प्रदीप पाण्डे
‘मेरा ओलियागांव ’
अतीत की यादें ही रह जाती हैं और अपनी किताब ‘मेरा ओलियागांव ’ के माध्यम से हिंदी के ख्यातनाम साहित्यकार शेखर जोशी ने अपनी यादें सांझा की है ,उनकी यादें पहाड़ के गांवों की वह तस्वीर हमारे सामने लाती है जो अब काफी हद तक धूमिल होने लगी है पहाड़ के गांवों के लिए आज एक नया टर्म ईजाद हुआ है भूतिया गांव(ghost village) मगर ये दास्तान तब की है जब ये गांव जीवंत थे जब यहां बच्चों की किलकारियां गूंजती थी,महिलाओं के मंगलगीत की लहरियां लहराती जब तलाऊं की खेती हो या उपराऊं की चप्पा चप्पा आबाद था,साल की तीन चार फसलें ली जाती तमाम झगड़ों , सौल कठोल और अनबन ,मनमुटावों के बीच गांव की हर चीज सांझा होती इसलिए किसी के घर के सदस्य एक दो भी होते तो उसकी खेतीबाड़ी भी चल जाती शादी नामकरण हो या गमीं, गांव का हर वाशिंदा कार्य संपन्न कराने में अपनी हिस्सेदारी निभाता था.
जोशी जी ने जो साहित्य लिखा वह शब्दों के आडंबर से दूर रहा इसी की झलक उनकी इस ताजा किताब में भी मिलती है मेरा ओलियागांव इसी कारण पाठक को भीतर तक स्पर्श करता है और जिस तरह एक मां लोरी गाते ,थपकी दे दे कर सुलाती है और बच्चा सपनों की दुनिया में चला जाता है उसी तरह यह किताब आपको आपके अतीत में,आपके गांव में ले चलती है,
हम महसूस करते हैं धान की रोपाई को और रोपाई करती महिलाओं की थकन को, वन से चारा लकड़ी ला कर लौट रही महिलाओं की पदचापों को, अपने गांव के मेलों को मेले में बिकने वाली लाल रस टपकाती जलेबियों को,राम लीलाओं को जिसे देखने कोसों दूर से तब लोग आया करते थे,तिब्बत से व्यापार कर अपनी वस्तुओं के साथ ओलिया गांव पहुंचे सीमांत के’ हुनियों’ की जो अपने लंबे चुटियानुमा बालों और लंबे चोगे के कारण बच्चों में डर और विस्मय एक साथ जगाते थे और बालक शेखर एक बार लाख कोशिश कर भी ऐसे एक हुनिया से बच नहीं पाए और उसने इनके गालों को प्यार से स्पर्श किया तो इनका भरम जाता रहा कि हुनिए खौफनाक होते हैं
महिला शिक्षा की तब की शोचनीय स्थिति पर भी कुछ संस्मरण जोशी जी हमसे सांझा करते हैं आकाशवाणी में अधिकारी उनके एक बिरादर का विवाह संगीत में निपुण एक सुशील कन्या से हुआ विवाह के बाद एक दिन वे साहब अपनी पत्नी को आकाशवाणी केंद्र ले जा रहे थे तो उनके पिताजी को इसकी भनक लग गई उन्होंने बहू को साथ ले जाने का कारण पूछा तो भाई ने बताया कि वह उसे स्वर परीक्षा के उद्देश्य से ले जा रहा है तो उनके रिटायर्ड वन अधिकारी पिता बाघ की तरह गुर्राए”तो अब हमारे घर में मुजरा होगा” कुछ और ऐसी यादें वे बताते हैं जब गुणवान लड़कियां अपनी विलक्षण प्रतिभा का विकास पाने के बजाय छोटी उमर में ही ब्याह दी जाती
इस किताब में पहाड़ी समाज में साल में होने वाले बीसियों पर्वों त्योहारों का वर्णन मिलता है कि किस तरह इन त्योहारों की तैयारी करते करते बच्चे युवक युवतियां दशहरे का पट्टा बनाना उसमें रंग भरना, जन्माष्टमी का पट्टा बनाना,खूबसूरत डिकारे बनाना,होली के रंग बनाना,कढ़ाई बुनाई करना ,ओखल कूटना लकड़ी काटना जैसे तमाम कार्य चाहे अनचाहे सायास या अनायास एक कर्मठ और जिम्मेदार गृहस्थ बनने की ओर दीक्षित होते।
बचपन के उनके संमरणों में किसानों के पशुओं को खा जाने वाले बाघ भी मिलते है तो रानीखेत से आकर उनको मारने वाले शिकारी भी, फलों को चोर खाने वाले शरारती बच्चे या बड़े भी , बच्चे जो स्कूल से लौटते वक्त पेड़ों की शाखाओं में झूलते हैं,चिड़ियों के घोंसलों को तलाश कर निहारते हैं ,इन संस्मरणों में आजादी की जंग लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी की झलक मिलती है और द्वितीय विश्व युद्ध के मोर्चे पर जा रहे पहाड़ी सैनिकों की भी ,जिनको बिठा कर केएमओयू की गाड़ी जैसे ही आगे बढ़ती है उनको विदा करने आई माताओं और बहनों की सिसकियां दिल को बींधने वाली रुलाई में बदल जाती हैं क्योंकि इनमें से अधिकांश लौट कर नहीं आए
