प्रमोद साह
पर्यावरण का संकट 21वीं सदी में मानवता के लिए सबसे बड़ा संकट बनकर उभर रहा है. हालांकि पर्यावरण का यह संकट इससे पहले भी सभ्यताओं के आगे उनके अस्तित्व का सवाल खड़ा कर चुका है। हम जानते हैं कि हमारी सिंधु घाटी सभ्यता और मिस्र की नील घाटी सभ्यता तथा मेसोपोटामिया की दजला – फरात नदियों की सभ्यता जो कि ईसा पूर्व लगभग 3000 वर्ष पूर्व अपनी उच्चता के शिखर को प्राप्त कर चुके थी, जहां आज के समान ही मनुष्य नगरीय सभ्यता और सुविधाओं पर निर्भर हो गया था। वहां संसाधनों के अधिक दोहन ,वृक्षों के अधिक कटान के परिणाम स्वरूप प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा और बाढ़ आदि कारणों से यह विकसित सभ्यताएं नष्ट हो गई, पर्यावरण के महत्व का यह पहले सबक थे।
पर्यावरण से सभ्यता के विनाश के इस सबक को हमने शताब्दियों तक याद रखा ,विकास को प्रकृति के नियंत्रण में रखा लेकिन 19वी-20वी सदी से यह संतुलन फिर बिगड़ने लगा, तब विकास के कारण प्रकृति पर बढ़ रहे खतरों की चिंता करने के लिए 5 जून 1972 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पर्यावरण के सवालों पर विचार करने के लिए बुलाए सम्मेलन के उपरांत हम प्रतिवर्ष 5 जून 1974 से पर्यावरण की चिंता और चेतना के विकास के लिए इस दिन को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाते हैं।
1974 से आज तक पर्यावरण का संकट लगातार भयावह होता जा रहा है । अब सामान्य व्यक्ति को भी यह समझ में आने लगा है कि आने वाले दिनों में यह दुनिया तभी बचेगी जब हम इसके पर्यावरण की चिंता करेंगे और उसके संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाएंगे . वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के सवाल पर सरकारों के मध्य सहमति बनी है , इसमें 1992 में रियो पृथ्वी सम्मेलन और 2015 का पेरिस समझौता जिसे 196 देशों ने स्वीकार किया महत्वपूर्ण है। पेरिस समझौते में ग्रीन हाउस इफेक्ट को प्रभावित करने वाली 6 गैसो को प्रतिबंधित किया गया है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी ) दुनिया के बढ़ते तापमान को रोकना चाहता है । उसका संकल्प 21वीं सदी के अंत तक सन् 1850 की तुलना में पृथ्वी का तापमान सिर्फ 1.5% बढ़े, लेकिन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की जो रफ्तार है, ग्रीनहाउस गैसेज का जो उत्सर्जन है। उससे 2050 तक ही तापमान में 1.5 डिग्री तापमान की वृद्धि हो जाएगी यह वृद्धि मानवता के लिए एक बड़ा संकट पैदा करेगी। समुद्र तटीय शहर 2 मीटर तक डूब जाएंगे। पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी के रुझान यह बता रहे हैं की दुनिया औसत से 20 गुना अधिक तेजी से गरम हो रही है यदि ऐसा जारी रहा तो 1.5 डिग्री तापमान की वृद्धि 2030 तक ही हो जाएगी और तब से जलवायु तथा खेती का संकट दुनिया को तेजी से निगलेगा।
विश्व की इन सामूहिक चिंताओं के बाद भी पर्यावरण के संकट के समाधान की दिशा में सामूहिक प्रयासों में कमी देखी जा रही है। पर्यावरण की चिंता के सामान्य रूप से दो क्षेत्र हैं । एक ग्रीन हाउस इफेक्ट और दूसरा परिस्थितिकी संतुलन । ग्रीन हाउस इफेक्ट हमारे मौजूदा विकास के ढांचे का परिणाम है. जहां अनियंत्रित औद्योगिक विकास और उत्कृष्ट जीवन शैली की अभिलाषा ने कारखानों से अत्यधिक जहरीली गैस व क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन बड़ा है जिससे दुनिया के तापमान में वृद्धि हुई साथ ही ओजोन लेयर, क्षतिग्रस्त होकर ,पैरा बैगनी किरण धरती पर पहुंचकर मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही हैं ।
पर्यावरण का दूसरा संकट परिस्थितिकी संतुलन के बिगड़ने से उत्पन्न हुआ है .जब हम परिस्थितिकी का उल्लेख करते हैं । तो हम पाते हैं कि मनुष्य और प्रकृति अर्थात पृथ्वी की रचना में आश्चर्यजनक रूप से समानता है जिस प्रकार इस पूरी दुनिया में दो तिहाई हिस्सा जल और एक तिहाई हिस्सा ठोस है ठीक वैसे ही मानव शरीर भी दो तिहाई हिस्सा जल और एक तिहाई स्थूल इस अनुपात के संतुलन में जहां मानव जीवन के स्वास्थ्य का रहस्य छुपा है. वहीं जब प्रकृति की बात होती है तो यह संतुलन ही स्वस्थ पारिस्थितिकी और पर्यावरण का निर्माण करता है ।
पूरी दुनिया में पहाड़ ही कंट्रोल टावर का काम कर रहे हैं।
दुनिया के सात महाद्वीप एशिया यूरोप उत्तर अमेरिका दक्षिण अमेरिका अफ्रीका ऑस्ट्रेलिया अंटार्कटिका, पांच महासागरों से घिरे हैं । यह है हिंद महासागर प्रशांत महासागर आर्कटिक सागर अंटार्कटिक हर महाद्वीप में एक विस्तृत और ऊंची लंबा लंबी पर्वत श्रृंखला है जो मानसून और बारिश के चक्र को निर्धारित करती है जैसे उत्तरी अमेरिका माउंट में काली पर्वत, साउथ अमेरिका में एकांक गुवा, यूरोप में एलब्रुस व अंटार्कटिका, अफ्रीका में किलिमंजारो, ऑस्ट्रेलिया में कैजिआस्को पर्वत तथा एशिया में हिमालय और चीन का शिंग लिंग शान लिंग पर्वत ही मानसून विशेष रुप से प्रकृति के ऋतु चक्र को निर्धारित करते हैं . इस बात को ऐसे समझ सकते हैं अगर दक्षिण पश्चिम के अरब सागर और हिंद महासागर से उठने वाले मानसून को टकराने के लिए हिमालय ना होता तो क्या भारत भूमि रेगिस्तान ना होती क्या यहां जीवन संभव होता इस प्रकार इस सृष्टि में पर्वत और समुद्र के बीच का संतुलन ही पर्यावरण और जीवन का बेहतर आधार उपलब्ध कराता है .
