लोकतान्त्रिक मूल्य संकट में हैं। भारत में 1975 में लगे आपातकाल के बाद पिछले कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति आई है कि देश के प्रबुद्ध लोग सिहरकर आपातकाल को याद कर रहे हैं और ‘अघोषित आपातकाल’ की चर्चा कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र विमर्श चलते रहना अत्यंत आवश्यक है। अरुण कुमार त्रिपाठी और ए. के. अरुण द्वारा संपादित और संकलित पुस्तक “जनतंत्र की जड़ें” इस विमर्श को निश्चित ही अत्यंत सुचिन्तित ढंग से आगे बढ़ाएगा, ऐसा सोचकर हम अपने पाठकों का परिचय इस पुस्तक से करा रहे हैं। यह काम हमने राजेन्द्र भट्ट को सौंपा जिनके लेख आप इस वेब पत्रिका में पढ़ते ही रहते हैं। लेख के अंत में हमने इसी वेबसाईट पर प्रकाशित कुछ अन्य ऐसे लेखों की सूची भी दी है जिनमें लोकतंत्र के विभिन्न आयामों पर चर्चा है।
जनतंत्र की दशा और दिशा को लेकर चौतरफा चिंताओं के दौर से हम गुज़र रहे हैं। हवा-पानी की तरह कोई चीज़ जब आराम से सुलभ हो जाती है, उसमें मीन-मेख निकालना, पूर्ण शुद्धि की मुद्रा में शांत-मन बैठे मनीषियों के लिए भी आसान होता है। दूसरी ओर, जिनके विघ्नसंतोषी पुरखों ने ज़हरीली हवा और नफरती पानी के परनाले फैलाए थे, उन सँकरे सोच वालों के लिए भी देश-समाज के विवेकशील, ‘विज़नरी’ (भविष्यदृष्टा) नेतृत्व की विष-मीमांसा सहज हो जाती है। इतिहास की नेमतों का आकलन उनके अभाव में ही किया जा सकता है।
आज़ादी की लड़ाई के दौर में और उसके फौरन बाद, जिस विवेकशील नेतृत्व ने कठिन चुनौतियों के बीच लोकतन्त्र को संभाला; विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, शिक्षा- संस्कृति और विज्ञान के क्षेत्रों में लोकतान्त्रिक, स्वायत और निर्भय संस्थाएं बनाईं और सहेजीं; फौजों को इज्जत दी पर उन्हें ‘जन के तंत्र’ के अधीन बैरकों की हदबंदी में रखा – यानि ऐसे अनेक पुख्ता काम किए कि उनके महत्व का ठीक-ठीक एहसास शायद उनके अभाव में ही हो पाता।
ठोस उदाहरण के साथ कहें तो लोकतान्त्रिक, बहुलतावादी, उदार भारत हो पाने के महत्व के एहसास को लिए हमें बीसवीं सदी के मध्य और उसके बाद के दशकों में आज़ाद हुए बहुत से अफ्रीकी, एशियाई और लातीनी अमेरिकी देशों के अनुभवों और जीवन-स्थितियों पर एक नज़र डालनी होगी। हमें पिछले 75 सालों में लगातार सैनिक शासन से जूझते और अंततः विभाजित अपने ही पड़ोसी देश पर नज़र डालनी होगी; ‘बनाना रिपब्लिक्स’ और रोज़-रोज़ के तख़्ता-पलटों वाले देशों को देखना होगा; धार्मिक और नस्ली तानाशाहियों को देखना होगा जिन्होंने अपने ‘जन’ को बार-बार भीषण विभीषिकाओं में डाल दिया– तब हमें ‘भारत होने’, उसके लोकतान्त्रिक पुरखों के ‘होने’ के महत्व का एहसास हो सकता है।
