पिंडारी ग्लेशियर यात्रा से लौटकर सुरेंद्र विश्वकर्मा का रिपोर्ताज

सभी फोटो : सुरेंद्र विश्वकर्मा

रयू नदी के किनारे बसा कपकोट इस यात्रा का पहला पड़ाव बना। इस कस्बे के बीच से सरयू नदी बहती है, कस्बे के चारों तरफ की छोटी-छोटी पहाड़ियों की भौगोलिक संरचना इसके नाम को पूर्णतया सार्थक करती हैं। यहां से 2 किलोमीटर आगे भराड़ी इस एरिया का मुख्य बाजार है, यहां पर उगाये जाने वाले स्थानीय प्याज के एक दाने का वजन लगभग 600 ग्राम होता है।

गली सुबह 6 जून को 700 रुपए में 18 किलोमीटर दूर लोहारखेत पहुंच गया। यहां का पोस्ट ऑफिस सुबह और दोपहर 2-2 घंटे के लिए खुलता है। बाकी समय साहब एक दुकान चलाते हैं। पोस्ट मास्टर साहब ने मैगी बनायी और इसके बाद दूध पीकर सुबह का नाश्ता सम्पन्न हुआ।

गभग 11:00 बजे चर्बी गलाने वाली 13 Km की पदयात्रा शुरू हुई। लोहारखेत से चीड़ के नीरस सूखे पेड़ और जंगलों की आग से पीछा छूट गया। भारत में इस पेड़ को अंग्रेज लेकर आए थे, सबसे पहले इसका उपयोग रेलगाड़ी की पटरियों को बिछाने में किया गया। आजादी के बाद 60 के दशक में इस पेड़ को बड़े पैमाने में हिमालयी जंगलों में लगाया गया, इसका उपयोग इमारती लकड़ी के अलावा इसके राल को पकाकर वार्निश और तारपीन का तेल बनाया जाता है।

ड़े ही अमानवीय तरीके से पेड़ के तने के नीचे आग लगाते हैं और तने में चीरा लगाकर टपकने वाले रस को इकट्ठा किया जाता है। चीड़ का पेड़ और किसी पेड़ को पनपने ही नहीं देता और इसकी सूखी पत्तियां बारूद की तरह आग पकड़ती हैं।

लोहारखेत से बांज, बुरांश, सिरखु, अखरोट, बाँस इत्यादि के हरे भरे जंगलों के बीच से गुजरने का अपना एक अलग ही आनंद था। 4 किलोमीटर चलने के बाद गांव समाप्त हो जाता है।

कुल 12 किलोमीटर की चढ़ाई के बाद शाम 4:00 बजे धाकुड़ी टॉप (2880 मीटर) तक पहुंचते ही बहुत तेज आंधी पानी आ गया। डेढ़ घंटे तक आकाशीय आफत के थमने की प्रतीक्षा की, इस बियाबान में थकावट के कारण एक झपकी नींद की भी ले ली थी। आखिरकार शाम 5:30 बजे 1 किलोमीटर की दूरी दौड़कर पार करते हुए धाकुड़ी नामक पड़ाव पर पहुंच गया।

थोड़ी देर में तूफान थमने के बाद सामने के नजारे को देखकर सारी थकावट हवा हो गई। यहां से ठीक सामने केवल 25 किलोमीटर दूर कुमाऊं की शुरुआती बर्फीली चोटियों मैकतोली से नंदा कोट और इनकी उप चोटियों का शानदार नजारा दिखाई देता है। कुमाऊं मंडल के रेस्ट हाउस में रहने-खाने का अच्छा इंतजाम हो गया। धाकुड़ी में इस वर्ष कई बार फरवरी के महीने में 6 फीट की बर्फबारी के कारण कुमाऊं मंडल के तीन नए कॉटेज ध्वस्त हो गए।

2005 में खरकिया तक हड्डी तोड़ रोड बन जाने के कारण बहुत कम लोग यहां आते हैं, जबकि खरकिया से धाकुड़ी की दूरी मात्र 3 किलोमीटर है।

