डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत में पक्षियों की आबादी बहुत तेजी से गिर रही है। कई प्रकार की जातियों पर संकट खड़ा हो गया है। गिद्धों की बात करें तो वे विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए हैं। ऐसे में भारत, दुनिया में सबसे अधिक गिरावट वाले देशों में से एक है। गिद्धों की कुछ प्रजातियों में यह गिरावट 99 प्रतिशत तो कुछ में 90 फीसदी तक है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही या फिर कोई योजना नहीं बनाई गई है। सरकार ध्यान दे रही है और 2006 से बाकायदा इसके लिए कदम भी उठाए गए हैं। हालांकि इसमें सरकार को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकी है। पक्षियों की आबादी बढ़ने की बजाए और गिर रही है। ऐसा क्यों हो रहा है ? इसके लिए कौन दोषी है और क्यों दोषी है ? इस पर विचार मंथन जरूरी है ताकि सही कदम उठाए जा सकें।
यदि हम पक्षियों को प्राकृतिक वातावरण नहीं दे सके तो पर्यावरण और आने वाली पीढ़ी को क्या मुंह दिखाएंगे ? भारत सरकार ने एक बार और कोशिश करते हुए 2025 तक का एक प्लान बनाया है। देश के कुछ हिस्सों में सरकारी संरक्षण केंद्र खोलकर वह गिद्धों को बचाने की मुहिम में सफल होना चाहती है। कहते हैं कि सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकतीं ? ये सवाल ऐसा है कि सरकारी इच्छाशक्ति स्वयं में शंकित हो जाती है। कभी सरकार के कामकाज और योजनाओं से आमजन खुश हो जाते हैं और अभूतपूर्व कामों से सरकार की वाह—वाही हो जाती है। तो कभी सरकार जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं कर पाती। भारत में किसी योजना को लागू करना, सफल कर लेना या लक्ष्य पाना बहुत कठिन हो जाता है। लोकतंत्र में विपक्ष और भारतीय जनसंख्या जैसे कारणों से कभी—कभी लक्ष्य प्राप्त करना असंभव लगने लगता है। हालांकि असफलता के लिए कोई बहाना नहीं बताना चाहिए। सवाल है कि दुहाई देकर क्यों हम अपने बचने के रास्ते खोजते रहेंगे जबकि 130 करोड़ लोगों को हम अपनी शक्ति बना सकते हैं। सरकारी प्रयासों को परिणामदायक और कसौटी पर खरा साबित करने वाला बनाने में इसी जनता को आगे आना होगा और सख्त निर्णय लेने होंगे। जनता चाहेगी तो सरकारों की इच्छाशक्ति बुलंद और परिणामदायक हो जाएगी। फिलहाल पक्षी बचाने की मुहिम में सरकार से चमत्कार की उम्मीद है। हिलायन ग्रिफन गिद्ध के झुंड का दिखाई देना विचित्र घटना माना जा रहा है। असल में गिद्धों की यह प्रजाति इंटरनेशनल यूनियन फार कंजनर्वेशन आफ नेचर की रेड लिस्ट में सूचीबद्ध किया जा रहा है। गिद्धों के झुंड दिखने को जैव विविधता के लिहाज से बेहतर माना जा रहा है। हिमायलन ग्रिफन बायोलाजिकल नाम जीप्स हिमालयनसीस गिद्ध अब कम ही दिखाई देते है। खाद्य श्रृंखला में सबसे ऊपर गिद्धों की यह प्रजाति लगातार लुप्त होते जा रही है। द्वाराहाट क्षेत्र में गिद्धों की इसी प्रजाति का झुंड दिखाई दिया। यह करीब 25 से 30 गिद्ध थे।
