राजीव लोचन साह
महात्मा गांधी के 1929 के दौरे से ही ब्रिटिश सरकार चैकन्नी हो गई। उसे लगने लगा कि गोविन्दनगर ताकुला बगावत का एक नया केन्द्र बनने जा रहा है। जैसा कि गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया ने अपने अन्तिम वर्षों में, 6 जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को लिखे एक पत्र में जिक्र किया है, सरकार ताकुला की ‘लीज रद्द करने’ की धमकी देने लगी थी। गोविन्द लाल जी को लगा कि अब शायद वे यहाँ बहुत दिन नहीं रह पायेंगे। मगर उन्हें गांधी मन्दिर का निर्माण पूरा करना था। कोई ऐसी व्यवस्था करनी थी, ताकि ताकुला की इस सम्पत्ति का सदुपयोग होता रहे। अतः उन्होंने 17 जुलाई 1929 को, गांधी मंदिर और एकाध भवन छोड़ कर, ताकुला की समस्त सम्पत्ति, जिसकी कीमत उस वक्त लगभग साठ हजार रुपये आँकी गई, एक ट्रस्ट बना कर आर्य प्रतिनिधि सभा यू.पी. को दान कर दी। शर्त यह थी कि सभा यहाँ गौशाला, अनाथालय और विधवाश्रम चलायेगी और इसी तरह के अन्य समाजोपयोगी काम करेगी। 27 जुलाई 1929 के ‘शक्ति’ साप्ताहिक में छपी धर्मानन्द पन्त की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘‘इस कार्य को सफलीभूत करने के लिये सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के सभापति पूज्यपाद श्री नारायण स्वामी तथा सभा के सभापति ठा. श्री मसालसिंह रायबहादुर साहब ने अत्यन्त परिश्रम किया और कई बार नैनीताल आने का कष्ट किया।’’
गोविन्दलाल ने अब स्थायी रूप से अल्मोड़ा में रहने का इरादा किया। इसके लिये वहाँ खजांची मोहल्ला के खंडहर हो चुके अपने पुश्तैनी मकान का पुनर्निर्माण करवाया। 1931 में बापू के दूसरे दौरे के बाद वे अल्मोड़ा चले भी गये। मगर बापू के साथ उनका सम्पर्क बना रहा। नवम्बर 1932 में जब गोविन्दलाल जी को एक फोड़ा हुआ और डाॅ. खजानचंद ने सर्जरी कर उसका इलाज किया तो सूचना मिलने पर बापू ने यरवदा जेल से उनके स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हुए उन्हें एक पत्र लिखा और जब पत्र का उत्तर समय से नहीं मिला तो अल्मोड़ा तार भेज कर उनकी सेहत का हाल पूछा।
इधर जिस उम्मीद के साथ गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया ने ताकुला की सम्पत्ति आर्य प्रतिनिधि सभा को दान की थी और आर्य प्रतिनिधि सभा ने शुरू में जो उम्मीदें जगायी थीं, वे पूरी नहीं हुईं। आर्थिक कारणों से आर्य प्रतिनिधि सभा ताकुला में अनाथाश्रम के लिये एक भवन बनाने के अतिरिक्त कुछ विशेष नहीं कर पायी। गोविन्दलाल जी पुनः ताकुला की सम्पत्ति के सदुपयोग के लिये चिन्तित हुए। उन्होंने नैनीताल नगरपालिका के साथ बातचीत चलाई। इसके लिये उन्होंने बापू से भी राय ली। शायद उन्होंने बापू से यह पूछा था कि क्या यह सम्पत्ति हरिजन सेवक संघ को दी जा सकती है। 23 जुलाई 1935 को एक पोस्टकार्ड में गांधी जी लिखते हैं, ‘‘जब म्युनिसपालीटी से वादा कर लिया है तो कुछ कहने का ही नहीं है। वैसे भी हरिजन सेवक संघ इस जमीन व मकान का कब्जा नहीं ले सकते हैं। म्युनिसपालीटी को देना ही बेहतर है।’’