ब आप कुमाऊं मंडल के दुर्गम इलाकों बागेश्वर और पिथौरागढ़ की यात्रा करते हैं, तो यह लगने लगता है कि शायद इन इलाकों की संस्कृति मातृ प्रधान रही होगी। सम्भवतः आर्य कबीलों का प्रभाव इन दुर्गम इलाकों में बहुत कम हुआ होगा, जिसके कारण आपको बहुत सारे मंदिर देवी प्रधान और चोटियों के नाम स्त्रीलिंग से संबंधित मिलेंगे। जैसे नंदा देवी, नंदा कोट और नंदा खाट, मैकतोली इत्यादि। बहरहाल यह इतिहास का विषय है और इसमें वही लोग अपना सिर खपाएं, जो भी हो पांडवों का इन इलाकों में अतिक्रमण देखने को नहीं मिलता है।

गले दिन सुबह बर्फीली चोटियों का अदभुत नजारा था, पिछले दिन के तूफान ने आकाश को एकदम साफ कर दिया था, इसलिए 3 किलोमीटर ऊपर चिलटा टॉप की तरफ कूच कर दिया। ऊपर चोटी से न भूलने वाला अविस्मरणीय दृश्य मैकतोली, सुंदरडुंगा ग्लेशियर, नंदा खाट, पिंडारी ग्लेशियर, छांगुच्छ, कफनी ग्लेशियर, नंदा कोट, मिलम ग्लेशियर, पंचाचूली उसके बाद नेपाल की बहुत सारी चोटियों का दीदार होता है।

वापसी में चिलटा मंदिर के पास से जो बकरियों का साथ बना वह लगभग फुरकिया से आगे 2 किमी. तक जारी रहा। 600 की संख्या में पूरा कुनबा कई-कई किलोमीटर तक मेरे पीछे चल रहा था, जैसे इन लोगों ने मुझे अपना गड़रिया या साथी मान लिया हो। बर्फीली चोटियों के नीचे की चर्बी दार घास 4 महीने खाकर इनका वजन काफी बढ़ जायेगा। शीत ऋतु शुरू होने पर वापसी में इनकी कीमत अधिक लगेगी।

गले दिन 8 जून सुबह अँधेरे में ही एक बार फिर ऊपर चोटी की तरफ प्रस्थान किया, लेकिन बादल होने के कारण के कारण वह विहंगम नजारा नहीं दिख सका, इसलिए वापस नीचे आया और धाकुड़ी से खाती गांव के लिए प्रस्थान कर दिया। 3 किलोमीटर नीचे खरकिया गांव तक रोड आ गई है। सड़क के किनारे एक गिलास दूध पिया। यहीं पर ज्योग्राफिकल सर्वे आफ इंडिया देहरादून के कुछ वैज्ञानिक मिले, जो यहां से 12 किलोमीटर आगे सुंदरडुंगा ग्लेशियर की तरफ कैंप लगाकर सोने धातु की खोज कर रहे हैं। यदि यहां कुछ ऐसा मिल जाता है तो इस इलाके की प्राकृतिक सुंदरता किसी पुराने जमाने के परियों की कहानी भर रह जाएगी।

र्षा काल 15 जून से द्वाली से आगे का रास्ता मैदानी लोगों के लिए कतई उपयुक्त नहीं होता है, इसलिए जंगलात विभाग को चाहिए कि खरकिया में एक रजिस्ट्रेशन ऑफिस और बैरियर हो, जहां पर इस तरह के लोगों को रोका जा सके। सरकार खरकिया में केवल एक बोर्ड लगाकर कि अपना रजिस्ट्रेशन कपकोट में करवायें, अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है, जबकि 2013 में एक महाविनाशी घटना घट चुकी है। पीडब्ल्यूडी और कुमाऊं मंडल विकास निगम अपने रेस्ट हाउस 17 जून तक बंद कर देते हैं, फिर भी लोग लोग आते रहते हैं।

3 किलोमीटर आगे जैकुनी गांव से सुंदरडुंगा ग्लेशियर और संबंधित चोटियों का विहंगम नजारा दिखाई देता है। जैकुनी से खाती गांव 2 किलोमीटर में आपको ढेर सारे होटल मिल जाएंगे। 8 जून को खाती के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस हाउस में रुक गया। खाती से पिंडारी और सुंदरडुंगा ग्लेशियर का रास्ता अलग हो जाता है। गांव में बीएसएनल का मोबाइल नेटवर्क मिलता है, लेकिन 20 बार कोशिश करने पर शायद ही सफलता मिल पायेगी।

खाती गांव

खाती इस एरिया का आखिरी और सबसे बड़ा गांव है। खाती गांव के सरकारी स्कूल से 18 किलोमीटर ऊपर पंखू टॉप से कुमाऊं की चोटियों और ग्लेशियर का सबसे खूबसूरत नजारा दिखता है, जोकि चिल्टा टॉप से भी अधिक दर्शनीय होता है। इस तरह के नजारे सबसे खूबसूरत सुबह ही दिखते हैं, इसलिए आपको 2 दिन का वक्त लगाना पड़ेगा।

