रमदा
बात 1960/61 की रही होगी जब हम रानीखेत रोड की किराये की रिहाइश से अपने निजी मकान (जो मेरे पिता ने बनवाया था) में शिफ्ट हो गए थे. तब हमारा घर रामनगर के एकदम उत्तरी सिरे पर हुआ करता था, गिने चुने घर थे और घरों के एकदम सामने झुग्गिओं की कतार हुआ करती थी. ये घर और झुग्गियां रानीखेत की ओर जाती सड़क के एक तरफ थीं और दूसरी तरफ एक छोटी पहाड़ी थी, खूब सारे पेड़ों और झाड़ियों से भरी. एक पतली सी पगडंडी ऊपर टॉप की ओर जाती जरुर दिखाई पड़ती थी और जैसा उन दिनों का सामान्य प्रचलन था पगडंडी के दोनों ओर का इलाका समूची झुग्गी बस्ती का खुला शौचालय था, ज़ाहिरा तौर पर घोर बदबूदार.पहाड़ी का ऊपरी हिस्सा, जो हमारे घर से दिखाई देता था, चौरस था और ‘थपली चौड़’ कहा जाता था. यह चौरस हिस्सा पहाड़ी के ऊपर-ऊपर आमडंडा तक विस्तृत था (आज भी है).
धीरे-धीरे अपने हमउम्र साथियों के साथ हमने आसपास की सभी जगहों का मुआइना करना शुरू किया और एक दिन हम घोर बदबू से भरी उस पगडंडी की राह से ऊपर पहाड़ी पर भी पहुँच गए. वहां से रामनगर क़स्बा बहुत सुंदर दिखाई पड़ता था मगर पहली बार वहाँ पहुँचने पर जिस चीज़ ने हमें सबसे अधिक अपनी ओर खींचा वह एक कब्र थी, मिट्टी का एक छोटा सा टीला. जिसके चारों ओर पत्थरों का एक छोटा घेरा सा बना था. बाद में घर के बड़ों ने बताया कि वह एक मज़ार है जिसके मायने किसी धार्मिक या संत की कब्र से है और साथ में चेताया गया कि वहाँ किसी तरह की गन्दगी या छेड़छाड़ न की जाये. अब चूँकि मज़ार थपली चौड़ पर थी थपली बाबा की मज़ार कही जाती थी. मज़ार से लेकर आमडंडा तक का झाड़ियों और तमाम दरख़्तों से भरा जंगल आने वाले वक्तों में हमारा रोमांच भरा प्लेग्राउंड सा बन गया जिसमें अक्सर जंगली सूअर और हिरण भागते दौड़ते दिख जाया करते थे. जब भी घर पर आये मेहमानों में कोई हमारी उम्र का होता तो उसे यहाँ की सैर कराना लाज़मी होता था. कभी-कभी मज़ार पर किसी के द्वारा जलाई गयी अगरबत्ती के निशानात, चढ़ाया गया कपड़ा या जलता हुआ दिया भी दिख जाता था. हम जानने लगे कि इबादत जैसा भी कुछ इस मज़ार से जुड़ा है और “मज़हब” और “धर्म” दोनों से जुड़े लोग यहाँ बिना किसी भेदभाव के आते हैं, धर्म वाले आम तौर पर गुरुवार को और मज़हब वाले जुम्मे को. मगर यह आवाजाही बहुत सीमित थी.
पता नहीं कब हमारा परिवार भी इसका हिस्सा हो गया और हम अपनी इधर-उधर की पारिवारिक यात्राओं की शुरुआत में “गर्जिया माता की जय” के साथ “थपली बाबा की जय” का उद्घोष भी जोड़ने लगे. घर-परिवार की सुरक्षा और शांति की जिम्मेदारी केवल ईश्वर तक सीमित नहीं रही बल्कि थपली बाबा से भी उम्मीद लगाईं जाने लगी. कुछ भी अच्छा होने की प्रार्थना/मन्नत या ऐसा हो जाने पर धन्यवाद ज्ञापन के तौर पर चादर चढ़ाना सालाना रिचुअल हो गया. ऐसा केवल हमारे साथ हुआ हो ऐसा नहीं था बहुत सारे लोग, परिवार इसमें शामिल होते रहे और बढ़ती लोकप्रियता के साथ मज़ार की शक्ल बदलने लगी. कच्ची मिट्टी का टीला पक्की सीमेंटेड मज़ार में बदला, कभी-कभी एक अदद पुजारी या सेवक या जो भी इसे “मज़हब” में कहा जाता हो सफाई आदि करता दिखाई पड़ने लगा.