हमें इस बहुल, समावेशी लोकतन्त्र को बचाए रखना है। अरुण कुमार त्रिपाठी और ए.के. अरुण द्वारा संपादित-संयोजित किताब ‘जनतंत्र की जड़ें’ (युवा संवाद प्रकाशन, पश्चिम विहार, नई दिल्ली) का सरोकार भी यही है कि इस दौर में लोकतन्त्र की परम्पराओं-संस्थाओं पर लगातार हमले हो रहे हैं- जनतंत्र की जड़ें कमजोर हो रही हैं।
करीब साढ़े तीन सौ पृष्ठों की किताब में दोनों संपादकों के एक विस्तृत विषय-प्रवर्तक लेख के साथ, कुल 22 लेख (दो साक्षात्कारों सहित) हैं। सभी लेख प्रतिष्ठित विद्वानों-विचारकों के हैं और लोकतान्त्रिक चेतना के विविध आयामों के बारे में हमें गहराई से समृद्ध करते हैं।
किताब के अंतिम आलेख – इतिहास-मर्मज्ञ और संस्कृति-कर्मी शम्सुल इस्लाम के साक्षात्कार से बात शुरू कर रहा हूँ क्योंकि उनकी बात, बल्कि उनकी बेचैनी में लोकतन्त्र के छीजने के आज के रोग के विवरण की बजाय, उससे पहले की हमारी उन सामूहिक लापरवाहियों, बद-परहेजियों का जिक्र है, जिन पर ध्यान दिया होता तो आज की बीमारी नहीं होती। भारत के लोकतन्त्र को तबाह करने का ‘मुख्य श्रेय’ वर्तमान प्रधान मंत्री जी को देते हुए भी शम्सुल इस्लाम दो टूक कहते हैं कि विनाश के हथियार और हिन्दुत्व की फसल काटने की ज़मीन नेहरू जी के बाद के कांग्रेस के अनेक लोगों ने ही तैयार की। लोकतान्त्रिक प्रतिरोध को कुचलने वाले बहुत से क़ानूनों की शुरूआत कांग्रेस के शासनों में हुई। समाजवादी ट्रेड यूनियनों को कुचलने के लिए उन्मादी, सांप्रदायिक अपराधी संगठनों को भी कांग्रेसी सत्ताओं की शह मिली। बातचीत में शुरूआत से ही कांग्रेस के भीतर भी फासिस्ट तत्वों के गठजोड़ों, आचार्य नरेंद्र देव जैसे निर्मल समाजवादियों से किनारा कर लेने जैसे प्रसंगों का जिक्र किया गया है। अफसोस जाहिर किया गया है कि आज़ादी की लड़ाई के दौर के सांप्रदायिक नेताओं और गिरोहों के कपटों, अंग्रेजों और तानाशाहों से उनकी साँठ-गांठ, उनके विरोधाभासों, तंगदिली और छद्म के बारे में जो विपुल सामग्री थी, लोकतन्त्र के पैरोकारों ने उन्हें पढ़ने-समझने और जन-जन को आगाह करने की जहमत नहीं उठाई। बंकिम चंद्र के उपन्यास ‘आनंदमठ’ में निहित सांप्रदायिक और अंग्रेज़-सेवक दृष्टि और गोडसे के महिमा-मंडन वाले साहित्य का भी जिक्र किया गया है। शम्सुल इस्लाम तथाकथित उदार नागरिक समाज की काहिल आत्म-मुग्धता और ‘गो इजी’ प्रवृत्ति पर प्रहार करते हैं जिन्होंने किताबों, दस्तावेजों, इतिहास का गंभीर अध्ययन नहीं किया; सच को प्रतिष्ठित और झूठ को तार-तार नहीं किया; झूठ को फैलने, रिसने दिया – जिसकी वजह से आज के हालात सामने आए हैं।