9 जून की सुबह यहाँ से द्वाली पड़ाव के लिए निकल लिया, बीच में कोई गांव नहीं है केवल हरे-भरे घनघोर जंगल, बंदर और लंगूर। गांव से 4 किलोमीटर आगे निगलिया धारा के पास पिंडारी नदी पर 2013 की बाढ़ के बाद 162.42 लाख की लागत से एक सस्पेंशन ब्रिज बनाया गया है।

थोड़ा आगे एक खूबसूरत झरना और पास में ही चारखोला नाम की एक दुकान है, दुकानदार साहब खाती गांव के हैं। घर से अपने खाने के लिए मैक्रोनी और रोटी लाए थे इसी खाने में मेरा भी हिस्सा लगा। सुबह के नाश्ते के बाद एक घंटा आराम किया और फिर यात्रा शुरू हुई 6 किलोमीटर चलने के बाद द्वाली तो आ गया, लेकिन इसके बाद 2 किलोमीटर लंबा बुल्डरों का जंगल है।

खाती गांव

न्हीं के बीच से पिंडारी और कफनी नदी पार करके पीडब्ल्यूडी या कुमाऊं मंडल विश्रामगृह पहुंच सकते हैं। 2013 के महाविनाशनी बाढ़ ने 2 किलोमीटर लंबे घास के मैदान को बुल्डरों की दुनिया में तब्दील कर दिया था। विनाश के समय द्वाली में 200 से अधिक लोग इकट्ठे हो गए थे, इनमें से आधे कीड़ा जड़ी निकालने वालों की तादाद थी।

3 दिनों तक लोगों की भूख को पेड़ की पत्तियों ने शांत किया। बचाव दल के हेलीकॉप्टर को पानी के सिवा कुछ भी नहीं दिखा। पानी उतरने के बाद जब सारे लोग नीचे खाती गांव को चले गए तब राहत सामग्री के हेलीकॉप्टरों ने बिस्कुट और मैगी के पैकेट गिराए थे।

 

जैकुना गांव में हुक्का पीती ग्रामीण महिला

2013 की बाढ़ सही मायने में जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा उदाहरण है। हर साल लगभग 10 दिनों की यूनाइटेड नेशन क्लाइमेट चेंज की मीटिंगें होती हैं और हमेशा ही बेनतीजा रहती हैं। क्योंकि इसकी नुमाइंदगी करने वाले लोग उस 1 % आबादी के प्रतिनिधि होते हैं, जो कि दुनिया की 50 % संसाधनों पर कब्जा किए बैठे हैं।

दो नदियों पिंडारी और कफनी का संगम होने के कारण इसका नाम नाम द्वाली पड़ा है। दोपहर को यहां के कुमाऊं मंडल रेस्ट हाउस में डेरा डाल दिया था।

हां से पिंडारी और कफनी ग्लेशियर पिंडारी का रास्ता अलग हो जाता है। अगले दिन फुरकिया नामक पड़ाव जो द्वाली से मात्र 5 किलोमीटर दूर है जाकर रुक गया। फुरकिया इस एरिया का आखिरी पड़ाव है, यहां पर पानी की सुविधा बहुत अच्छा नहीं है। नदी के दूसरी तरफ एक बहुत बड़ा झरना है जो ऊपर बर्फीली चोटियों से लगभग 100 मीटर नीचे नदी में गिरते ही जमकर पिण्डारी नदी के ऊपर एक पुल जैसी संरचना बना देता है। इस तरह के दृश्य अब यहां से आगे आम हो जाते हैं।

सुंदरडुंगा ग्लेशियर

11 जून को सुबह 6:00 बजे फुरकिया से 8 किलोमीटर दूर पिंडारी ग्लेशियर के जीरो पॉइंट की की यात्रा शुरू हुई। रास्ते में बहुत सारे छोटे-छोटे बर्फीले नालों को पार करना पड़ता है। कहीं-कहीं नदी इन्हीं बर्फीली नालों के नीचे से बहती है।

