उत्तराखंड में मुक्तेश्वर से तकरीबन 15 किमी पहले स्थित एक गांव कोकिलबना के एक घर पर गांव वालों को अचानक अडानी के नाम का एक बोर्ड दिखता है। भला पहाड़ के इस इंटीरियर गांव से अडानी का क्या रिश्ता हो सकता है। यह किसी के लिए समझ पाना मुश्किल हो रहा था। अडानी वह शख्स जो एशिया का दूसरा पूंजीपति है। उसका इस छोटे से गांव से क्या लेना देना होगा। अभी इसके बारे में लोग सोच ही रहे थे कि तभी एक शख्स जिसने खुद को कंपनी का एमडी बताया और तनख्वाह डेढ़ लाख रुपये, सामने प्रकट हो गया। वैसे आमतौर पर कोई कंपनी या फिर उसका नुमांइदा इस तरह से अपने वेतन का प्रचार नहीं करता है। लेकिन अडानी कंपनी के कथित एमडी मनोज नैनवाल बार-बार गांव वालों और अपने सहकर्मियों के बीच अपने वेतन की घोषणा कर रहे थे।
अब कंपनी है तो उसके मुलाजिम भी होंगे। लिहाजा नैनवाल कुछ किशोर-वय उम्र के लोगों को अपने साथ ले आये थे और गांव के ही कुछ लोगों की 10 हजार रुपये प्रति महीने पर नियुक्ति कर ली थी। हालांकि यह सब कुछ मुंहजबानी था। न तो उन्हें किसी तरह का नियुक्ति पत्र दिया गया था और न ही कोई कागजी दस्तावेज। इस तरह से उन्होंने तकरीबन 20 कर्मचारियों की टीम तैयार कर ली। जिनमें ज्यादातर लड़कियां थीं। अब इन सभी को सर्वे के काम में लगा दिया गया। इन्हीं में से एक विमला पांडेय ने बताया कि “हमारा काम लोगों के घरों में जाकर उनकी जमीन, फसलें और आय से लेकर उससे संबंधित तमाम तरह की जानकारियां हासिल करना था।” इस तरह से इस सर्वे से कंपनी और उसके कर्ताधर्ताओं को गांव के लोगों के बारे में पूरी जानकारी मिल गयी। अब शुरू हुआ कंपनी का असली खेल। नैनवाल सीधे किसानों से मिलते और उनसे उनकी आय को दुगुना करने का वादा करते। साथ ही इस सिलसिले को आगे बढ़ाने के लिए एक करार की शर्त रखते थे।
आगे बढ़ने से पहले यहां यह बता देना बेहतर होगा कि गांव में पहले परंपरागत खेती होती थी। लेकिन अब यहां किसानों का मुख्य जोर फलों के उत्पादन पर है। चूंकि इलाका पहाड़ी है और यहां ठंड पड़ती है और सर्दी के तो दिनों में बड़े स्तर पर बर्फबारी होती है। लिहाजा यहां सेव से लेकर आड़ू और नाशपाती से लेकर किस्म-किस्म के फल होते हैं। हां उसके साथ यह बात भी सही है कि किसानों को इसका वाजिब दाम नहीं मिल पाता है। काठगोदाम की मंडी में उन्हें इसको औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ऐसे में अगर कोई दाम को बढ़ाने या फिर आय को दुगुनी करने का सपना दिखाता है तो उसके खरीदारों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक है।
अपनी खेती में कंपनी की मदद से फायदे की उम्मीद देखकर लोग भी उसके लिए तैयार होना शुरू हो गए। काम की शुरुआत परीक्षण के लिए किसान के खेतों की मिट्टी को एकत्रित करने से हुई। इसके लिए तमाम कर्मचारियों को इस काम में लगा दिया गया। वो किसानों के खेतों से मिट्टी लेते और उसे कंपनी के दफ्तर पर रख जाते। माहौल इस तरह से बनाया गया जैसे खेती को पूरे वैज्ञानिक तरीके से अंजाम दिया जाएगा। जिसमें पहले मृदा परीक्षण होगा और फिर उसके अनुकूल फसलों को बोने और उनसे अन्न उत्पादन पर फैसला लिया जाएगा। इस तरह से पूरे गांव में कंपनी की हवा बन गयी।
यह काम पहले सर्वे के जरिये हुआ और फिर मृदा परीक्षण के लिए जुटाई गयी खेतों की मिट्टी से। इस माहौल को परवान पर ले जाने के लिए नैनवाल ने दो-तीन काम और किए। जिसमें पहाड़ से नीचे स्थित एक मैदानी क्षेत्र में गड्ढा खुदवाकर वहां पानी के लिए टैंक बनाने की कवायद शुरू कर दी गयी। दिलचस्प बात यह है कि इस गड्ढे को खोदने के लिए अलग से मजदूर नहीं लगाए गए। बल्कि इस काम में उन्हीं कर्मचारियों को लगा दिया गया जिन्हें कंप्यूटर चलाने समेत दूसरे दिमागी काम के लिए हायर किया गया था। यहां तक कि लड़कियों तक को नहीं बख्शा गया। और उनके हाथ में कुदाल और फावड़ा पकड़ा कर उन्हें गड्ढा खोदने के लिए उतार दिया गया। लड़कियों के एतराज जताने और सवाल करने पर उनसे कहा गया कि यह कर्मचारियों की ट्रेनिंग का पार्ट है। और इससे न केवल दक्षता बढ़ती है बल्कि नई कार्य संस्कृति भी विकसित होती है जो कंपनी और कर्मचारियों दोनों के लिए बेहद फायदेमंद होती है।
