हिंदी से तमिलनाडु का झगड़ा पुराना रहा है. कहते हैं, 1928 में मोतीलाल नेहरू ने हिंदी को भारत में सरकारी कामकाज की भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा तो तमिल नेताओं ने विरोध किया.
10 साल बाद महान तमिल नेता सी राजागोपालाचारी ने हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव दिया तो फिर तमिल नेता इसके विरोध में खड़े हो गए. तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री अन्ना दुरई के हिंदी विरोध की कहानी वहीं से शुरू होती है.
बरसों बाद- संभवतः 1960 में- अन्ना दुरई ने वह मशहूर भाषण दिया जिसमें उन्होंने हिंदी के संख्या बल के तर्क पर सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि शेरों के मुक़ाबले चूहों की संख्या ज़्यादा है तो क्या चूहों को राष्ट्रीय पशु बना देना चाहिए?
उन्होंने पूछा कि मोर के मुक़ाबले कौवों की संख्या ज़्यादा है तो क्या कौवों को राष्ट्रीय पक्षी बना देना चाहिए? वैसे तमिलनाडु में जो बहुत मुखर विरोध थे, उनकी कुछ अभिव्यक्तियां महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल तक में सुनाई पड़ती थीं- यानी उन प्रदेशों में जहां लोग मानते थे कि उनकी भाषा हिंदी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा प्राचीन और समृद्ध हैं.
वैसे राष्ट्र-निर्माण में भाषाओं की अहमियत हमारे राजनेताओं को समझ में आती थी. उन्होंने देखा था कि यूरोप धार्मिक और सांस्कृतिक तौर पर एक होने के बावजूद सिर्फ़ भाषिक आधार पर अलग-अलग देशों में बँटा है.
यही नहीं भाषाओं की शक्ति उनकी अपनी आंतरिक गति, शब्द संख्या, संप्रेषण-क्षमता या साहित्यिक समृद्धि से नहीं, उन्हें बोलने वाले देशों की शक्ति से आती है.
भाषिक विविधता का सवाल
आज़ादी की लड़ाई के दौरान भाषाओं के आधार पर राज्यों के विभाजन को लेकर कांग्रेस के भीतर लगभग आम सहमति थी. महात्मा गांधी ने 10 अक्टूबर 1947 को अपने एक सहयोगी को लिखी चिट्ठी में कहा, ”मेरा मानना है कि हमें भाषिक प्रांतों के निर्माण में जल्दी करनी चाहिए…..कुछ समय के लिए यह भ्रम हो सकता है कि अलग-अलग भाषाएं अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, लेकिन यह भी संभव है कि भाषिक आधार पर प्रदेशों के गठन के बाद यह ग़ायब हो जाए. जब मुझे समय मिलेगा तो मैं इस पर लिखूंगा.” नेहरू भी भारत की भाषिक विविधता को सम्मान से देखते थे.
लेकिन सांप्रदायिक आधार पर हुए विभाजन के बाद नेहरू और पटेल दोनों इस राय के हो चुके थे कि अब भाषिक आधार पर किसी विभाजन की ज़मीन तैयार न हो. जबकि उस दौर में पंजाब, मद्रास और बंबई में भाषिक आधार पर राज्यों के बँटवारे को लेकर आंदोलन तीखे हो रहे थे.
सबसे तीखा आंदोलन मद्रास के तेलुगू भाषी लोगों ने छेड़ा. गांधीवादी नेता पोट्टी श्रीरामुलू अलग तेलुगू राज्य के गठन के लिए आमरण अनशन पर बैठे जो 50 दिन से ज़्यादा चला और अंततः उनके देहावसान के साथ ख़त्म हुआ.
इसके बाद भड़के आंदोलन के दबाव में आंध्र को अलग करने का फ़ैसला लेना पड़ा. बाद में राज्यों के भाषिक आधार पर पुनर्गठन की कहानी सर्वविदित है. हालांकि इस भाषिक पुनर्गठन ने बताया कि इसके आधार पर किसी नए विभाजन का अंदेशा काल्पनिक था.
लेकिन नए भारत के नवगठित राज्यों की भाषाओं और हिंदी के बीच का रिश्ता क्या हो, यह सवाल उलझन भरा रहा. संविधान सभा ने राजकाज की भाषा के तौर पर 15 साल के लिए अंग्रेज़ी को मान्यता दी थी जो ग़ैरहिंदीभाषी राज्यों के विरोध की वजह से अब तक बनी हुई है. त्रिभाषा फॉर्म्युला इस भाषाई संकट को हल करने की एक कोशिश थी जिसमें हिंदी, अंग्रेज़ी और एक मातृभाषा पढ़ने का सुझाव था.
त्रिभाषा फॉर्मूला
तमिलनाडु में हिंदी को लेकर ताज़ा विवाद भी- दिलचस्प है कि इसी पुराने फार्मूले की वजह से पैदा हुआ है. हालांकि केंद्र सरकार अब कह रही है कि त्रिभाषा फार्मूले का यह प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं है. लेकिन सवाल है कि यह बहुत संतुलित दिखने वाला फार्मूला इन तमाम वर्षों में किसकी वजह से फेल हुआ? निश्चय ही इसका दोष हिंदी भाषी प्रदेशों पर आता है.