अपने लेख में प्रफुल्ल कोलख्यान जब 1215 में मैग्ना कार्टा से बीसवीं सदी के लोकतन्त्र की यात्रा का जिक्र करते हैं तो (लेख में उल्लिखित नहीं है) रोचक लेकिन चेतावनी भरे ‘टेक-अवे’ या निष्कर्ष मिलते हैं। हमें बिना पढ़े-गुने बन गए निष्कर्षों में ज़िंदगी गुज़ार लेने की आदत है। मसलन, यह मान लेना कि आधुनिक लोकतन्त्र, उससे जुड़े मूल्य, संस्थाएं यूरोप-अमेरिका में सदियों पहले थीं और हम उनसे सदियों पीछे रहे। अगर तथ्यों को पढ़-समझ कर गौर करें तो लोकतन्त्र का आधुनिक रूप, स्त्रियों को वास्तविक मताधिकार जैसी तमाम नेमतें पश्चिम को भी बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशकों में ही मिल पाई थीं। सलाम कीजिए इस देश के लोकतान्त्रिक नेताओं की पहली पीढ़ी को, कि जाति-लिंग-वर्ण-संप्रदाय की समानता वाला परिपक्र्व, आधुनिक लोकतन्त्र हमें ‘सभ्य’ पश्चिम से शायद दो दशक बाद ही हासिल हो गया – वह भी जात-धर्म-कुप्रथाओं, अशिक्षा और सामंती शोषण के अभिशापों में जी रहे उस नव-स्वतंत्र देश को, जिसके बर्बाद हो जाने की भविष्यवाणी चर्चिल कर रहे थे। लोकतन्त्र के सिरमौर अमेरिका में नस्ल-वर्ण की समानता के लिए मार्टिन लूथर किंग जूनियर को 1960 के दशक में शहादत देनी पड़ी थी। पश्चिम को अनेक पीढ़ियों के संघर्षों, बलिदानों और विकसित समझ के साथ जो मिला, वह न्याय और समता-मूलक कानूनों, श्रम तथा कामकाज के अधिकारों और गरिमा वाला लोकतन्त्र भारत की संविधान सभा के करीब तीन सौ सुशिक्षित, विवेकशील, मानवीय करुणा से सम्पन्न स्त्री-पुरुषों ने भारत के लोगों को महज तीन साल के अंदर अर्पित कर दिया। अगले पच्चीस वर्षों में, हमारे ‘विज़नरी’ नेतृत्व ने इसी लोकतंत्र के चारों खंभों को जीवंत और पुख्ता बना दिया, हर क्षेत्र में संस्थाएं खड़ी कर दीं, नज़ीर (प्रीसीडेंट्स) तय कर दिए। ‘हम भारत के लोगों का’ यह अनुपम सौभाग्य था।
लेकिन दूसरा ‘टेक-अवे’ या निष्कर्ष चिंताजनक है। यह बताता है कि सदियों-सहस्राब्दियों के मानव इतिहास में लोकतन्त्र का बिरवा बहुत नाज़ुक, बहुत छोटा है। पश्चिम में ज्यादा से ज्यादा दो सौ साल पहले और अपने देश में यह पौध 75 साल पुरानी है। अक्सर हम अपने ही दौर में नज़र आ रही सीमित दृष्टि, श्रुति और स्मृति के आधार पर चीजों का आकलन करने लग जाते हैं और निष्कर्ष निकाल लेते हैं। ऐसी ही अल्पकालीन समझ से हम लोकतन्त्र, सामान्य विवेक और बुनियादी मानवीय भलमनसाहत को ‘डिफॉल्ट सेटिंग’ और इनके अभाव को विचलन या अपवाद मान कर तसल्ली से बैठे रहते हैं। इतिहास की सहस्राब्दियों के अंधेरों-उजालों, यहाँ तक कि ‘मैग्ना कार्टा’ से अब तक के महज आठ सौ साल के उतार-चढ़ावों को अगर हम देखें तो हमें लोकतन्त्र की बेल बेहद नाज़ुक लगती है। हम इत्मीनान से नहीं बैठ सकते क्योंकि हिटलर-मुसोलिनी ज्यादा पुराने नहीं हैं। अगर वे फिर आएंगे तो नए वेश-भंगिमा और मुहावरे के साथ आएंगे, क्योंकि इतिहास समान रूप में अपने को नहीं दोहराता है। लोकतन्त्र अब तक की सबसे शानदार व्यवस्था है, लेकिन वह इतिहास का बहुत नन्हा हिस्सा है – उस पर खतरा हमेशा बना हुआ है।
