बच्ची सिंह बिष्ट
हम करीब 70 प्रतिशत वन भूमि वाले राज्य हैं।जो शेष भूमि है, उसमें भी काफी अधिक भूमि विकास योजनाओं की भेंट चढ़ चुकी है।कभी 11 तो कभी 7 प्रतिशत कृषि भूमि बताई जाती है और उसका भी 11प्रतिशत ही सिंचित क्षेत्र है। पर्वतीय उत्तराखंड की खेती तो अधिक ढलान वाली, बिखरी और लोगों की पहुंच से बाहर है।मात्र एक एकड़ जमीन भी कहीं सात स्थानों पर है।यदि कोई उसे जोतना चाहे तो चार दिनों तक उसके साथ हल,बैल घूमते रहेंगे और उत्पादन इतना भी नहीं होगा कि वह अपने परिवार की छह महीने की जरूरतों को पूरा कर सके।
इसका उपाय हमारे लोगों ने पर्वतीय बागवानी के रूप में निकाला और आपसी तालमेल से काफी हिस्से को कुछ चैक की शक्ल दी।साथ ही जंगलों को सदाबहार बनाए रखा ताकि लकड़ी के अलावा चारा, पत्ती, खाद जैसी जरूरतें वहां से पूरी की जा सकें।पशुपालन भी साथ ही जुड़ता है। वैश्विक तापमान वृद्धि के दौर में लोगों को यह समझ आया कि हरेक पौध बचाकर रखनी है और गांव के गांव हरियाली से भर दिए गए। लेकिन इसके बदले में सरकारी नियम ऐसे बने कि लोग जमीनों को बेचने को मजबूर हुए , जिसके साथ ही प्राकृतिक जल भंडारों पर अति निर्माण शुरू हो गए और खेती बागवानी के साथ ही सभी जल श्रोत भी संकट में आने लगे। एक ऐसा पर्वतीय भूभाग जिसे कभी अंग्रेजों ने भी बड़े निर्माणों के लिए उपयुक्त नहीं समझा, महानगरों से आए नव धनाडयों ने सीमेंट और कंक्रीट से भर दिया। लोगों ने बागवानी के अलावा जंगली पौधों से पूरी जमीन ढंक रखी है, तभी कोई बड़ा भूस्खलन अभी तक सामने नहीं आया है।लेकिन अब ऐसे तमाम क्षेत्र लगातार खतरे की जद में आ चुके हैं जिनके ऊपरी क्षेत्रों में भारी निर्माणों का दबाव है।
ऐसी आबादी जो अपनी सीमित जरूरतों के साथ ही हरेक बर्ष पेड़, पौधे जरूर लगाती है, उसकी आजीविका और अब उसकी बसासत ही संकट में पड़ चुकी है।
पेड़ों, झाड़ियों समेत हरियाली को बचाने के बदले उसे कभी कुछ नहीं मिला, उल्टे यदि किसी ने अपने खेतों में चीड़ के विनाशक पेड़ों को काटने और उसके स्थान पर चौड़ी पत्ती के पौधे लगाने की कोशिश की तो वन विभाग की वैध या अवैध वसूली टीम घरों में आकर लोगों को धमकाने और वसूली करने का काम करने लगती है।
बांज जैसा पेड़ जल, जमीन को संरक्षित करने के साथ ही अपने परिवेश में ठंडक, नामी बनाए रखता है। साथ ही यह अच्छा चारा और शाश्वत ईंधन भी है। हजारों लाखों पेड़ स्थानीय रहवासियों ने खुद की निजी जमीनों पर उगाए और बचाए हैं साथ ही बांज, बुरांश, काफल, खर्सू जैसे बहुमूल्य वृक्ष प्रजातियों को अपनी वन पंचायतों में भी संरक्षित किया है।यह न एक व्यक्ति का काम है और न एक दिन का प्रयास…पीढ़ियों की मेहनत के बाद यह हरियाली बनी है।भूमि आच्छादित हुई है।यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि इसमें सरकार का योगदान कुछ नहीं है।
अब जब नया वन कानून कुछ खास बड़ी योजनाओं को बनाने के लिए भूमि और जंगलों पर अधिकार दे देगा तो लोगों की मेहनत का क्या मेहताना मिलेगा…
हिमाचल में 68प्रतिशत वन भूमि है।वहां आपदा ने 12000 घरों को नुकसान पहुंचाया है।लोग बेघर हैं।इसके पहले भी काफी परिवार बेघर हुए थे। अब वे अपना पुनर्वास मांग रहे हैं लेकिन वन कानून में लोगों के लिए घर बनाने की एक ही व्यवस्था है कि वे केंद्रीय वन एवम जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से घर बनाने के लिए भूमि मांगे …लोगों की मांग को सरकार निरस्त कर चुकी है। यह बेहद जटिल और महंगी कार्यवाही है, जिसमें लोगों को जमीन मिलना लगभग असम्भव ही है।ऐसे में पर्वतीय उत्तराखंड के लोगों को बहुत समझना है कि वे ठीक से अपने सामुहिक प्रयास करें।एक कि बचाए जा रहे जंगलों के बदले उनको सरकार मुआवजा या प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ दे और दूसरा पंचेश्वर महाकाली बांध जैसे बड़े प्रोजेक्ट से बेघर होने वाले लोगों को जमीन के बदले जमीन मिले।तीसरी जरूरी बात कि लगातार जलवायु में बदलाव आ रहा है।जोशीमठ जैसी जगह लगभग बर्बाद हो चुकी है और उसके निवासियों को स्थाई पुनर्वास चाहिए लेकिन वन कानून लोगों के साथ नहीं हैं।
हमने रामगढ़ की आपदा को झेला है।सैकड़ों घरों की नींव हिली है।कभी भी बरसात या भूकंप के झटके उन घरों को जमींदोज कर सकते हैं, ऐसी स्थिति में लोगों का पुनर्वास कहां होगा।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे अधिक ग्रामीण आबादी, खास कर गरीब, महिलाएं, साधन हीन लोग और प्रकृति के सहयोग से जीने वाली आबादी प्रभावित होती है।इसके प्रभावों से बचने के आंशिक उपायों में जल संचय और नदी, जलागम समृद्ध करना है लेकिन व्यापक रूप से बाढ़, भूस्खलन और भूकंप जैसी स्थितियों में बड़ी आबादी को उनके स्थानों से हटाना जरूरी हो जायेगा तब हमारे वन कानून हमारे साथ सहयोगी की भूमिका में न होकर हमारे विरोधी बनकर खड़े होंगे और लोगों को बेघर, बेबस बना देंगे। जल, जंगल, जमीन के साथ ही जन और जानवरों के बारे में, उससे संबंधित कानून और वर्तमान व्यवस्थाओं के बारे में अब अधिक सावधानी से जानकारी लेने के अलावा अपने हकों के बारे में बेहद सजग रहने की जरूरत है।
किसी अंग्रेजी और विदेशी स्कूल में पढ़े लिखे वनाधिकारी ने चार लाइनें कागज में खींची और हमको बताया कि यह जगह, जंगल, खेत अब कानूनन हमारे नहीं हैं, तब हम और हमारे लाखों लोग क्या करेंगे…अभी से इसे अपनी चर्चाओं और जानकारियों में लाना जरूरी है ताकि आने वाले संकटों का कोई वास्तविक समाधान खोजा जा सके…
फोटो इंटरनेट से साभार