कुछ लोगों की हिम्मत फुरकिया में ही जवाब दे गई और रात को ही दो ग्रुप ने यहां से वापस हो जाने का तय कर लिया था। फुरकिया पेड़ों की आखिरी सीमा है, यहां से लैंडस्केप एकदम बदल जाता है बर्फीली चोटियां उसके नीचे घास के मैदान सबसे नीचे पत्थरों को घिसती और भयानक शोर करती हुई पिंडारी नदी। नदी के दोनों तरफ बड़ी संख्या में भेड़, बकरी घोड़े, खच्चर इनके बीच चरवाहों और कीड़ा जड़ी निकालने वालों की झोपड़ियां दिखाई देंगी।

न करता है कि चरवाहा बन जाऊं और यही जिंदगी गुजार दूँ, काश मैदानी इलाकों की रंगीनी को छोड़ना इतना आसान होता। इन्हीं ख्वाबों में 6 किलोमीटर का सफर कब खत्म हो गया पता ही नहीं चला। आखिरी बर्फीली नाले को पार करते ही एक महिला ने ध्यान भंग किया। हमेशा की तरह कौन हैं, कहां से, अकेले, बहुत सारे सवाल। इनके अनुरोध पर इन्हें यह नाला पार करवा दिया। नाले के बाद रास्ता दाहिनी तरफ मुड़ दाहिनी तरफ मुड़ जाता है और नदी की आखिरी सीमा दिखाई देने लगती है।

नवली धार, नंदा खाट,और छांगुछ तथा इनकी उप चोटियां इसके बाद 3 किलोमीटर लंबा-चौड़ा बरफ और घास का मैदान इन्हीं के बीच एक मंदिर।

पिंडारी ग्लेशियर के दूसरी तरफ नंदा देवी ईस्ट और नंदा देवी के चोटियों की श्रृंखला शुरू होती है। यहां मौजूद ताला लगे मंदिर का देवता अकेले दांत किटकिटाने को मजबूर, जब बरसात बाद ताला खुलेगा तो शायद हड्डियां भी न मिल सके! इसी वीराने में रोटी और अचार खा कर अपनी जठराग्नि शांत की, लेकिन पिंजरे में बंद भगवान पर थोड़ा तरस भी आया पर कुछ कर न सका। एक घंटा विश्राम के बाद इस लाचार साथी को आखिरी सलाम किया।

खेती, कीड़ा जड़ी और टूरिस्टों से होने वाली आमदनी इस इलाके के मुख्य आय के स्रोत हैं। गेहूं, आलू और राजमा इस इलाके के मुख्य फसल हैं। इस समय लोग राजमा बोने के लिए खेत तैयार करते दिखे। लोग गाय पालते हैं और गोबर तथा पेड़ की पत्तियां खाद के रूप रूप में प्रयोग की जाती हैं।

स बार अधिक बर्फबारी के कारण कीड़ा जड़ी निकलने वाले निराश हैं, जड़ी घास हफ्ते में एकाध मिल जाए तो बड़ी बात है। इस बार 1000-1200 रुपए एक जड़ी का दाम है।

गोदरेज ग्रुप ने (PPP मॉडल) के तहत इस एरिया के आर्थिक उत्थान के लिए सरकार से 2021 तक का करार किया है। पानी की सुविधा तो हो गई है लेकिन पानी की गुणवत्ता के लिए सालिड डिसॉल्व ट्रीटमेंट प्लांट जैसी कोई पहल नहीं की गई है, जबकि द्वाली में प्रतिदिन पिंडारी नदी के पानी का सैम्पल से प्रति लीटर TDS के आंकड़े लिये जाते हैं।

र नल की टोटी से पानी वैसे ही बहता दिखेगा, जैसे बच्चों के नाक से नेटा बहता हुआ दिखता है और साथ में हंस जलधारा का प्रचार जरूर दिखेगा। रोजगार और स्वास्थ्य के विषय में कुछ भी नहीं किया गया है। ग्रामीणों को सोलर पैनल और लाइट बांटे गए हैं, लेकिन इन पर्वतीय इलाकों में जहां साल के आधे दिन कोहरा और बादल होता है इस तरह की सुविधा का कुछ खास मतलब नहीं होता है।

2 साल बाद 2021 में गोदरेज ग्रुप का कितना आर्थिक उत्थान हुआ या ग्रामीणों का उत्थान हुआ, इसका ऑडिट करने वाला कोई नहीं होगा, क्योंकि एक बहुत मोटा चंदा जो सरकार में बैठी पार्टी है उसको मिल चुका होगा।