गिद्धों के इस प्रकार दिखाई देने को पर्यावरणीय दृष्टि से अच्छा बताया जा रहा है। हिमालयन ग्रिफन बड़े आकार का फीके पीले रंग का होता है। यह पूरे हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। इसके पंख काफी बड़े होते है और पूंछ छोटी होती है। गर्दन सफेद पीले रंग की होती है। यह हिमालयी क्षेत्र में 1200 से पांच हजार मीटर तक ऊंचाई पर देखे जा सकते हैं। यह गिद्ध दिन में सक्रिय होते है और हमेशा मरे जानवरों को ही खाते है। कभी भी स्वयं शिकार नहीं करते हैं। गिद्धों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड ने कार्ययोजना को भी मंजूरी दी है। जिसके तहत गिद्धों के लिए जहर बन रही मवेशियों के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवाओं को भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल के माध्यम से प्रतिबंधित करना है। इसके तहत उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडू में गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केन्द्रों की स्थापना का भी प्रावधान किया गया है।
अवैध शिकार, व्यापार को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए जा रहे हैं। गिद्धों का दिखाई देना पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद अच्छा है। गिद्ध की यह प्रजातियां दिन के समय सक्रिय होती हैं। इस दौरान ये आसमान मे काफी ऊंचाई पर उड़ते हुए मरे हुए जानवर को देख कर एक समूह में उसे खाने के लिए आते हैं। ये मरे हुए पशु को चट कर जाते हैं। ये एक समूह में पेड़ों पर या जमीन या चट्टान पर बैठे दिखाई देते हैं। यह पक्षी हमेशा मरे हुए जानवरों को खाते हैं तथा कभी भी स्वयं शिकार नहीं करते। इन पक्षियों की दृष्टि काफी तेज होती है। ये आसमान में काफी ऊंचाई से मरे हुए जानवर को देख लेते हैं। यह पक्षी संकट ग्रस्त श्रेणी में आते हैं। पक्षियों की यह प्रजाति धीरे—धीरे कम हो रही हैं।
90 के दशक में इनकी संख्या में एकदम से काफी गिरावट आई थी। जिसका मुख्य कारण पशुओं को दी जानेवाली दर्द नाशक दवा डाइक्लोफिन्क है। जब ये गिद्ध किसी ऐसे मरे हुए जानवर को खा लेते थे, जिसको डाइक्लोफिन्क दवा दी होती थी, तो यह गिद्ध के शरीर में जाकर इसकी किडनी को खराब कर देती व गिद्ध मर जाते हैं। 90 के दशक में भारत के मैदानी हिस्सों में जहां पशुपालन होता था और पशुओं को यह दवा दी जाती थी, वहां से गिद्धों की तीन प्रजातियां लगभग समाप्त हो चुकी हैं। हाल में डाइक्लोफिन्क पर प्रतिबंध लगने व संरक्षण की योजनाओं से इन पक्षियों की संख्या का संतुलन बनाने की ओर कार्यवाही हो रही है।
हिमालय में खासतौर पर तिब्बत में लोग इस गिद्ध का संरक्षण करते हैं। तिब्बत के ऊपरी हिस्सों में जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी तो उस शव को दफन करने की बजाय उसे किसी ऊंची चट्टान पर रख दिया जाता था। जहां पर ये गिद्ध उसे साफ कर देते थे। इन लोगों में यह मान्यता थी कि ये गिद्ध मनुष्य की आत्मा को स्वर्ग में ले जाते हैं। यदि किसी मृत शरीर को खाने कोई गिद्ध नहीं आते तो ऐसा माना जाता है कि जिस व्यक्ति का यह शव है उस व्यक्ति द्वारा कोई पाप किया गया था। जब ज्यादा सर्दी होती है तो ये पक्षी मैदानी भागों में भी आ जाते हैं। इस पक्षी के प्रजनन का समय दिसंबर से मार्च तक होता है। ये एक ही जोड़ा बनाते है। यह जोड़ा साल दर साल एक ही घोंसले वाली जगह पर बार—बार आते है। दोनों मिल कर नया घोंसला बनाते हैं या फिर पुराने घोंसले को पुन: ठीक करके प्रयोग में लेते हैं। नर व मादा मिल कर चूजों को पालते हैं। मादा एक ही अंडा देती है। गिद्ध की यह प्रजाति भी धीरे—धीरे कम हो रही है। इसकी औसतन आयु 25 से 35 वर्ष तक होती है। गिद्धों को विलुप्त होने से बचाने के पीछे सिर्फ भावनात्मक कारण नहीं हैं।
