राजीव लोचन साह
पिछले साठ सालों में चुनाव तो बहुत सारे देखे थे, पिछले पचास सालों में हुए चुनावों की तो खबरें भी लिखी थीं। मगर यह 2024 का लोकसभा चुनाव तो अद्भुत बन गया है। खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषणों के कारण। एक जमाना था। पहले के प्रधानमंत्री अपनी आम सभाओं में बहुत महत्वपूर्ण बातें करते थे। वे चुनावी सभायें भी करते थे, मगर बहुत कम। उनकी चुनाव सभाओं में भी तथ्य और जानकारियाँ बहुत ज्यादा होते थे, प्रत्याशियों का प्रचार बहुत कम। पं. जवाहरलाल नेहरू तो श्रोताओं से यहाँ तक कह देते थे कि वे उम्मीदवार की योग्यता देख कर वोट दें। यदि कांग्रेस का उम्मीदवार योग्य नहीं है तो उसे वोट न दें।
यह तथ्य है कि अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और पी.वी. नरसिंहाराव ने मिल कर जितनी चुनावी सभायें की थीं, उससे कहीं ज्यादा अकेले नरेन्द्र मोदी ने कर ली हैं। नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वे ज्यादातर विदेशों में रहते हैं और जब देश में रहते हैं तो या तो चुनावी सभायें करते हैं या फिर उद्घाटन। दिन में चार बार कपड़े बदलने की तरह उद्घाटन करने का उन्हें इतना शौक है कि वे अपने किसी मंत्री को कहीं उद्घाटन करने की अनुमति नहीं देते। उसी तरह चुनावों का बस बहाना होना चाहिये, मोदी जी प्रचार करने चले जाते हैं। इतनी उत्कंठा उनमें अपने मंत्रियों, अधिकारियों और विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करने में नहीं देखी जाती। प्रेस कांफ्रेंसों की तरह उन्हें कैबिनेट बैठकों से भी एलर्जी है। मगर चुनावी सभाओं में वे उत्साह के साथ शिरकत करते हैं। उन्होंने ‘सी’ ग्रेड की फिल्मों की तरह अपना एक निष्ठावान श्रोता और दर्शक वर्ग बना लिया है, जो बगैर इस बात पर मगजमारी किये कि जो मोदी जी ने कहा है, वह गंभीर और तथ्यात्मक है या हास्यास्पद, उत्साह से तालियाँ बजाता है और जयघोष करता है। चुनावी रैलियों के बाहर भी गोदी मीडिया और भाजपा के आई.टी. सैल ने मिल कर पिछले दस सालों में नरेन्द्र मोदी की ऐसी छवि बना दी है कि जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा उन्हें मनुष्य से कहीं ऊपर महामानव और देवता के स्तर पर मानने लगा है। मोदी की इस ताकत ने अब तक उन्हें अजेय बनाये रखा है।
मगर इस बार चीजें शुरू से गड़बड़ाने लगी हैं। नरेन्द्र मोदी सोच रहे थे कि अयोध्या में राम मन्दिर के निर्माण का श्रेय लेते हुए वे ‘चार सौ पार’ का अपना घोषित लक्ष्य पा लेंगे। वैसा होता न देख कर उन्होंने चुनावी रैलियों में अपनी रणनीति बदल दी। वे खुल कर हिन्दू-मुस्लिम और पाकिस्तान पर उतर आये। तेजस्वी यादव के एक वीडियो का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ये इंडिया गठबंधन वाले नवरात्र में भी मछली खाकर हिन्दू धर्म का अपमान करते हैं। फिर जब कांग्रेस और विपक्षी दलों के घोषणापत्र आये और उनमें रोजगार, महंगाई तथा सामाजिक न्याय के मुद्दों को ज्यादा तरजीह दी गई तो उन्होंने पैंतरा बदला और कहने लगे कि कांग्रेस के शाहजादे, यानी राहुल गांधी, आपका मंगलसूत्र छीन लेंगे और आपके पास यदि दो भैंसें हैं तो उनमें से एक छीन कर ले जायेंगे और आपकी सम्पत्ति उन लोगों मे बाँट देंगे, जो ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, जो घुसपैठिये हैं। इशारा मुसलमानों की ओर था। मजेदार बात यह है कि नरेन्द्र मोदी स्वयं छः भाई-बहन हैं।
कर्नाटक की एक सभा में नरेन्द्र मोदी ने आरोप लगा दिया कि राहुल गांधी को अडानी-अम्बानी ने टैम्पो में भर कर काला धन पहुँचाया है, जिससे चुनाव शुरू होने के बाद अब वे अडानी-अम्बानी को गालियाँ नहीं दे रहे हैं। इस बयान से मोदी के घनघोर प्रशंसक भी हतप्रभ हो गये, क्योंकि राहुल गांधी अपनी लगभग हर सभा में अडानी-अम्बानी का जिक्र करते हैं। दूसरे, अडानी-अम्बानी मोदी जी को इतने प्रिय हैं कि पिछले साल हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद और संसद में घमासान मचने के बावजूद उन्होंने अडानी के बारे में मुँह तक नहीं खोला। इसके बाद पहले राहुल गांधी और फिर तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को अडानी पर लगातार आक्रामक बने रहने के कारण अपनी सांसदी खोनी पड़ी। मोदी के बयान का यह अर्थ भी निकलता है कि अडानी-अम्बानी के पास खूब काला धन है, जबकि उनके अपने दावों के अनुसार 2016 में नोटबन्दी कर उन्होंने सारा काला धन समाप्त कर दिया था। मोदी के आलोचक यह भी पूछ रहे हैं कि यदि उन्हें पता था कि अडानी-अम्बानी के पास काला धन है तो ई.डी., इन्कम टैक्स और सी.बी.आई. की छापेमारी सिर्फ विपक्षी राजनैतिक नेताओं पर ही क्यों हो रही है, इनके ठिकानों पर क्यों नहीं हो रही है ? वे यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि मौजूदा चुनाव में मोदी की आसन्न हार को देखते हुए समझदार पूँजीपतियों की तरह अडानी-अम्बानी ने नरेन्द्र मोदी को धीरे-धीरे किनारे लगाना शुरू कर दिया है। जबकि 2014 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिये नरेन्द्र मोदी अडानी के हवाई जहाज पर ही दिल्ली आये थे। आखिर, अडानी-अम्बानी को नई सरकार के साथ भी तो काम करना होगा!