20 जून 1936 को गोविन्द लाल जी ने ताकुला की सम्पत्ति नैनीताल नगरपालिका को देने का प्रस्ताव करते हुए एक औपचारिक पत्र लिखा। 28 अगस्त 1935 को नगरपालिका नैनीताल ने चेयरमैन आर. सी. बुशर की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में प्रस्ताव पारित किया और 12 नवम्बर 1935 को गोविन्द लाल जी ने एक ट्रस्ट बना कर कुछ शर्तों के साथ ताकुला का स्वामित्व नगरपालिका को सौंप दिया। इन शर्तों में प्रमुख थीं: आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा ताकुला में किये गये खर्चों की एवज में नगरपालिका 6,000 रुपये आर्य प्रतिनिधि सभा को देगी; नगरपालिका ताकुला में छूत के रोगों का एक अस्पताल चलायेगी, जिसका नाम गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया के नाम पर होगा; ताकुला में बने भवनों में लगे सभी नामपट्टों को सुरक्षित रखा जायेगा; एक आवासीय भूखण्ड गोविन्द लाल जी को नैनीताल नगर में दिया जायेगा; और यदि नगरपालिका इन शर्तों को पूरा करने में असफल रहती है तो उसे मुआवजे के रूप में पचास हजार रुपये का एक ट्रस्ट बनाना होगा, जिसके ब्याज से असहाय विधवाओं और प्रतिभाशाली गरीब बच्चों को आर्थिक सहायता दी जायेगी।
शर्त के मुताबिक गोविन्द लाल सलमगढ़िया को नैनीताल में डाँठ पर स्थित डाकखाने के पीछे बलिया नाले और नैनीताल-भवाली मार्ग के बीच का एम.ई.एस. की सीमा से लगा हुआ एक आवासीय प्लाॅट नगरपालिका द्वारा दे दिया गया। ताकुला में छुतहा रोगों का अस्पताल भी खुला। मगर जल्दी ही नगरपालिका इस अतिरिक्त जिम्मेदारी की ओर से लापरवाह हो गई। वह ताकुला की सम्पत्ति की भली भाँति देखरेख नहीं कर पायी। वर्ष 1943 तक सावित्री मण्डप और एक दुमंजिला भवन ध्वस्त हो चुके थे, जिसके लिये गोविन्द लाल जी ने नगरपालिका में अपनी शिकायत दर्ज करते हुए उसे दान की शर्तों की याद दिलाई। स्वतंत्रता प्राप्ति की अस्तव्यस्तता में अस्पताल भी खत्म हो गया।
गोविन्द लाल जी पुनः ताकुला के भविष्य को लेकर चिन्तित हो गये। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त के आगे गुहार लगाई और साथ-साथ दिल्ली और यू.पी. के गांधी आश्रम के प्रभारी विचित्र नारायण शर्मा के सामने भी ताकुला का मामला रखा। पन्त जी ने गोविन्द लाल जी के पत्र को अपने लोकल सैल्फ गवर्नमेंट विभाग को भेज दिया, जहाँ उसकी फाईल धूल फाँकने लगी। विचित्र नारायण शर्मा ने ताकुला की सम्पत्ति गांधी आश्रम के लिये प्राप्त करने की कोशिश की, मगर म्युनिसिपल बोर्ड उसका कब्जा छोड़ने में आनाकानी करने लगा।
गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया अब अस्वस्थ रहने लगे थे। नैनीताल में अपनी बेटी के आवास ‘सावित्री निवास’ का निर्माण करवाने के दौरान उन्हें हृदय रोग ने भी जकड़ लिया था। 1952 की सर्दियों में जब वे इलाहाबाद में थे, महादेवी वर्मा उनसे मिलने आईं। दोनों का आपस में परिचय 1931 से था ही। महादेवी जी अब एक विख्यात साहित्यकार थीं और महिला विद्यापीठ की प्राचार्य भी। गोविन्द लाल जी ने उनसे ताकुला की समस्या का जिक्र किया।
महादेवी जी ने कहा कि उनकी इच्छा पहाड़ में भी महिलाओं के लिये एक विद्यापीठ खोलने की है। यदि ताकुला की एस्टेट उन्हें मिल जाये तो बहुत ही अच्छा हो। वे वहाँ गांधी जी के स्मृति चिन्ह भी रखेंगी और गांधी साहित्य का पुस्तकालय भी बनायेंगीं। ताकुला में हाॅस्टल की गुजाइश है। नैनीताल से पढ़ने के लिये ताकुला आने वाली लड़कियों के लिये एक बस लगाई जा सकती है। गोविन्द लाल जी ने उनसे कहा कि वे एक बार फिर कोशिश करेंगे, क्योंकि नगरपालिका के साथ हुए अनुबन्ध के अनुसार यदि पालिका शर्तों को पूरा नहीं कर पायी तो उसे पचास हजार रुपया मुआवजे के रूप में देना था। इसी मुद्दे पर उस पर दबाव डाला जा सकता है। मगर चूँकि अब उनका स्वास्थ्य खराब है, अतः वे ज्यादा मेहनत नहीं कर सकते। महादेवी जी के परिचय का दायरा अब बहुत बढ़ गया है, अतः वे भी अपने स्तर से प्रयास करें।