किसानों में अपने विश्वास को और पुख्ता करने के लिहाज से दफ्तर के बाहर स्थित लान में मुर्गी पालन के साथ ही एल्युमिनियम के घेरे में एक पानी के टैंक की व्यवस्था कर दी गयी। और इन सभी कामों में वेतन पर रखे गए कर्मचारियों को ही मजदूरों की तरह इस्तेमाल किया गया।
इतना सब होने के बाद गांव के लोगों का भी भरोसा जमने लगा और लोग बारी-बारी से कंपनी के साथ करार करने के लिए तैयार होने लगे। पीतांबर पांडेय (52 वर्ष) ने पहले 523 रुपये देकर फार्म भरा। और फिर बीमा कराया जिसके एवज में उन्होंने 15 हजार रुपये दिए। इसके साथ ही उन्होंने अपने खेत की खतौनी भी कंपनी के हवाले कर दी। आपको बता दें कि खतौनी ही वह दस्तावेज होता है जिस पर किसी किसान के खेतों का मालिकाना दर्ज होता है। और पुश्त दर पुश्त यह मालिकाना हस्तांतरित होता रहता है। लाख संकटों में भी किसान इसे सहेज कर रखता है। कई बार जब बैंकों से किसान को कर्ज लेना होता है तो उसके एवज में गिरवी के तौर पर वह जमीन के इन्हीं कागजों को रखता है। लेकिन यहां एक कंपनी आती है और किसानों को कुछ नहीं देती। बीमा के एवज में पैसे भी लेती है और उसके साथ ही उनकी खतौनी भी रख लेती है।
खतौनी देने वाले पीतांबर पांडेय अकेले नहीं हैं। गांव के ही रहने वाले नवीन पांडेय के साथ भी यही कहानी दोहरायी जाती है। पहले उनसे 523 रुपये का फार्म भरवाया जाता है। फिर आलू, मटर और आड़ू की फसलों के बीमे कराये जाते हैं। जिसमें उनसे 10 हजार रुपये लिए जाते हैं।
59 वर्षीय कैलाश पांडेय ने फार्म भरा और बीमा के नाम पर उन्होंने कंपनी या फिर कहिए नैनवाल को 15 हजार रुपये सौंप दिए।
इस झांसे में तीन भाई एक साथ आये। 45 वर्षीय महेश पांडेय ने सेव, आलू और मटर की बीमा की एवज में नैनवाल को 14524 रुपये दिए। उनके 32 वर्षीय दूसरे भाई शंकर पांडेय ने आलू और मटर के बदले 10500 दिए। तीसरे भाई महेंद्र पांडेय ने इसी तरह से कंपनी को 10500 रुपये सौंपे।
यहां तक कि नैनवाल ने विधवा महिलाओं तक को नहीं छोड़ा। एक महिला जिसके पति की मौत हो गयी है और अपने बच्चों समेत बूढ़ी सास की देखभाल का भार उनके कंधों पर है। उससे भी नैनवाल ने फार्म के पैसे और डेढ़ हजार रुपये ले लिए।
लेकिन ऐसा नहीं है कि कंपनी सबको मूर्ख बना गयी। कुछ लोग ऐसे भी थे जो समय रहते चेत गए। उन्हीं में से एक हैं उमेश पांडेय। उन्होंने भी फार्म भरने के साथ ही अपनी खतौनी दे दी थी। लेकिन समय रहते ही उन्होंने दबाव बनाया और नैनवाल को उनको सब कुछ लौटाना पड़ा। जुट्टा नुमा लंबी चोटी धारण किए उमेश ने बताया कि “मैंने नैनवाल को घेरना शुरू कर दिया था। और उसके दफ्तर पर जाकर जमकर बवाल काटा। जिसका नतीजा यह रहा कि उसने मुझे मेरे फार्म के 523 रुपये और खतौनी दोनों वापस कर दी।”
इस तरह से ये कुछ नाम हैं जिन्होंने सामने आकर अपनी बातें कुबूल की हैं। लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिन्हें अपनी बदनामी का डर है। लिहाजा वो लोग अभी भी सामने आने से कतरा रहे हैं। गांव वालों की मानें तो 100 के आस-पास लोग होंगे जिनसे कंपनी ने इस तरह के करार किए हैं।
