कमलेश जोशी
कोरोना महामारी के बाद से उत्तराखंड में सबसे ज़्यादा सुना गया शब्द शायद ‘रिवर्स माइग्रेशन’ ही रहा. यह भी सच है कि महामारी के दौरान शहरों में रहने और काम करने वाले लोग अपने गाँवों की तरफ वापस लौटे और कुछ समय के लिए गाँव आबाद भी रहे. जैसे-जैसे कोरोना का डर जाता रहा लोग रोजी-रोटी के लिए फिर से पलायित होकर शहरों की तरफ चल पड़े. रिवर्स माइग्रेशन कहने में जितना सरल है प्रक्रिया में उतना ही कठिन है. पहाड़ों में जब तक स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की पुख़्ता व्यवस्थाएँ नहीं हो जाती तब तक पलायन रोक पाना और रिवर्स माइग्रेशन के लिए लोगों को प्रेरित कर पाना मुश्किल जान पड़ता है.
पहाड़ों से नीचे उतरकर शहरों का रुख करना एक तरह का ‘फ़ोर्स्ड माइग्रेशन’ है. न चाहकर भी लोगों को बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के दबाव में पहाड़ छोड़ना ही पड़ता है. स्वास्थ्य व्यवस्था का तो इतना बुरा हाल है कि चंपावत जैसे बड़े जिले में एक डायलिसिस की मशीन तक नहीं है जिस वजह से रोगियों को डायलिसिस के लिए बरेली या फिर हल्द्वानी लेकर आना होता है. श्रीनगर गढ़वाल में कहने को तो मेडिकल कॉलेज है लेकिन वह रैफर सेंटर से ज़्यादा कुछ नहीं है. न तो वहाँ डॉक्टरों की संख्या ही पूरी है और ना ही जरूरी मशीनें उपलब्ध हैं. शिक्षा का भी हाल पहाड़ों में किसी से छुपा नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने छात्र संख्या में हुई कमी को देखते हुए हजारों सरकारी स्कूल पहाड़ों में बंद कर दिये हैं. इन सब के इतर रोजगार सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस वजह से पहाड़ का युवा लगातार पलायित होकर शहरों की तरफ जा रहा है और अपनी आने वाली पीढ़ी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए वहीं बस जाने की जुगत में लगा हुआ है.
पलायन आयोग बनाए जाने के बावजूद अब तक राज्य में न तो पलायन ही रुक पाया है और ना ही लोग पहाड़ों की तरफ लौटकर वापस आए हैं. सरकार ने पर्यटन को ध्यान में रखते हुए होम स्टे की मुहिम को जिस तरह शुरू किया था उससे एक उम्मीद जरूर बँधी है लेकिन पहाड़ में जिन लोगों ने अपने पुश्तैनी घर छोड़कर खटीमा, नानकमत्ता, हल्द्वानी, हरिद्वार, देहरादून या दिल्ली में घर बना लिए हैं उनके वापस पहाड़ों की ओर लौटने की उम्मीद दिन-ब-दिन धूमिल होती जा रही है.
सड़कें किसी भी क्षेत्र के विकास का एक महत्वपूर्ण पैमाना होती हैं. पहाड़ों में सड़कें बनाए जाने का काम बहुत तेजी से हो रहा है और पिछले कुछ वर्षों में बहुत से सुदूर गाँवों को सड़क से जोड़ा भी जा चुका है. गाँवों के सड़क से जुड़ने का एक फायदा यह हुआ है कि लोग अपनी पुश्तैनी जमीनों के बारे में फिर से सोचने लगे हैं. अलबत्ता उनका स्थाई रूप से पहाड़ों में बसने का कोई इरादा नहीं है लेकिन अस्थाई रूप से कुछ समय के लिए छुट्टियाँ बिताने वो अपने घरों को जाने की सोचने लगे हैं. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए चंपावत जिले के सिरना करौली गाँव के मूल निवासी सुरेश जोशी (जो कि वर्तमान में नानकमत्ता के स्थाई निवासी हैं) ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर एक घर बनाया है. उनका मानना है कि रोजगार और बच्चों की उच्च शिक्षा को ध्यान में रखते हुए पहाड़ में स्थाई रूप से रह पाना मुमकिन नहीं है लेकिन समय-समय पर मिलने वाली छुट्टियों में कुछ समय तो अपने पुश्तैनी गाँवों में बिताया ही जा सकता है.
हर साल उत्तराखंड से पलायित तमाम लोग घूमने फिरने नैनीताल, शिमला, मसूरी जैसी ठंडी जगहों पर जाते हैं. इसके इतर यदि ये सब लोग छुट्टियाँ मनाने अपने ही घरों की तरफ लौटें तो शायद जो गाँव आज ‘घोस्ट विलेज’ में तब्दील हो गए हैं कल आबाद हो जाएँ. सरकार को पहाड़ से पलायित हुए लोगों के लिए ‘हॉलिडे एट होम’ जैसी स्कीम पर काम करना चाहिये. जिसमें पलायित लोगों को पहाड़ों में अपनी पुश्तैनी जमीन पर घर बनाने के लिए कुछ सब्सिडी दी जाए और उन्हें अपने ही घरों में छुट्टियाँ बिताने, खेती करने, फलदार पेड़ लगाने व पहाड़ी अनाज उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए.
शहरों में अच्छी नौकरी करने वाले पलायित एक ही परिवार के सारे भाई-बहिन मिलकर भी पहाड़ में अपनी छोड़ दी गई जमीन पर एक अच्छे घर की नींव रख सकते हैं और समय-समय पर जिसे जब मौका मिला अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने पहाड़ों की तरफ आ सकते हैं. इससे होगा यह कि कुछ-कुछ महीनों में एक ही कुटुम्ब के अलग-अलग परिवार वापस पहाड़ों की तरफ अपने घरों में छुट्टियाँ बिताने आएँगें और सालों से विरान पड़े गाँवों में साल भर रौनक बनी रहेगी. घर और खेतों की देखभाल के लिए लोकल के ही किसी बेरोजगार को रोजगार दिया जा सकता है. शहर में लाखों कमाने वाले पलायित लोग पहाड़ों को आबाद करने के लिए इतना तो कर ही सकते हैं. आज की तारीख में ‘परमानेन्ट रिवर्स माइग्रेशन’ बहुत आसान नहीं लगता लेकिन ‘हॉलीडे एट होम’ के माध्यम से ‘टेम्परेरी रिवर्स माइग्रेशन’ को बढ़ावा दिया जा सकता है.
पहाड़ों की बेहतरी व सीमा सुरक्षा के लिहाज से पूरी तरह घोस्ट विलेज में तब्दील हो चुके गाँवों की तरफ लोगों का लौटना बहुत जरूरी है. रिवर्स माइग्रेशन की कठिन राह से तो यह संभव नहीं लगता लेकिन ‘हॉलीडे एट होम’ एक माध्यम बन सकता है पहाड़ों के गाँवों को घोस्ट विलेज बनने से रोकने का. यदि भविष्य में सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार को पहाड़ों की प्राथमिकता के तौर पर बढ़ाने के संकल्प के साथ आगे बढ़ती है तो ‘हॉलीडे एट होम’ पहाड़ों को फिर से पूरी तरह आबाद करने में सहायक हो सकता है.