पूरन मेहरा
पूरे देश को कर्ज में डुबा देने वाली जो संस्थायें भारत में सक्रिय हैं, उनमें विश्व बैंक तथा एशिया डेवलपमेंट बैंक (ए.डी.बी.) का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। जहाँ तक उत्तराखंड का सवाल है, यहाँ पिछले कुछ सालों में एशिया डेवलपमेंट बैंक (ए.डी.बी.) ने बुरी तरह पाँव पसारे हैं। प्रदेश के बाहर की और कई बार तो देश से भी बाहर की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के व्यापारिक हित पूरे करने के लिये राजनेताओं और उच्चाधिकारियों ने आपसी समझदारी के साथ कई तरह की अजीबोगरीब और अनावश्यक परियोजनाओं के लिये ए.डी.बी. से अरबों रुपये के ऋण लिये हैं, जो काम मूलतः वही करते हैं जो पहले सरकारी विभाग करते थे, मगर उससे कई गुना ज्यादा धनराशि खर्च करने के बाद करते हैं। मजेदार बात यह है कि इनमें से ज्यादातर के लिये कर्मचारी और अधिकारी भी मूल सरकारी विभागों से ही प्रतिनियुक्ति (डेपुटेशन) पर ले लिये जाते हैं। यानी सरकारी विभाग उजड़ते हैं, काम लगभग उसी तरह का, लेकिन अनावश्यक और घटिया होता है और पैसा कई गुना ज्यादा खर्च होता है। इस लूट में अधिकारियों, राजनेताओं, बड़ी कम्पनियों और कुछ गैर सरकारी संस्थाओं (एन.जीओ.) तथा छोटे-बड़े ठेकेदारों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। भीख जैसी कुछ छिटपुट आमदनी मजदूरी के रूप में स्थानीय लोगों की भी हो जाती है, हालाँकि उत्तराखंड में मजदूर भी अब बिहार, उड़ीसा, झारखंड आदि के ही दिखाई देते हैं।
उत्तराखंड में जिस विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, वह इसी तरह का है।
यदि आप अपने अगल-बगल ऐसे किसी विकास कार्य को होते देखें, जिसकी न तो स्थानीय जनता को कभी जरूरत थी, न उसके लिये उसने कभी कोई माँग की थी और न ही जिसमें उसकी कोई रुचि है तो आप आराम से शक कर सकते हैं कि यह काम हमारे भाग्यविधाता ए.डी.बी. से ऋण लेकर अपनी भलाई के लिये करवा रहे होंगे। आपको जरूर ऐसी विकास योजनाओं के बारे में पूछताछ करनी चाहिये और सूचना का अधिकार कानून के अन्तर्गत जानकारी एकत्र करनी चाहिये।
इसी तरह की एक पेयजल परियोजना उत्तराखंड के अनेक उन शहरों में चलाई जा रही है, जहाँ पानी पहले से ही इफरात से है। जहाँ भीषण गर्मियों में भी पानी के लिये हाहाकार कम ही मचता है। पानी के लिये प्यासे नगरों या उत्तराखंड के हजारों गाँवों, जहाँ महिलाओं को मुँह अंधेरे ही उठ कर मीलों दूर पानी की खोज में जाना पड़ता है, के लिये इस योजना में कोई जगह नहीं है। ए.डी.बी. द्वारा वित्तपोषित इस योजना के तहत नैनीताल नगर में भी पैंसठ करोड़ रुपया खर्च कर करीब 14 हजार कनेक्शनधारियों को पानी पिलाया जाएगा। ‘नैनीताल पेयजल पुनर्गठन योजना’ के नाम से चल रही इस परियोजना को चार चरणों में पूरा होना है।