कालांतर में मज़ार की पहाडी के नीचे की ओर की झुग्गी-झोपड़ी और पगडंडी के दोनों ओर का खुला शौचालय इतिहास हो गया, वहाँ पक्के मकानों का सिलसिला हो गया. धीरे-धीरे टेड़ा रोड तक सीमित बस्ती भी दुर्गापुरी, भरतपुरी से लेकर पम्पापुरी तक फैलती गयी. गिने-चुने घरों की जगह सैंकड़ों मकान-घरों का सिलसिला हो गया. इन घरों के बाशिन्दे प्रायः हिन्दू ही थे, एक दो मंदिर तो बने ही थपली-बाबा के मुरीदों की तादाद में भी भारी इज़ाफा हुआ. आदमी को इस दुनिया से बाहर की किसी रूहानी शख्शियत के आगे अपना रोना रोने में ज्यादा सुकून मिलता है शायद. थपली बाबा इस लिहाज़ से बड़े काम की चीज़ थे, मुरीद बढ़े. चूँकि इनमें “धर्म“ को मानने वाले ज्यादा थे मज़ार पर दिए भी जलने लगे और दियों के लिए तेल और प्रसाद के बताशों का सिलसिला भी शुरू होना ही था. बाबा का मिजाज़ ज्यादा से ज्यादा सूफियाना होता गया, यूँ “मज़हबी” तो कभी था भी नहीं.
साल-दर-साल गुजरते रहे, कोसी में पानी था और वह बहता भी रहा. थपली बाबा की मज़ार के चारों ओर दीवार बन गयी. आँगन भी अच्छा सा हो गया. इस शुरुआती सुधार-विस्तार के पीछे एक बुढ़िया थीं. इन कामों के लिए चंदा मांगती थीं, कभी पैसे, कभी सीमेंट के बैग या किसी तरह की निर्माण सामग्री. लगी रहती थीं बेचारी, फिर शायद गुज़र गयीं. मज़ार का ज़िम्मा शायद उन्हीं के परिवार के किसी सदस्य के पास आ गया होगा. हम भी चूँकि लगातार उसी घर में बने नहीं रहे, नौकरियों-तबादलों में इधर-उधर होते रहे, मज़ार के इंतजाम की तब्दीलियों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं रही. मगर जब भी लौटते बाबा को सलाम जरुर करते.
इन्हीं वापसियों/सलामों के दौरान जाना कि मज़ार अब एक बड़े से और रंगीन गुम्बद के नीचे आ गयी है. सालाना उर्स होने लगा है. जिसमें बड़ी तादाद में लोग शिरकत करते हैं, चार-पांच दिन लाऊडस्पीकर लोगों के कान खाता है, नींद हराम होती है. इस दौरान बाबा “मज़हबी” ज्यादा लगते हैं और थपलीबाबा का एकांत और शांति घोर हंगामे में तब्दील हो जाता है. कच्ची मिट्टी की मज़ार से एक आलीशान रंगीन मज़ार तक के इस सफ़र के दौरान जमीन लगातार वन-विभाग की ही थी. वन-विभाग ने उर्स के दौरान पानी के टैंकर लाने ले जाने के लिए आमडंडा की ओर से जंगल में आवाजाही की सुविधा पर कभी कोई आपत्ति नहीं की. अब एक बार कच्ची सड़क सी जब हो ही गयी तो दोपहिया वाहनों की लाइन भी लगने ही लगी.
