मनमीत
शिमला, किन्नौर और सिरमौर जिले की यात्रा के दौरान हिमाचल के दूरस्थ गांवों में रहने वाले लोगों के चेहरे पर जितनी संपन्नता दिखती है, दुर्भाग्य है कि उसके पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के दूरस्थ गांवों के उदास और फीके चेहरों पर उतनी ही गरीबी दिखती है। एक जैसा भूगोल, मौसम, बादल, कोहरा, नदियां, ढालूदार खेत, इंसानी महत्वकांक्षायें और जरूरतें होने के बावजूद, आखिर क्या वजह है कि उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति आय का ग्राफ किसी शापित स्त्री की तरह चेहरा छुपाये सुबकता दिखता है। अलबत्ता, शिमला को छोड़ भी दें तो किन्नौर और सिरमौर जिले का हर गांव मॉडल विलेज क्यों लगता है ? हिमाचलियों की जेब में पैसा है तो चेहरे पर आत्म विश्वास । आखिर इसका क्या कारण है ?
इन तमाम सवालों के जवाबों के लिये हमें सत्तर के दशक के शुरूआत की राजनीतिक और भुगौलिक यात्रा करनी होगी। देश का 18 वें राज्य के रूप में हिमाचल का गठन 25 जनवरी 1971 को हुआ। इस तारीख से पहले हिमाचल के दूरस्थ गांव का युवा रोजगार के लिये पंजाब, दिल्ली, हरियाणा के हरे मैदानों में उतरता था और किसी बड़े साहब की कोठी में नौकरी कर अपने जीवन के अंतहीन दोहराव को खसीटता था। लेकिन, फिर एक दिन विशुद्ध रूप से पर्वतीय अवधारणा से लैस हिमाचल का गठन हुआ और पहले मुख्यमंत्री बने वाईएस परमार। जिन्होंने हिमाचल गठन के बाद शिमला की रिज पर पहला भाषण दिया और एलान किया कि ‘अब हिमाचल में पंजाब में बर्तन धोने वाला युवा पैदा नहीं होगा, अब हिमाचल में सेब पैदा होगा’।
वाईएस परमार ने राज्य के हर जिले का दौरा किया और तमाम कृषि विश्वविद्यालयों की नींव रखी। साथ ही राज्य में मजबूत सड़कों का नटवर्क पर युद्ध स्तर पर काम शुरू हुआ। उसके बाद क्या हुआ, ये हिमाचल की संपन्नता खुद बयां करती है। किन्नौर में एक सेब के किसान से मेरी बात हुई। उसने बताया कि एक सीजन में वो डेढ़ करोड़ के सेब पैदा करता है। नारकंडा में किसान लाखों और करोड़ों रुपयों का सेब बेच देता है। कई काश्तकार मैक माई ट्रिप और यात्रा डॉट कॉम का पैकेज लेकर स्वयं घोषित अवकाश पर विदेश घूम चुके हैं। शानदार हरी हिमाचली टोपी, गर्म गला बंद कोट, पॉलिस किये हुये बूट पहने काश्तकार अपने खेतों के सेबों को दस टायर वाले ट्रकों पर लोड होते गर्व से देखता है। निश्चित तौर पर वो वाईएस परमार का भाषण, ‘अब हिमाचल में पंजाब में बर्तन धोने वाला युवा पैदा नहीं होगा, अब हिमाचल में सेब पैदा होगा’ को याद करते होंगे। आज हिमाचलियों के खेतों में पंजाब, हरियाणा, बिहार, यूपी और नेपाली मजदूर काम करते हैं। देश में कश्मीर के बाद सबसे मीठे रेड और गोल्डन प्रजाति के सेब हिमाचल से सप्लाई होते है। अमेरिका और कजाकिस्तान के सेबों को हिमाचल का सेब ही टक्कर देता है। वहीं दूसरी ओर जनपद सिरमौर में सेब कम होता है तो यहां के काश्तकार टमाटर, अदरक, मक्की पैदा करते हैं। सिरमौर जिले के शिलाई विधानसभा में स्थित शरली गांव में काश्तकार श्री कुंदन शास्त्री बताते हैं कि, उनके गांव में एक सीजन में पांच लाख रुपये तक किसान टमाटर पैदा करता है। पहले ये टमाटर विकासनगर की मंडी भेजा जाता था। लेकिन अब इतनी डिमांड है कि सीधे दिल्ली सप्लाई की जाती है। कुल मिलाकर जहां सेब नहीं उगता, वहां टमाटर उगता है।
देहरादून, हल्द्वानी, यूपी के तमाम बड़ी फल मंडियों के व्यापारी अक्सर शिकायत करते हैं कि, किन्नौरी और शिमला का सेब उनकी मंडी में नहीं भेजा जाता। मैंने जब इस संबंध में किन्नौर जिले के एक किसान से बात की तो उसने इतराते हुये बताया कि क्यों भेजें ? किन्नौरी सेब की कीमत ये नहीं दे पाते। इसलिये हम सीधी दिल्ली भेजते हैं, जहां से वो एक्सपोर्ट भी होता है। ये ही हाल सिरमौर के टमाटर, गोबी और अदरक का भी है।
इधर, उत्तराखंड का गठन नौ नवंबर 2000 में हुआ। लेकिन उसमें दो ऐसे मैदानी जिले जोड़ दिये गये, जो संपन्न थे। लिहाजा, विशुद्ध रूप से पर्वतीय अवधारणा पर आधारित राज्य पहले दिन से ही औंधे मुंह गिरा और उसके बाद अभी तक नहीं संभला। जिस राज्य में हिमाचल की तर्ज पर फल और सब्जी हो सकती थी, वहां संपन्नता का आधार सरकारी कर्मचारियों की पोस्टिंग, ट्रांसफर, खनन और शराब का व्यापार रखा गया। पहले मुख्यमंत्री हरियाणा मूल के थे और दूसरे जो पर्वतीय मूल के थे, उन्हें पर्वत पसंद नहीं थे। लिहाजा वो अपने कार्यकाल में कभी पहाड़ चढ़े भी नहीं। विकास की गंगा ऊपर से नीचे बही और गांव पलायन से खाली होते गये। जो सेब हिमाचल में उगता है, उसको उगने के लिये जो परिस्थिति चाहिये, वो उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में है। बहरहाल, उत्तराखंड भी उस दिन का इंतजार कर रहा है, जब कोई मुख्यमंत्री गैरसैण के रिज से भाषण देते हुये कहेगा कि, अब उत्तराखंड में खनन और शराब नहीं, बल्कि बल्कि सेब पैदा होगा।