परियोजना के अन्तर्गत नैनीताल नगर में राइजिंग टैंकों तक पानी पहुँचाने वाली 30 किमी. लम्बी राइजिंग लाइनों, 72 किमी. लम्बी कनेक्शन लाइनों, स्टील टैंकों, आरसीसी टैंकों, पम्प हाउसों आदि का निर्माण किया गया है। 17 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाली राइजिंग लाइनों को तोड़फोड़ के रूप में नगर मंे कहीं भी देखा जा सकता है। 11 करोड़ रुपये की लागत से चिल्ड्रन पार्क, सूखाताल, फाँसी गधेेरा और ओल्ड वाटर बाॅक्स अंडा मार्केट के पास नये पम्प हाउसों का निर्माण किया गया है। सिपाहीधारा के पास दो छोटे पम्प लगाये गये हैं। कुल मिला कर नये-पुराने पाँच पम्पहाउस बने हैं। 11 नये टैंक बने हैं और कुछ पुराने टैंकों की मरम्मत की गई है। लगभग 4 करोड़ रुपये की लागत से शहर के ऊँचाई वाले स्थानों में भीमकाय आरसीसी टैंक बनाए गए हैं। ये टैंक उन पब्लिक स्कूलों के आसपास हैं, जो बच्चों की फीस के रूप अभिभावकों से लाखों रुपये वसूल करते हैं। इनसे न सिर्फ इन स्कूलों के हाॅस्टलों में रहने वाले बच्चों को इफरात से पानी मिलेगा, बल्कि इनके स्विमिंग पूल भी पानी से लबालब भरे रह सकेंगे। यहाँ पानी की कोई कमी नहीं होगी, भले ही वह नैनी झील के पानी की कीमत पर ही क्यों न हो और नैनी झील गर्मियों में सूख कर बदसूरत तलैया जैसी ही क्यों न बन जाये। इतना अवश्य है कि लगे हाथों शहर के आसपास के क्षेत्र के लोगों को भी इस योजना से जोड़ दिया गया है।
वर्ष 2042 की जरूरतों को ध्यान में रख कर बनाई गई इस परियोजना का कार्य गढ़वाल मंडल में डीएससी-1 (डिजाइन और सुपरविजन कन्सलटेंसी) तथा कुमाऊँ में डीएससी-2 देखती है। डीपीआर बनाना इसी कम्पनी का काम है। जल निगम, देहरादून के एमडी इसके सदस्य होते हैं, जो कार्य को टैक्नीकल एप्रूवल देते हैं। शासन स्तर पर एक उच्च स्तरीय समिति है, जिसमें टैक्नीकल और नाॅन टैक्नीकल दोनों तरह के सदस्य होते हैं। पूरी परियोजना का डाइरेक्टर आईएएस स्तर का एक अधिकारी होता है। परियोजना के तहत देहरादून, हरिद्वार, रुड़की, चम्पावत व बागेश्वर का भी डीपीआर तैयार कर लिया गया है। हल्द्वानी, बागेश्वर, रामनगर आदि में परियोजना शुरू होने वाली हैं। कार्य का भुगतान आरबीआई इंडैक्स रेट के आधार पर किया जाता है, यानी यह जल निगम या अन्य सरकारी विभागों के पुराने टेंडरों की तरह नहीं है कि एक बार रेट तय हो जाने पर उसी दर पर काम होता रहे। केन्द्र सरकार के इन्डेक्स के आधार पर यदि दरें बढ़ेंगी, जो हमेशा बढ़ती ही जाती हैं, तो इस परियोजना में भी बढ़ी हुई दरों पर भुगतान किया जायेगा। डीपीआर में सोशल एक्सपर्ट, लेबर की सुख-सुविधा, जूता, फस्टएड, टाॅयलेट, वर्दी-टोपी जैसी सुविधाओं का भी प्रावधान किया जाता है।