हिमालय के प्रति कृतज्ञता , हिमालय की चिंता से समाधान निकलता है। हिमालय में आंशिक चीन व पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भारत और भूटान सहित 6 देशों में लगभग 2500 किलोमीटर लंबाई व 150 से 400 किलोमीटर तक की चौड़ाई वाला हिमालय जो कि 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है. दुनिया का सबसे बड़ा हिमालय क्षेत्र है। हिमालय में 110 से अधिक चोटियां जिनकी ऊंचाई 7300 मीटर से अधिक है, मौजूद है उच्च हिम शिखरों में अभी मानव की पहुंच नहीं है। हिमालय में 15 हजार से अधिक छोटे-बड़े ग्लेशियरों हैं ।यही ग्लेशियर पूरे एशिया की सदा जल नीरा नदियों को संचालित करती है . यही नहीं हिमालय की तलहटी में कोई 100 किलोमीटर चौड़ी जो विशाल उपजाऊ पट्टी बन चुकी है जिसमें हिमालय की नदियां बेहद उपजाऊ मिट्टी हर वर्ष लाती हैं । क्षेत्र को आर्थिक और कृषि की दृष्टि संपन्न क्षेत्र बनाती हैं . जिसमें गंगा यमुना का मैदान भी शामिल है भारत सहित 6 देशों में इन कृषि मैदान में लगभग 80 करोड़ की आबादी निवास करती है, मध्य हिमालय और हिमालय की तराई में दुनिया के जंगलों का 25% जंगल है जिसमें 30% से अधिक वन्यजीवों का निवास है।
इस प्रकार मानव जीवन का चतुर्दिक आधार , जल, जंगल जमीन और जीव जो कि हमारी परिस्थितिकी का मजबूत आधार है को संरक्षित करने का काम हिमालय ही कर रहा है । अकेले हिमालय का जतन कर, कृतज्ञता दिखाकर हम विश्व पर्यावरण के बहुत बड़े हिस्से की समस्याओं का समाधान कर लेते हैं ।
हिमालय जहां विश्व पर्यावरण के संरक्षण का मुख्य आधार है ।वहीं यह अत्यधिक संवेदनशील और नवनिर्मित पर्वत श्रृखंला है . यह खुद के ऊपर पढ़ने वाली हर अनियंत्रित चोट का हिसाब रखता है और जब असहनीय हो जाता है तो कभी ग्लेशियरों का टूटना ,बने हुए तालाबों का टूट पड़ना, बहती नदी के जल धाराओं में हिमशिलाओ का आकर तालाब बना देना, फिर कभी भी जल प्रलय से अपने ऊपर हो रही जातियों का हिसाब ले लेना, यह हिमालय का स्वभाव है बिरही गंगा और केदारनाथ का जल प्रलय, कुमाऊं क्षेत्र में गत वर्ष अतिवृष्टि तो बस इसके उदाहरण हैं ।
हिमालय पूरे विश्व की सबसे विस्तृत पर्वत श्रंखला है जहां दुनिया की सबसे बड़ी आबादी रहती है, जो दुनिया के बड़े हिस्से का मौसम नियंत्रित करता है जहां दुनिया का सबसे अधिक पीने का साफ पानी है..। वह हिमालय अभी बनता हुआ पहाड़ है, इसके प्रति संवेदनशील होकर विकास योजनाओं को पुनर्परिभाषित कर हम पर्यावरण का संरक्षण कर सकते हैं। इस धरती को और अधिक दिनों तक जिंदा रख सकते हैं।
इस सबके लिए जरूरी है कि हम पर्यावरण दिवस पर हिमालय के प्रति अपनी कृतज्ञता को बढ़ाएं और परिस्थितिकी संतुलन की आवश्यकता के अनुरूप अपने विकास की दिशा तय करें यही पर्यावरण दिवस का सर्वश्रेष्ठ संकल्प और संदेश होगा।