तुम इन आरक्षण विरोधियों के साथ कहाँ फँस गये। मैंने उन्हें भी यही जवाब दिया कि मेरा मुद्दा तो नागरिक अधिकार का है।
आज तीस साल बाद यह सब बतलाना इसलिये जरूरी लग रहा है कि आज भी मुझे लगता है कि CAB या NRC को लेकर हमारा जो कुछ भी स्टैण्ड हो, हमें दमन को तो कतई बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।