नैनीताल में अब तक सार्वजनिक पेयजल व्यवस्था के लिये पहले 3 इंच व 4 इंच की जीआई पाईप लाईन बिछायी जाती थी। इस परियोजना के तहत अब छः इंच और आठ इंच के ईआरडब्ल्यू, के-9, के-7, डीआई पाईप वैल्डिंग करने के बाद बिछाये जा रहे हैं। ये पाईप इससे पहले उत्तराखंड में कभी भी नहीं लगाये गये, न ही ऐसी तकनीकी का कभी इस्तेमाल हुआ। पहले की ही तरह जीआई पाईप लगाये जाते तो पूरी योजना का खर्च इस योजना का लगभग चालीस प्रतिशत ही होता। राज्य सरकार की किसी भी तकनीकी इकाई ने इन पाईपों की जाँच नहीं की है। शासन स्तर पर एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने इस कार्य की गुणवत्ता के लिए एमओयू साईन किया है। मल्टीनेशनल कम्पनी मुम्बई की है, जो कार्य करके चली जाएगी और उसके बाद उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं रहेगी। जानकार तो यहाँ तक दावा करते हैं कि ये डीजीपी पाईप पहले यूरोप आदि देशों में प्रयोग किये जाते थे, मगर पूरी तरह असफल साबित हो चुकने के बाद वहाँ अब इनका प्रयोग बन्द है। ये पाईप उत्तराखंड की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त हैं या नहीं, इस तथ्य को प्रदेश सरकार द्वारा सार्वजनिक किया जाना चाहिए। देखने में आ रहा है कि जो राइजिंग लाईन बिछाई गई है, वह पानी का दबाव नहीं झेल पा रही है और अनेक बार फट चुकी है। अब तक ऐसी समस्या आने पर एकाध जंक्शन, यूनियन या साॅकेट बदल कर काम कुछ ही घंटों में समस्या सुलझा ली जाती थी। मगर अब एक पाईप के फटने या टूटने पर एचडीपी पाईप बदलने और वैल्डिंग करने आदि में दो से तीन दिन लग रहे हैं। नैनीताल की पहाडि़यों के बहुत से हिस्से, जैसे चाल्र्टन लाॅज, बिड़ला विद्या मंदिर, सात नम्बर आदि बेहद संवेदनशील हैं। यहाँ जमीन प्रायः ही धँसती दिखाई देती है। यदि इन क्षेत्रों में कोई पाईप जोड़ों से खुल गया तो भूस्खलन का कितना बड़ा खतरा खड़ा होगा ? नैनीताल की जिन पहाडि़यों को पानी के खतरे से बचाने के लिये औपनिवेशिक अंग्रेज सरकार ने अद्भुत किस्म का ड्रेनेज सिस्टम बनाया था, उन्हीं पहाडि़यों के सिर पर उत्तराखंड की सरकार ने ईआरडब्ल्यू, के-9, के-7, डीआई पाइपों के रूप में एक ‘वाटर बम’ रख दिया है।
अब तक जल वितरण व्यवस्था की योजनाओं को बनाने में जलनिगम या जल संस्थान को सेन्टेक्स के रूप में योजनाओं का 12.5 प्रतिशत मिलता था, जिससे कर्मचारियों की तनख्वाह बँटती थी। एडीबी प्रोजेक्ट के कारण यह धनराशि मिलनी बंद हो गयी है और मूल विभागों में तनख्वाह देने के लाले पड़ गये हैं। आये दिन हड़तालें हो रही हैं और कार्यालयों में ताले लग रहे हैं। योजना बनाने वाले विभाग द्वारा योजना के रखरखाव के लिये जल संस्थान को योजना का 8.5 प्रतिशत हिस्सा और साथ में योजना अवधि का कार्य देखने वाले कुशल स्टाफ के साथ ही टूलकिट तथा कुल लगी सामग्री का 8 प्रतिशत सामान भी दिया जाता था, ताकि ब्रेकडाउन होने पर तत्काल मरम्मत का कार्य किया जा सके। अब यह रखरखाव कौन करेगा ?
यानी जनता को खतरे में डालने के साथ-साथ जल निगम व जल संस्थान का अस्तित्व भी खतरे में डाल दिया गया है।
यह लेख नैनीताल समाचार के वर्ष 38, अंक 17 के 15 से 30 अप्रैल 2015 वाले अंक में प्रकाशित हो चुका है