इनका पारिस्थितिकी संतुलन स्थापित करने में भी अहम योगदान है जिससे इनका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। मृत पशुओं का मांस गिद्धों का भोजन है। अकेले भारत में ही लगभग बीस करोड़ गाय, बैल, भैंस और भैंसा जैसे मवेशी हैं। भारतीय, विशेषकर हिंदू समुदाय के लोग स्वाभाविक रूप से गोमांस नहीं खाते। ऐसे में किसानों द्वारा मृत गाय—भैंस आदि पशुओं को भूमि में दबा दिया जाता है। कुछ स्थानों पर मृत पशुओं के लिए स्थानीय क्षेपण भूमि का भी इस्तेमाल किया जाता है। कभी—कभार ऐसा भी देखा गया है कि पशुओं को मृतावस्था में वहीं छोड़ दिया जाता है जहां गिरने से उनकी मौत हुई होती है। भूमि में दबाए गए स्थानीय क्षेपण भूमि में पड़े और जहां—तहां गिरकर मरने वाले पशुओं को गिद्ध कुछ ही घंटों में साफ कर जाते हैं। गिद्धों के लगातार घटने से अब किसान मृत पशुओं को सड़ने के लिए छोड़ने लगे हैं जिससे कई तरह की बीमारियों के खतरे बढ़ गए हैं।
गिद्धों के कम होने से जंगली कुत्तों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। यह बात भारत जैसे देश के लिए अच्छी नहीं है जहां पहले ही दुनिया के अस्सी प्रतिशत जलातंक या अलर्करोग; रैबीज, के मामले सामने आते हैं। गिद्धों की एक अन्य भूमिका भी है। भारत दुनिया के ज्यादातर पारसियों का भी घर है। यहां विशेषकर मुंबई में बहुत से पारसी रहते हैं। पारसी जरतुश्ती ; जोरोऐस्ट्रियन होते हैं जो प्राचीन फारसी अग्नि—पूजकों के धार्मिक वंशज कहे जाते हैं। जरतुश्त धर्म; जोरोऐसिट्रयनिज्म में मूल तत्व; ऐलीमैंट्स को पवित्र और शरीर को अपवित्र माना जाता है। इसीलिए पारसी लोग शवों का न तो दाह—संस्कार करते हैं और न दफनाते हैं। पारसियों द्वारा शवों को बुर्जों; टॉवर्ज पर जिन्हें डोखमा कहा जाता है। गिद्ध जैसे पक्षियों के खाने लिए खुला छोड़ दिया जाता है। उनकी मान्यता है कि ऐसा करके वे न तो भूमि और न ही आग को दूषित करते हैं। अब गिद्ध कम होने से वे बुर्जों पर शवों को समाप्त करने के लिए सौर—परावर्तक स्थापित करने लगे हैं।
गिद्धों की इतनी ज्यादा उपयोगिता के बावजूद समाज में उनके संरक्षण के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई देती। हमें दरअसल गिद्धों को प्रकृति की एक सुंदर रचना के रूप में देखना चाहिए जो जरा सी लापरवाही से समाप्त हो सकती है। इस पर गंभीरता से विचार कर गिद्धों के संरक्षण के प्रयास किए जाने चाहिए। गिद्धों के संरक्षण को अंतरराष्ट्रीय स्तर की मुहिम बनाया जाना चाहिए। कैलिफोर्निया में गिद्धों को बचाने के लिए पहले ही एक बहुत महंगा कार्यक्रम चलाया जा रहा है। भारत में भी इस तरह के प्रयास किए जा सकते हैं। इस दिशा में भारत, पाकिस्तान और नेपाल मिल कर भी काम कर सकते हैं। डिक्लोफैनेक दवा का इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर गिद्धों की संख्या बढ़ाने के लिए सुरक्षित प्रजनन और आहार केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए ताकि इन्हें भोजन के अभाव जैसी समस्या का सामना न करना पड़े। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने अब योजना बनाई है कि गिद्धों के लिए जहर साबित होने वाली दवाओं का परीक्षण कराया जाए और ऐसी दवा विकसित हो जिसका असर गिद्धों पर न हो। देश में मौजूद गिद्ध संरक्षण केंद्रों के साथ—साथ अतिरिक्त संरक्षण प्रजनन केंद्रों की स्थापना की भी योजना प्रस्तावित किए गए हैं।