सलिए वाछम ग्रामसभा के सभी 365 मतदाताओं जिसमें जैकुनी, फुरकिया इत्यादि गाँव शामिल हैं तथा मजुआ डोला ग्राम सभा के मतदाताओं ने 11 अप्रैल लोकसभा चुनाव के मतदान का पूर्णतया बहिष्कार किया था। इन ग्रामीणों के आंदोलन की बुनियादी वजह रोड, बिजली, शिक्षा, डिजिटल इंडिया का मायावी सपना, स्वास्थ्य और पिंडारी ग्लेशियर को पांचवा धाम घोषित करना था। शायद सरकारें देश के नागरिकों के बुनियादी जरूरतों की अपेक्षा सोना चांदी ढूंढ़ने या झगड़ालू राष्ट्र प्रेम को ज्यादा तरजीह देती हैं। सरकारी उपेक्षा के कारण पलायन का रोग यहां भी एक बड़ी समस्या बन चुका है।

पिंडारी ग्लेशियर से संबंधित गांवों के लोग हिंदू धर्म के अनुयायी हैं और नंदा देवी इनके धार्मिक मान्यताओं से बहुत गहरे से जुड़ी हैं। इसके अलावा प्रकृति का स्वामी इंसान समतल लोगों की तरह बन्दर, हनुमान और गायों के सामने घुटने तो टेकता ही है।

न पर्वती इलाकों को देखकर लगता है कि लगता है कि जो भी मेहनत का काम है चाहे वह घर से संबंधित हो या कृषि से वह महिलाओं के जिम्मे निर्धारित है। अधिकांश सवर्ण जाति के पुरुष फौज में या सरकारी विभागों में मिल जाएंगे। सबसे बुरी दशा दलित और नौजवानों की है जिनके पास केवल तीन ही विकल्प बचते हैं ड्राइवर बनना, खच्चर और घोड़े के साथ चलना और गाइड कम पोर्टर का काम करना है।

न तीनों कामों में हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, जिस कारण ये 45 वर्ष तक पहुंचते ही ये बुजुर्ग जैसे दिखने लगते हैं। यही हाल महिलाओं का है। खाती गांव में एक मां-बेटी खेत में काम कर रही थीं। मां को देखकर लगा कि वह छोटी सी बच्ची की कहीं दादी तो नहीं है और जब यह सवाल मैंने उसके मां से किया तो वाकई मुझे शर्मिंदगी का अहसास हुआ।

पिंडारी ग्लेशियर की तरफ पूरे 1 साल में लगभग 1000 टूरिस्ट ही आते हैं और यदि इसकी तुलना चार धाम के दर्शनार्थियों से की जाए तो यह संख्या कहीं भी नहीं बैठती, इसलिए यहां के ग्रामीण इसे पांचवां धाम बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

राजमा की खेती का काम करती ग्रामीण महिलाएं

न 4000 मीटर ऊँचे बर्फीले ढलानों से कीड़ा जड़ी ढूँढ़ना इतना आसान नहीं है। इस ऊंचाई पर एक खास किस्म के कीड़े के मरने के बाद उसकी झिल्ली से मई के महीने में बर्फ की पतली चादर पिघलने से यह पौधा पनपता है, इसके अलावा मौसम के ऊपर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। इसका प्रयोग प्राकृतिक स्टेरॉयड के रूप में एथलीटों को दिया जाता है, जोकि डोप टेस्ट के दौरान पकड़ में नहीं आता है, इसके अलावा इससे यौनवर्धक दवाएं बनाई जाती है।

पुराने समय में तिब्बती वैद्य इसका उपयोग किडनी और फेफड़े की बीमारियों के लिए जीवन रक्षक दवा की तरह करते थे और 1959 से पहले कैलाश मानसरोवर के यात्री अपनी उर्जा को बनाए रखने के लिए इसका सेवन करते थे। इसका दोहन और व्यवसायीकरण करने के लिए चीन के लोग उत्तरदायी हैं।

सफेद बुरांश

स तरह पिंडारी ग्लेशियर को देखते हुए उस दिन कुल 21 किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद द्वाली पहुंच गया। अगले दिन सुबह खाती गांव होते हुए 18 किलोमीटर चलने के बाद खरकिया 11:30 बजे और यहां से ₹ 1300 में एक गाड़ी द्वारा 40 किमी के बाद कपकोट पहुंचने के साथ ही मेरी इस यात्रा का समापन हो गया।

हिन्दी वैब पत्रिका ‘जनज्वार’ से साभार