नरेन्द्र मोदी इस बार डेढ़ माह तक खिंच रहे चुनाव में लगातार भागदौड़ करते हुए इतना थक गये लगते हैं कि उड़ीसा की सभा में उन्होंने यह कह डाला कि नवीन पटनायक को तो इतना भी मालूम नहीं होगा कि उड़ीसा में कितने जिले हैं और उन जिलों की ‘कैपिटल’ कहाँ है। अब एक प्रधानमंत्री का जिलों की ‘राजधानी’ होने की बात करना निन्दनीय न सही, बेहद हास्यास्पद तो है ही।
विपक्षी नेता तो अब तक महंगाई, बेरोजगारी और सामाजिक न्याय के मुद्दों को लेकर ही चुनाव प्रचार कर रहे हैं। वे मान रहे हैं कि इन जरूरी सवालों को आगे ला कर वे मोदी की मुद्दाविहीन राजनीति को पस्त कर देंगे। मगर इस बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट से तीन सप्ताह की जमानत मिलने पर जेल से बाहर आने के बाद चुनावी बहस को बेहद दिलचस्प बना दिया है। उन्होंने नरेन्द्र मोदी पर बहुत तीखे हमले करने शुरू कर दिये हैं। उन्होंने कहा है कि नरेन्द्र मोदी अगले साल 75 वर्ष के हो जायेंगे, इसलिये यदि वे जीत भी गये तो अपने स्थान पर अमित शाह को प्रधानमंत्री बनायेंगे। क्योंकि भाजपा ने तय किया था कि 75 साल पूरे करने के बाद पार्टी का कोई भी नेता किसी पद पर नहीं रहेगा। भाजपा एक अनुशासित पार्टी है और इसी नीति के आधार उसने लालकृष्ण अडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे पूरी तरह से सक्रिय नेताओं को भी मार्गदर्शक मंडल में शामिल कर घर बैठा दिया था। वही नीति तो नरेन्द्र मोदी पर भी लागू होगी। उनके इस बयान से भाजपा के अन्दर भूचाल आ गया है। भाजपा के मोदी समर्थक नेताओं को अपनी पुरानी घोषणाओं को नकारते हुए यह सफाई देनी पड़ रही है कि नहीं, प्रधानमंत्री तो नरेन्द्र मोदी ही होंगे। पार्टी इस मुद्दे पर बुरी तरह से बैकफुट पर आ गई है।
भाजपा की अन्तर्कलह को हवा देते हुए केजरीवाल ने यह बयान भी दिया है कि केन्द्र में पुनः भाजपा की सरकार आयी तो उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपने पद से हटा दिया जायेगा। नरेन्द्र मोदी अपने को सुरक्षित रखने के लिये पार्टी में किसी कद्दावर नेता को उसका हक नहीं देना चाहते। इसीलिये उन्होंने शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे नेताओं को हटा कर ऐसे लोगों को मुख्यमंत्री बनाया, जिनका अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है। इसी क्रम में अगला नाम अब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का आयेगा। दरअसल ऐसी बातें फुसफुसाहटों में हमेशा से कही जाती हैं। लेकिन विपक्ष के एक बड़े नेता के ऐसा कहने से भाजपा का असंतोष सतह पर आ गया है। यह अब और तेज होगा और पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना असम्भव हो जायेगा।
इस बीच एक और चुनौती नरेन्द्र मोदी के गले की हड्डी बन गयी है। कुछ ही समय पहले सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर, दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ए. पी. शाह और ‘दि हिन्दू’ के पूर्व सम्पादक एन. राम ने नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी को पत्र लिख कर कहा है कि वे दोनों अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव की तरह आमने-सामने बैठ कर बहस करें, ताकि जनता के सामने मुद्दे स्पष्ट हो सकें। राहुल गांधी ने यह चुनौती स्वीकार भी कर ली है। मगर पिछले दस सालों में जनता के सवालों का प्रेस कांफ्रेंस या अन्य माध्यमों से जवाब न देकर रेडियो के माध्यम से सिर्फ अपने मन की बात करने वाले मोदी के लिये यह चुनौती स्वीकार करना बेहद कठिन होगा।
अभी चुनाव परिणाम आने में दो सप्ताह से अधिक का समय शेष है। मगर इतना तो लग रहा है कि इस चुनाव में किसी पार्टी या किसी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिलना कठिन है। यदि त्रिशंकु लोकसभा बनी तो भाजपा नीत एन.डी.ए. को सरकार बनाने का मौका शायद मिल भी जाये, क्योंकि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अन्ततः भाजपा से ही आती हैं। मगर अपने को पार्टी की सम्मिलित हैसियत से ऊपर रखने वाले नरेन्द्र मोदी को उनकी पार्टी वाले शायद ही प्रधानमंत्री बनने दें।