हरिश्चन्द्र चंदोला
पर्यटकों तथा तीर्थ यात्रियों की भीड़ उमड़ गई है, उत्तराखंड राज्य में करोना बीमारी के फैलने का खतरा बढ़ गया है। किन्तु राज्य में यात्री निवास व दुकानें खाली पड़ी हैं। राज्य में यात्राओं पर उच्च न्यायालय ने प्रतिबन्ध लगाया है, और किसी को भी नहीं पता है कि वह खुलेगा कब?
नैनीताल तथा मसूरी में कुछ पर्यटक अवश्य पंहुचे हैं, जिनकी फोटो अखबारों में छपी हैं, जिनकी बुनियाद पर शोर मचा है कि राज्य में बहुत पर्यटक पहुँच गए है, जिनकी आगमन से कोरोना बीमारी के फैलने का खतरा पहाड़ो में बढ़ गया है। यह यात्रा का शीर्ष काल है, जब दर्शनार्थियों की संख्या यहां चरम पर होती है। किन्तु इस वर्ष बीमारी के भय से यात्रियों तथा घुम्मकड़ों की संख्या बहुत कम हो गई है। रास्ते भर खाने और चाय की दुकानें होती थी जो सब बंद हैं।
इस वर्ष चार धाम यात्रा मार्गो को चौड़ा करने, उनमें वाहनों की गति अधिक करने का प्रयास करने की बात थी, किन्तु उनकी रफ्तार अभी शिथिल ही है। जब तक उनके किनारे पड़े मिटृी तथा पत्थरों के ढ़ेर नहीं हटाए जाते तब तक यात्रा शिथिल ही रहेगी। उनको हटाने में वर्ष भर से अधिक समय की आवश्यकता होगी। शासन इस मलवे को नीचे नदियों में डालने की बात कर रही है। किन्तु उससे मछलियों तथा अन्य जल-जीवों को हानि हो जाएगी तथा पर्यावरण और पानी भी प्रदूषित हो जाएगा।
मार्गों को चौड़ा कर उत्तराखण्ड राज्य में यात्रियों तथा पर्यटकों की संख्या बढ़ाने की प्रधानमंत्री मोदी जी की जो योजना थी वह सफल नहीं रही है। वर्षा से कई मार्ग टूट कर बंद रहे और यातायात घटता रहा। कई जगह पर्यटकों की आवाजाही बंद हो गई है। कहा नहीं जा सकता कि वह कब तक सामान्य हो सकेगी।
यात्री तो दूर यहां के निवासी अपने गांव-घरों से नहीं निकल पा रहे हैं। कुछ महीने और यह स्थिति रहनेे की संभावना है। अधिकतर मार्ग अवरूध हैं। यही स्थिति रही तो इस वर्ष भी यात्राएं नहीं हो पाऐंगी।
राज्य साधनहीन व निर्धन है। जल विघुत योजनाओं से वह कुछ आय बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। किन्तु उसके पहाड़ इतने तीखे है कि वह पानी के लिए सुरंग बनाने पर टूट रहे हैं जैसे अभी रैंणी गांव में हुआ जिसमें लगभग 200 से अधिक मजदूर पहाड़ के टूटने से 7 फरवरी 2021 को दब कर मर गए और करोड़ो रुपए का काम नष्ट हो गया। लगभग 209 मजदूरों के शव अभी भी सुरंग के मलवे में दबे हैं। कुछ को उनकी पूरी मजदूरी भी नहीं मिली। अत्यधिक धन व्यय कर राज्य सरकार ने यहां जल-विघुत परियोजना बनाई, इस आशा से कि उनके द्वारा उत्तराखण्ड बहुत धन अर्जित कर लेगा। इस पर करोडों रुपए खर्च किए गए किन्तु हाथ कुछ नहीं आया। जैसे नेशनल थर्मल पावर प्रोजेक्ट की रैंणी-तपोवन योजना बन रही थी, उसके ऊपर की हिमानी टूट गई और काम रुक गया।
ऐसे दुर्गम क्षेत्र में क्यों केन्द्र तथा राज्य सरकार ने बिजली बनाने की योजना बनाई? फरवरी 9 की दुर्घटना की जांच करने कैनेडा के कैलगेरी विश्व विघालय के वैज्ञानिकों का एक बड़ा दल यहां आया उनके निष्कर्ष चौकाने वाले थे। उसने कहा कि उस दुर्गम, भंयकर क्षेत्र में खतरे की सूचना देने के लिए एक घंटी भी नहीं लगी थी जो हिमानी के टूटने की पूर्ण सूचना वहां काम पर लगे मजदूरों को दे पाती। ताकि वे दुर्घटना की सूचना सुन बाहार आ पाते।
यह योजना कैसे बनी? किसने इस योजना के छानबीन का काम आरंभ किया? क्यों उस पर भारी धन व्यय किया गया? इस सब के लिए कौन उत्तरदाई है? यह जानकारी दुर्घटना के तीन माह बाद भी उपलब्ध नहीं है। बहुत सारे मजदूरों के शव अभी भी उस सुंरग के मलवे में दबे पडे़ है।
इस सब के लिए कौन अधिकारी या कार्यालय जिम्मेदार है, इसे जानने की आवश्यकता है ताकि इस प्रकार की दुर्घटना पुनः न हो, और अपराधी अधिकारियों को दंडित भी किया जा सके।
किन्तु सरकार के लिए इतने सारे लोगों के प्राणों का कोई महत्तव ही नहीं है। योजना पर जनता के धन के अपव्यय की जानकारी प्राप्त करना तो और भी महत्तवहीन है।
फ़ोटो : गूगल से साभार