दोनों संपादकों ने अपने लेख में पूरी दुनिया में फैल रहे दक्षिणपंथी रुझान, उन्माद और असहिष्णुता का विवरण दिया है। कॉर्पोरेट स्वार्थ कैसे लोकतान्त्रिक मानवीयता को नष्ट कर रहे हैं, इसका उल्लेख है। सरकार के पक्षधर बिबेक देबरॉय के संविधान के ‘पुराने पड़ जाने और व्यक्ति-समाज की गरिमा की बजाय आर्थिक समृद्धि के सतही (क्रोनी) कॉर्पोरेट तर्क के खतरों को भी वे उजागर करते हैं।
वयोवृद्ध जनपक्षीय अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा से बातचीत में, संपादकों ने कहा है कि ‘उदारीकरण’ में ‘उदारता’ नहीं है, ‘कट्टरता’ है। यह शब्द-चिंतन महत्वपूर्ण है। पारिभाषिक, किसी विचार को बताने वाले शब्द ‘वैल्यू-न्यूट्रल’ होने चाहिए ताकि उनसे जुड़ी बातों में ये शब्द हमें पहले ही किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष से दूर न ले जाएँ। ‘उदारीकरण’ और अंग्रेजी का ‘लिब्रलाइजेशन जिन स्वार्थों के भी (या अनजाने, असावधानी में भी) गढ़े ऐसे शब्द हैं, जो ‘वैल्यू-न्यूट्रल’ तो हैं ही नहीं, उल्टे एकदम विपरीत अर्थ के हैं। कवि ‘धूमिल’ की कविता में जैसे कहा गया है कि अपने देश का समाजवाद उस (आग बुझाने के लिए रखी) बाल्टी की तरह है, जिसमें आग लिखा है पर उसमें रेत और पानी भरा है। आज का उदारीकरण दरअसल क्रूर, अमानवीय और अनैतिक कॉर्पोरेटीकरण के करीब है और गलत शब्द के इस्तेमाल से हमारा विश्लेषण भटक जाता है या कुंद हो जाता है। शब्दों के निर्माण और दूसरी भाषा के शब्दों के अनुवाद में हमें बहुत सजग होना चाहिए। कई बार लाल बुझक्कड़ सत्ताधीश भी, सर्वज्ञानी होने की हनक में अपने गढ़े असंवेदनशील शब्दों को ‘दिव्य’ घोषित कर देते हैं। भाषा गढ़ने का काम, पूरी विनम्रता से भाषा और विषय के मर्मज्ञों पर छोड़ देना चाहिए। हमें सजग रहना होगा कि उदारीकरण जैसे शब्द कहीं हमारे विश्लेषण को गलत दिशा न दे दें।
इस लेख और कुछ अन्य लेखों में, कम प्रोफेशनल तरीके से अंग्रेजी से अनूदित और बोझिल शब्दावली नजर आई। इससे प्रवाह में बाधा आती है। ‘जम्हूरियत का मुस्तकबिल’ जैसा शीर्षक (शायद यह लेख अनूदित है) अस्वाभाविक लगता है – राजभाषा के अनुवादकों के घनघोर अनुवादों के उत्साही ‘रिवर्स गीयर’ जैसा।
इस किताब के हर लेख में लोकतन्त्र के विविध पक्षों का जो गहन, बहुआयामी विश्लेषण , वह हमें ज्यादा शिक्षित और समृद्ध बनाता है। हर लेख पर चर्चा कर पाने की गुंजाइश नहीं होने के मद्देनजर, कुछ मुद्दों की बात करके बड़ी तस्वीर का जायजा लिया जा सकता है।