उसी साल गर्मियों में आचार्य जे. बी. कृपलानी अल्मोड़ा आकर गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया के साथ ठहरे। उनसे भी गोविन्द लाल जी का विचार-विमर्श हुआ। 6 जुलाई 1952 को वे अल्मोड़ा दौरे पर आये राज्यपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी से मिले। मुंशी ने इस मामले में उत्साह दिखाया। नवम्बर में गोविन्द लाल जी ने फिर एक बार, संभवतः अन्तिम पत्र मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत को लिखा, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘‘मैं पिछले लगभग दो वर्ष से बहुत बीमार हूँ। पता नहीं कब मेरी साँस उखड़ जाये। उससे पहले यदि ताकुला का मामला सुलझ जाये तो मैं चैन से मर सकूँगा।’’
चैतरफा दबाव पड़ने पर जुलाई 1953 में म्युनिसिपल बोर्ड ने ताकुला की सम्पत्ति अन्ततः महादेवी वर्मा को सौंप दी। 1954 की गर्मियों में महादेवी वर्मा ने ताकुला में शिक्षा, संस्कृति केन्द्र ‘उत्तरायण’ संस्था की शुरूआत की। ‘उत्तरायण’ के संचालक मंडल में उन्होंने अपने और मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत के अतिरिक्त मैथिली शरण गुप्त, डाॅ. वासुदेव शरण, डाॅ. हेमचन्द्र जोशी, रायकृष्ण दास, सुमित्रानन्दन पन्त, तारा पाण्डे, इलाचन्द्र जोशी, गोविन्द बल्लभ पन्त (लेखक), साहू जगदीश प्रसाद, लक्ष्मी देवी, सीताराम सेक्सरिया, डाॅ. चन्द्र दत्त पाण्डेय, डाॅ. मोती चन्द्र, भागीरथ कनौडिया और नन्दलाल कनौडिया को शामिल किया।
‘उत्तरायण’ गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के ‘शान्ति निकेतन’ की तरह बने, ऐसी महादेवी जी की कल्पना थी। इसलिये उन्होंने संस्था के उद्देश्यों में राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास के साथ-साथ प्रौढ़ और बालिका शिक्षा से लेकर लोक साहित्य और लोक रंगमंच जैसे अनेकों विषय शामिल किये थे। पहले साल विशेष कुछ नहीं हो सका। भवनों की मरम्मत और रखरखाव का काम ही बहुत होना था। अलबत्ता रामानुज लाल श्रीवास्तव, वैकुण्ठलाल मेहरोत्रा, गंगाप्रसाद पाण्डे, धर्मवीर भारती, कान्ता भारती, रमा सिंह आदि साहित्यकारों का जमावड़ा उस बार ताकुला में हुआ। स्थानीय लोगों में डाॅ. हेम चन्द्र जोशी और नाटककार गोविन्द बल्लभ पन्त तो थे ही। नाटककार गोविन्द बल्लभ पन्त तो ‘उत्तरायण’ के स्थानीय प्रबन्धक ही थे।
1955 की गर्मियों में ताकुला में एक बहुत ही महत्वपूर्ण आयोजन हुआ। यह था तमाम भारतीय भाषाओं के लेखकों का एक सम्मेलन। दुर्भाग्य से इस कार्यक्रम के ब्यौरे उपलब्ध नहीं हैं। उ.प्र. के सूचना विभाग ने एक डाॅक्यूमेंट्री फिल्म इस कार्यक्रम की बनाई थी। मगर वह भी उपलब्ध नहीं है। बहरहाल काका कालेलकर, मामा वरेरकर, जरासंध आदि विख्यात साहित्यकारों के इस सम्मेलन में भाग लेने की जानकारी मिलती है। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, जो उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे और जिनके प्रयासों से यह आयोजन हो पाया, स्वयं ही गुजराती के स्वनामधन्य लेखक थे।
गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया गोविन्द नगर ताकुला का कायाकल्प होते नहीं देख सके। 21 जून 1954 को मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने ‘उत्तरायण’ का उद्घाटन किया, मगर उससे चार माह पूर्व फरवरी में ही वे स्वर्ग सिधार गये थे
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।