बाबा “हिट” हो गए, बाबा धंधा हो गए. मज़ार चमाचम हो गयी और जाहिर है इंतजामियां लोग भी. एक नए सिलसिले की शुरुआत भी हुई. बाबा की मज़ार से दूर,सौ सवा सौ फीट दूर, जंगल की तरफ एक दिन एक नयी कब्र दिखी, साल छः महीने बाद कुछ दूरी पर एक और. कुछ समय बाद एक और फिर उन पर चादर भी चढ़ाई जाने लगी, अगरबत्तियां भी जलने लगीं. ये सीधे-सीधे मूल मज़ार के नाम पर जमीन को घेरने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं हो सकता था मगर सम्बंधित विभाग को कोई जानकारी नहीं रही होगी क्योंकि इस ज़माने में विभागों को उनके दायित्वों का “संज्ञान” दिलाने की जिम्मेदारी अन्य लोगों की होती है. वन-विभाग लगातार इस अतिक्रमण की अनदेखी करता रहा.
विभाग जिसे कि मज़ार के नाम पर धंधे के लिए घेरी जा रही अपनी जमीन की परवाह करनी चाहिए थी, ने एक और काम किया. रानीखेत रोड से मज़ार की ओर आ रही उबड़-खाबड़ पगडंडी को सुधारा और सीढियां आदि बना कर एक अच्छा सीमेंटेड खडंजा बनवाया. यहाँ मंतव्य इस काम की बुराई करना कतई नहीं है क्योंकि बाबा के उपासकों को आने-जाने में सुविधा तो हुई ही, मंतव्य केवल यह बताना है कि बाबा की मज़ार के नाम पर धंधा करने वालों को उसी वन-विभाग के कुछ लोग जाने-अनजाने मदद पहुंचा रहे थे जो आज ध्वस्तीकरण की कार्रवाई में लगा है. जिस भी कार्मिक या अधिकारी की देखरेख में यह खडंजा बना होगा उसकी नज़रों से बाबा की मज़ार की आड़ में किया जा रहा अतिक्रमण बच ही नहीं सकता था.
जिन्होनें बाबा के नाम पर अपने लिए एक धंधा बनाया उनका धंधा तो ध्वस्तीकरण की इस कार्रवाई के बाद अब रहा नहीं मगर वन-विभाग की लापरवाही ने समुदायों के बीच जिस तरह के तनाव और वैमनस्य को आधार दिया है उसकी सजा कौन भुगतेगा? प्रसंगवश यह भी कि वन-विभाग की जमीनों पर धार्मिक संरचनाओं के नाम पर पर 155 से अधिक अवैध कब्जों की बात खुद उत्तराखंड का वन-विभाग करता है (इनमें नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मंदिर हैं). यह सब विभागीय अनदेखी का ही नतीजा हैं. रामनगर में ही टेड़ा गाँव को जाने वाली सड़क पर मुश्किल से दो किलोमीटर की दूरी पर कुछ साल पहले एक छोटा सा मंदिर बना फिर साधु की कुटिया, थोडा हट के शौचालय और और थोडा हट के पानी का टैंक, थोड़ी और दूरी पर हवनकुंड. अब यह सब जब विभाग को दिखा ही नहीं तो चारों ओर खाली ज़मीन की अनावश्यक घेराबंदी और फैंसिंग. यहाँ से रात दिन वन-विभाग के कार्मिकों की आवाजाही है मगर किसी को यह अतिक्रमण दिखाई ही नहीं देता. एक दिन एकाएक जब लगेगा कि पानी सर से ऊपर निकल गया है तो कार्रवाई के नाम पर ध्वस्तीकरण से नीचे कुछ होगा नहीं और फिर मौजूदा दौर में ज्यादा संवेदनशील हो चली धार्मिक भावनाएं और उन पर लगी ठेस का तमाशा.
सच तो यह है कि पहले “मज़हब” या “धर्म” से जुडी एक छोटी सी संरचना फिर धीरे-धीरे घेराबंदी, विस्तार और सम्बंधित विभागों की अनदेखिया ंएक अखिल भारतीय धंधा है और पानी सर से निकल जाने पर जब कार्रवाई होती है तो आमजन के हिस्से घोर वैमनस्य और तनाव ही आता है, हाँ राजनीति के खिलाडियों को इस सब में बहुत कुछ हासिल ज़रूर होता है.