प्रफुल्ल कोलख्यान भारतीय संदर्भ में पूंजीवाद, कॉर्पोरेट लोकतन्त्र, समाजवाद, आंबेडकर के चिंतन और फासिस्ट खतरों को अपने लेख में समेटते हैं। चिन्मय मिश्र गांधी के लोकतन्त्र के मर्म, अभय और जन के प्रति करुणा जैसे मूल्यों का चर्चा करते हैं। सुजाता चौधरी ‘अगर गांधी न होते’ की परिकल्पना के जरिए गांधी के अवदान को गहनता से प्रस्तुत करती हैं। अरविंद मोहन बताते हैं कि बाज़ार लोकतंत्र-विरोधी, रूढ़िवादी परम्पराओं से तुरंत गठजोड़ करता है और उसकी व्याप्ति में मीडिया मैनेजमेंट की हिस्सेदारी है। लोकतन्त्र का नाम लेकर बाज़ार और निजीकरण की जनविरोधी प्रवृत्तियाँ प्रबल हो रही हैं। अनिल सिन्हा आरएसएस और हिंदुत्ववादी ताकतों के चिंताजनक प्रभाव को दर्ज करते हैं। लाल बहादुर वर्मा ने बहुजन समाज पार्टी के उत्थान और पतन का विश्लेषण करते हुए दलित-वंचित नेतृत्व के विरोधाभासों और त्रासदियों के प्रति सतर्क किया है। एच एल दुसाध मानते हैं कि शक्ति के स्रोतों में विविधता सामाजिक लोकतन्त्र के चलने के लिए ज़रूरी है। अरुण तिवारी ने पंचायती स्तर पर बुनियादी लोकतन्त्र की चुनौतियों की चर्चा की है। कमल नयन काबरा कॉर्पोरेट पूंजीवाद से लोकतांत्रिक समानता को होने वाले खतरों से सावधान करते हैं। जयशंकर पाण्डेय लोहिया-जयप्रकाश के योगदान के जरिए नागरिक स्वतन्त्रता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। ए के अरुण मीडिया के निस्तेज और लोभी चरित्र को उजागर करते हैं। सुप्रिया पाठक महत्वपूर्ण बात करती हैं कि स्त्री का अभय होना लोकतन्त्र की कसौटी है। मनोहर नायक के लेख में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ताकतों के प्रबल होने की चिंताएँ हैं। रमाशंकर सिंह आम जन की आंबेडकर और संविधान के प्रति चेतना को रेखांकित करते हैं। प्रभात कुमार राय चेतावनी देते हैं कि अगर समाजवादी, लोकतान्त्रिक ताकतें आगे न आईं तो निरंकुश, धर्मांध फ़ासिज़्म का खतरा है। समान नागरिक संहिता के विचार को आजकल साजिशन हवा दी जा रही है। गहन और प्रवाहपूर्ण विश्लेषण करते हुए अरुण कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि ऐसी संहिता की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए भी, सजग रहना होगा कि समान नागरिक संहिता धर्मनिरपेक्ष समाज बनाने का तरीका नहीं, उसका लक्षण है। यह राह (वैमनस्य को हवा देकर नहीं), सामाजिक, राजनीतिक समरसता से शुरू होगी।
भारत की सजग, संवेदनशील संविधान सभा में कितनी गहराई और विवेक के साथ हमारे पुरखों ने संविधान के एक-एक शब्द और धारणा पर चर्चा की, सचिन कुमार जैन के प्रेरक लेख पर विशेष फोकस करना चाहूँगा। खास तौर से निर्वाचन आयोग के गठन और इसकी निष्पक्षता तथा स्वायत्तता सुनिश्चित करने के बारे में हुई चर्चा उन संविधान-निर्माताओं के प्रति हमें कृतज्ञ बनाती है। निर्वाचन आयोग के पिछले कुछ सालों के कृत्यों को देखते हुए यह चर्चा और भी प्रासंगिक हो जाती है। संविधान सभा की इस चर्चा में बेहद प्रभावी और सतर्क हस्तक्षेप जिन सदस्य का रहा, उनका नाम था