जोशी जी के संस्मरण मुख्यतः उस कालखंड के है जब अल्मोड़ा कौसानी रोड पर दिन भर में एक गाड़ी चलती थी,जब रेडियो सर्व सुलभ नहीं थे ,अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाला अखबार “शक्ति” ही एकमात्र साधन था बाहरी दुनिया से जोड़ने का यह अखबार भी कुछ लोगों के ही पास आता था ,घड़ियां दुर्लभ थी और सूरज की रोशनी किस पेड़ या पहाड़ पर कितनी पड़ी है इससे स्कूली बच्चे समय का अंदाजा लगाते ,आज शहरों में रहने वाले हम समझ नहीं सकते कि कृषक समाज में लोग अपने मवेशियों से तो संवाद करते ही थे साथ ही आसपास और दूर नजर आने वाला हर पहाड़,पेड़, गधेरा,टीला, नौला हर किसी से आत्मीय संबध होता जो नागर सभ्यता में चाह कर भी संभव नहीं है ठीक उसी तरह जिस तरह गांव में कोई भी बुजुर्ग यदि यह महसूस करता कि कोई बच्चा (चाहे गांव में जिसका हो) गलत कर रहा है तो वह उस बच्चे को डांटने के साथ चपतियाने का जन्मसिद्ध अधिकार रखता था ये सब हमें ’मेरा ओलियागांव ’में दीखता है
शेखर जोशी के संस्मरण गांवों की सिर्फ रूपहली तस्वीर नहीं लाती बल्कि बताती है कि उच्च कुलीन सवर्ण ब्राह्मणों द्वारा दलितों को तो नीचा समझा ही गया साथ ही उन ब्राह्मणों को भी निम्न माना जो श्रमसाधक थे अपने खेत खुद जोतते थे कर्मठ थे श्रम के प्रति यही तिरस्कार भाव कालांतर में गांवों के स्थायीत्व के लिए घातक सिद्ध हुआ और हमारे गांव वीराने होते गए
इस किताब को जरूर पढ़ा जाना चाहिए क्यों यह एक संस्मरणात्मक लेखन ही नहीं सांस्कृतिक दस्तावेज़ भी है हालांकि लेखक ऐसा दावा नहीं करते वे तो सिर्फ इतना लिखते हैं”यदि आप सोचते हैं कि आप उम्र से ही नहीं ,मानसिक रूप से भी वयस्क हो गए हैं तो भी आप इसे पढ़ें क्योंकि वह बच्चा अभी भी आपके अंदर पालथी मारे बैठा है जिसे आप पीछे छोड़ आए थे।”
दीवार पर पीपल
समाचार डैस्क
सरसय्या के दोहरे ज्यों नावक के तीर / देखन में छोटे लगें और घाव करें गम्भीर बिहारी जी का यह दोहा हालांकि छोटी कविताओं के लिये टिप्पणी के रुप में नहीं लिखा गया है , पर छोटी कविताओं के लिये यह सटीक टिप्पणी है। ‘दीवार पर पीपल ‘ भी ऐसी ही एक किताब है जिसमें कई छोटी – छोटी कविताओं के खजाने रखे हुए हैं। इन सुन्दर कविताओं के लेखक हैं चन्द्रशेखर जोशी । जोशी जी कवि नहीं पेशे से डाक्टर हैं और लगता है इलाज करते करते बीमारियों की जड़ तक पहुंच गए , जिन्हें उन्होंने कविताओं के रूप में लिख दिया है। जैसे –
मेरे कस्बे का / आखिरी बचा मुर्गा /
मन मसोसता है / रह रह कर सोचाता है /
अगर / उसके साथी / सवेरे सवेरे / पूजा स्थलों की बॉग से /
ऊँची बाँग दे पाते /शायद बच जाते
या फिर
शीर्षक खबरें की ये कविता
कभी ठन्डी /कभी गरम / कभी गीली कभी नरम /
सिर्फ मौसम की मोहताज / खबरें हवा हैं / कुंठित मानव की /
सवेरे सवेरे की / पहली दवा है ।
डाक्टर जोशी की कविता दवा की गोलियों की तरह बहुत छोटी छोटी हैं । लेकिन दवा असरदार है । डा० चन्द्रशेखर जोशी अपनी ‘विनती ‘ कविता में लिखते हैं – तुम अति बलवान / हो भगवान / किसी / गरीब के घर / होते प्रकट / तो गहरी होती / आपसे पहचान । इस पुस्तक में जात – पात पर बहुत ही जबरदस्त वक्तव्य, कविता के रुप में मौजूद है। ‘शहर और गाँव ‘ में यह बात कितनी खूबसूरती से कही गई है।
लाख बुराइयाँ हों / शहरों में / पर वह / केवल / काम पूछता है / कोई और बात नहीं पूछता / शुक्र है / जो लिख दी है गाँव ने / मेरे माथे पर / सदियों से / मुझसे मेरी / वह जात नहीं पूछता । विभिन्न विषयों पर लिखी गईं इन छोटी छोटी कविताओं में एकरसता तो कतई नहीं है , पर वो तीर की तरह किसी ओर इंगित जरूर करती हैं।
पेंशन – पेंशन से / कोई बुढ़िया / कब तक पली / हाँ / कह सकते हो / कुछ मौतें / कुछ बरस और / टलीं।
समय साक्ष प्रकाशन से प्रकाशित ‘दीवार पर पीपल’ का मूल्य 125/- है । विभिन्न पुस्तक विक्रेताओं के अतिरिक्त यह समय साक्ष, देहरादून से भी प्राप्त की जा सकती है।