सोपान जोशी
‘अंगकोरवात’ मतलब ‘मंदिर का नगर’। कम्बोडिया में बना यह हिंदू मंदिरों का नगर आज भी दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक है। यहाँ विष्णु, ब्रह्मा और दूसरे देवों के विशाल मंदिर 12वीं शताब्दी में बनने शुरू हुए थे, आज से 900-800 साल पहले। तब यहाँ राज करने वाले राष्ट्रों के पास अपार सत्ता थी, साधन थे, कामगार थे।
…समय के साथ राज करने वालों की आस्था बौद्ध धर्म की ओर झुक गयी। कई मंदिरों के गर्भग्रह में बुद्ध की प्रतिमाएँ लग गयीं, लेकिन बाहर से मंदिर जैसे थे वैसे ही रहे। धीरे-धीरे वे साम्राज्य मिटने लगे, राष्ट्र-राज्य क्षीण होने लगे। आज तक कोई भी साम्राज्य/राष्ट्र-राज्य अपने आप को काल से बचा नहीं सका है, चाहे उसके पास कितनी भी ताकत क्यों न हो, चाहे वह कितना भी बड़ा और बलवान क्यों न रहा हो।
…मंदिर भव्य तो थे, पर उनमें दिव्यता नहीं थी। जब राज करने वालों का आग्रह मिट गया तब साधारण लोगों ने मंदिर में जाना बंद कर दिया। न तो वैदिक-पुराणिक देवताओं की प्रतिमाएँ इन्हें बचा सकीं, न अवैदिक प्रतिमाएँ ही। दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक, सबसे बड़े मंदिर, सब वीरान खंडहर बन के रह गये। इन्हें किसी धर्मान्ध आक्रांता ने नहीं तोड़ा, बस हवा का रुख बदल गया था।
…हवा के सहारे समय के साथ इन भव्य मंदिरों के ऊपर सेमल की रुई गिरी, जिसमें नन्हें बीज थे। उन बीजों के अंकुर मंदिरों के ऊपर फूटे। उनमें से पेड़ उग आये। बिना मजदूरों को लगाये, बिना जनता से कर/चंदा वसूले, बिना अपना प्रचार किये। ये पेड़ इतने विशाल हो गये कि उनके सामने राजाओं के बनाए भव्य मंदिर बौने दिखने लगे। उन बीजों में कुछ ऐसा था जो राजाओं की नीति-अनीति में और उनकी आस्था में नहीं था। उनके भीतर सृष्टि की दिव्यता का अंश था। उनमें जीवन के धर्म का अंश था।
…कोई डेढ़ सौ साल पहले औंरी महू नामक एक फ्रेंच यात्री यहाँ पहुँचे। उन्हें खंडहर ही दिखे और भव्य पेड़। अगल-बगल में खेती-बाड़ी होती थी, आस-पास गाँव भी थे और बस्तियाँ भी। लेकिन उनमें रहने वालों को दुनिया के सबसे भव्य धार्मिक स्मारक के प्रति कोई लगाव नहीं था। आज ये स्मारक पर्यटन स्थल बन गये हैं। इनकी भव्यता को देखने दुनिया भर से सैलानी आते हैं, मौज-मस्ती करते हैं, इनके सामने खड़े हो कर विविध मुद्रा में फोटो खींचते हैं। इनसे विस्मित होते हैं। रंगारंग कार्यक्रम होते हैं। इन मंदिरों को बनाने वाले कल्पना भी नहीं कर सके होंगे कि उपभोग की आधुनिक संस्कृति इनकी भव्यता का कैसा उपयोग करेगी।
…ताकत के नशे में राजसत्ता भव्य भवन बनाने की होड़ में लगी ही रहती है। तरह-तरह की भव्यता का ध्येय साधारण लोगों को भयभीत करना ही होता है। यह राजनीति का स्वभाव सदा से रहा है। मनुष्य जब दूसरे लोगों पर सत्ता पा लेता है, तब उसके मूल स्वभाव की यह खोट सामने आ जाती है।
…भव्य इमारतें बनाने वाले भूल जाते हैं कि समय के साथ उनकी भव्यता उन्हें बचा नहीं पाती। कहीं हवा में उड़ती रूई में कोई दिव्य बीज आता है। कुछ सालों में ही भव्यता के अहंकार को मिटाने वाला उदारहण खड़ा हो जाता है। पर राजनीति के लिए ऐसे सबक बेकार होते हैं। उसका काम सीखने-सिखाने से नहीं चलता। उसे तो बस सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए भव्य इमारतें बनानी होती हैं। उसे दिव्यता से मतलब नहीं होता।