शिब्बन लाल सक्सेना। उत्सुकतावश मैंने उनके बारे में जानकारी जुटाई। वह कुशाग्र विद्यार्थी थे, गणित के प्रोफेसर थे। गांधी जी के आंदोलन में उन्होंने सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वह भारतीय राजनीति और पत्रकारिता के मनीषी गणेश शंकर विद्यार्थी के शिष्य रहे। वह निडर, निस्वार्थ किसान-मजदूर नेता थे और ‘महाराजगंज के मसीहा’ कहे जाते थे। आज़ादी के बाद कांग्रेस से, और कांग्रेस छोड़ कर भी तीन बार सांसद रहे। 13 साल जेलों में रहे, भारत की आज़ादी के बाद भी, 1950 में नेपाल के जन-आंदोलन में गोली खाई।
यहाँ फिर से लोकतन्त्र की व्याधि की उसी नब्ज को पकड़ना वाजिब लग रहा है कि अगर हम अपने स्वतन्त्रता आंदोलन, उसकी प्रवृत्तियों, उसके नायकों, खलनायकों और चरण-पोषकों के बारे में गहनता से नहीं जानेंगे और जन-जन तक यह चेतना नहीं पंहुचाएंगे, तो फिर तंगदिल और लंपट लोगों के हाथों लोकतन्त्र की बरबादी के लिए तैयार रहना चाहिए। हम सबका निश्चय ही यह व्यावहारिक अनुभव होगा कि ‘गोडसे विचार’ का कोई भी रंगरूट घंटों अपने झूठों और अर्ध-सत्यों के साथ उत्साह से बोल सकता है और बोलता भी है। लेकिन क्या कथित उदार, वाम-अभिमुख मध्यमार्गी सेक्युलर दलों से लाभान्वित मित्र उदार, समावेशी लोकतन्त्र और इसके गांधी-नेहरू-पटेल जैसे महानायकों का सुपठित पक्ष लोगों के सामने रख पाते हैं? ऐसे ही मध्यमार्गी दल में जीवन भर मलाई खाए, और अवसर न मिलने के कारण अब भी वहीं टिके, एक परिचित के सामने जब मैंने यह कसौटी रखी तो वह निर्लज्ज मुस्कराहट के साथ ‘पाकिस्तान को दिए गए करोड़ों रुपयों, नेहरू जी की महिला मित्रों और आज़ादी के बाद कश्मीर हारने’ के किस्सों की ही ‘राजनीतिक चर्चा’ कर सके। गांधी-नेहरू से लेकर शिब्बन लाल सक्सेना को समझने और समझा पाने का बेंचमार्क तो बहुत से कथित उदार-मध्यमार्गी जनों के लिए मुश्किल हो जाएगा! लेकिन सच मानिए – लोकतन्त्र को बचाने और जन के प्रति संवेदनशील समाज बनाने के बेंचमार्क तो ऐसे ही होंगे।
कहा गया है कि इस किताब के जरिए मीडिया और अकादमिक जगत से गायब किए जा चुके लोकतान्त्रिक विमर्श को जगाने की कोशिश की गई है। निर्भय-प्रखर मीडियाकर्मी रवीश कुमार इस किताब की भूमिका में 20वीं सदी में परिपक्व हुई संस्थाओं के दरकने के प्रति, संविधान के खिलाफ की जा रही उद्दंडताओं के प्रति आगाह करते हैं।
मेरा तो हासिल यही है कि अपनी और आगे की पीढ़ियों के लिए लोकतन्त्र को बचा पाने की राह यही है कि हमें लोकतंत्र के काबिल बनना होगा। उसकी कसौटी यही है कि इस किताब जैसे विस्तृत विमर्श को समझने और समझा पाने की काबिलियत लानी होगी, मेहनत करनी होगी। इसके बेंचमार्क ऊंचे ही होंगे – गांधी-नेहरू-पटेल से गणेश शंकर विद्यार्थी और शिब्बन लाल सक्सेना को समझने और समझा पाने तक।