कंपनी का भांडा तब फूटा जब गांव के ही बाला जी जैसे लोगों, जो कभी मीडिया में रहते दिल्ली और दूसरे शहरों में काम कर चुके हैं, ने नैनवाल से तीखे सवाल पूछे और उसको उनका जवाब देते नहीं बना। आखिरी पर्दाफाश उस समय हुआ जब एक शख्स पूछ बैठा कि क्या वह सब कुछ हड़प कर भाग जाने की फिराक में नहीं है? दरअसल कहीं चूक से नैनवाल के मुंह से निकल गया था कि वह कुछ दिनों बाद सारा पैसा लेकर भाग जाएगा। इस बात को उस शख्स ने सुन ली थी और अब वही गांव वालों के सामने उससे सवाल कर रहा था। जब कई लोगों के सामने नैनवाल से उस शख्स ने यह सवाल पूछा तो नैनवाल के पास कोई जवाब नहीं था। और इस बात को स्वीकार करते ही उसकी पूरी साजिश और फ्राड का भांडा फूट गया। गांव वालों का कहना है कि अपने घेरे में लिए जाने और फिर पिटने की डर से नैनवाल उसी दिन गांव छोड़कर भाग गया।
इस ठगी के शिकार अकेले कोकिलबना के ही लोग नहीं है। पड़ोसी गांव दाड़िम में भी नैनवाल ने लोगों को मूर्ख बनाकर उन्हें जमकर लूटा। हालांकि लोगों के कितने रुपये गए इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। लेकिन अभी तक जो तस्वीर सामने आ रही है वह दसियों लाख से ऊपर की है। वैसे यह जांच का विषय है कि इन दोनों गांवों के अलावा नैनवाल ने क्या अन्य गांवों में भी इसी तरह की ठगी की है।
इस बीच यहां रहते नैनवाल ने सबको हर तरीके से लूटा। उसने किराये के दफ्तर वाले मकान मालिक को दो महीने का किराया नहीं दिया। 40 वर्षीय दीप कुमार जो डेयरी का काम करते हैं उनसे एक महीने रोजाना दूध लिया। और उनको एक पैसा नहीं दिया। गांव की जिन दो लड़कियों और एक महिला को कर्मचारी के तौर पर रखा था और उनको दस हजार रुपये प्रति माह के हिसाब से देने का वादा किया था उनको एक भी पैसे नहीं दिए। अलबत्ता उसने विमला पांडेय और जानकी पांडेय को एक कागज जरूर थमा दिया जिसमें उनके किए गए कामों के दिन और उनके मेहनताना का ब्योरा था।
दिलचस्प बात यह है कि इस कागज पर जो मुहर लगी थी उसमें कंपनी का नाम एडीएनईएस यानी एडनीस लिखा था। इस सिलसिले में जब इस कंपनी के कथित एमडी मनोज नैनवाल से बात हुई और यह पूछा गया कि आखिर उनका अडानी की कंपनी से क्या रिश्ता है? इस पर उन्होंने पहले कहा कि किसी समय उनको अडानी फाउंडेशन से पैसा मिला था। यह कहने पर कि उसका कागज भेज दीजिये या फिर उसकी कोई रिसीविंग हो तो ह्वाट्सएप कर दीजिए।
इस पर वह तुरंत पलट गए और फिर वह एक दूसरी कहानी बताने लगे। जिसमें उनका कहना था कि “कंपनी का नाम पहले हम लोगों ने अडानी के नाम से रजिस्टर कराना चाहा था। लेकिन हमें एडनीस नाम मिला।” और फिर कहने लगे कि जैसे टाटा टेरी हो जाता है कुछ उसी तरह से अडानी एडनीस हो गया है। अब इसके जरिये वो क्या समझाना चाह रहे थे यह तो वही जानें। लेकिन कंपनी संबंधित कोई भी कागज तुरंत भेजने के लिए वो तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि उनके पास स्टाफ का कोई सदस्य नहीं है। और इस समय (बात के समय) वो अपने पिता को लेकर एम्स, ऋषिकेश में हैं, जहां उनकी किडनी का इलाज चल रहा है।
बहरहाल इस घटना के बाद से गांव में बेहद रोष है। और मामला सामने आने के बाद पूरे इलाके में मुद्दा बन गया है। इलाके के पंचायत सदस्य ने भी इस मामले का संज्ञान लिया है और उन्होंने कथित एमडी नैनवाल से बात की है। उनकी मानें तो नैनवाल ने एक हफ्ते के भीतर सभी का पैसा लौटाने की बात कही है।
जनता की चौतरफा लूट चल रही है। कहीं सरकार इस काम में लगी हुई है तो कहीं कारपोरेट इसको अंजाम दे रहा है। और अब तो जमीनी स्तर पर छोटी-छोटी कंपनियां बनाकर तमाम फ्राड किस्म के लोगों ने भी इस काम को शुरू कर दिया है। इस तरह के लोगों के लिए संसद से पारित केंद्रीय कृषि कानून सबसे मुफीद हथियार बन रहा है। उत्तराखंड के इस गांव में हुए इस कांड को भी इसी के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए।
हिंदी वेब पत्रिका ‘जनचौक’ से साभार