ग़ैर हिंदी भाषी प्रदेशों के छात्रों ने अंग्रेज़ी-हिंदी के साथ कहीं तमिल पढ़ी, कहीं तेलुगू और कहीं मराठी और कहीं बांग्ला, लेकिन हिंदी भाषी प्रदेशों के छात्रों ने संस्कृत को अपनी तीसरी भाषा बना लिया जो देश के किसी भी हिस्से में प्रमुखता से बोली नहीं जाती.
निस्संदेह संस्कृत एक प्राचीन और समृद्ध भाषा है जिसका अलग से अध्ययन होना चाहिए, लेकिन इसे त्रिभाषा फार्मूले में फिट कर हिंदी भाषी प्रदेशों ने ग़ैर हिंदी भाषी प्रदेशों से अपनी जो दूरी बढ़ाई, वह लगभग अक्षम्य है.
आज अगर हिंदी भाषी भी बड़ी तादाद में तमिल, तेलुगू, मराठी या बांग्ला बोल रहे होते तो वह हिंदी विरोध इन 50 वर्षों में काफी कुछ कम हो चुका होता जो आज एक प्रस्ताव भर से नए सिरे से भड़कता नज़र आता है.
वैसे हिंदी प्रेम या हिंदी विरोध के इन ध्रुवों की त्रासदी और भी है. आज की तारीख़ में हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं वे सौतेली बहनें रह गई हैं जिनकी अम्मा अंग्रेज़ी है. अंग्रेज़ी में ही देश का राजकाज चलता है, कारोबार चलता है, विज्ञान चलता है, विश्वविद्यालय चलते हैं और सारी बौद्धिकता चलती है.
अंग्रेज़ी का विशेषाधिकार या आतंक इतना है कि अंग्रेज़ी बोल सकने वाला शख़्स बिना किसी बहस के योग्य मान लिया जाता है. अंग्रेज़ी में कोई अप्रचलित शब्द आए तो आज भी लोग ख़ुशी-ख़ुशी डिक्शनरी पलटते हैं जबकि हिंदी का ऐसा कोई अप्रचलित शब्द अपनी भाषिक हैसियत की वजह से हंसी का पात्र बना दिया जाता है. पिछले तीन दशकों में हिंदी की यह हैसियत और घटी है. पूरे देश में पढ़ाई-लिखाई की भाषा अंग्रेज़ी है और हिंदी घर में बोली जाने वाली बोली रह गई है.
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अंग्रेज़ी ने किया बेदख़ल
70 और 80 के दशकों में जो छात्र स्कूल में हिंदी और घर पर मगही, मैथिली, भोजपुरी बोलते थे आज उनके बच्चे स्कूलों में अंग्रेज़ी और घरों में हिंदी बोलते हैं.
यानी अंग्रेज़ी ने हिंदी को बेदख़ल कर दिया है और हिंदी ने बोलियों को. बहुत सारे लोगों को यह बात प्रमुदित करती है कि हिंदी को बाज़ार की वजह से बहुत बढ़ावा मिला है.
हिंदी फ़िल्में देश-विदेश जा रही हैं, हिंदी के सीरियल हर जगह देखे जा रहे हैं, कंप्यूटर और स्मार्टफोन में हिंदी को जगह मिल रही है, इंटरनेट पर हिंदी दिख रही है, लेकिन वे यह नहीं देखते कि यह अंततः एक बोली के रूप में हिंदी का इस्तेमाल है जो बाज़ार कर रहा है. हिंदी विशेषज्ञता की भाषा नहीं रह गई है.
हिंदी फ़िल्मों के निर्देशक और कलाकार अंग्रेज़ी बोलते हैं और हिंदी टीवी चैनलों और अख़बारों के संपादक अंग्रेज़ी के लोग होने लगे हैं. कुछ साल पहले वाणी प्रकाशन के एक आयोजन में उदय प्रकाश, सुधीश पचौरी, और हरीश त्रिवेदी के साथ इन पंक्तियों का लेखक हिंदी के सवाल पर संवादरत था.
हरीश त्रिवेदी ने कहा कि हिंदी का हाथी बाज़ार में बहुत शान से चल रहा है. इस लेखक ने ध्यान दिलाया कि इस हाथी पर अंग्रेज़ी का महावत बैठा हुआ है.
हिंदी के इस दुर्भाग्य को कुछ और करीने से देखना हो तो यह देखना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में जो तकनीकी विकास हुआ है, उसके लिए अपनी कोई शब्दावली गढ़ने में हिंदी बुरी तरह नाकाम रही है, बल्कि उसने इसकी कोशिश भी नहीं की है जबकि एक दौर था जब अंग्रेज़ी के तकनीकी शब्दों के बहुत सुंदर अनुवाद हिंदी में हुए और वे चले भी. आज हिंदी ऐसे नए शब्द गढ़ने का अभ्यास और उन्हें चला सकने का आत्मविश्वास खो चुकी है.
जो हाल हिंदी का है, संभवतः बहुत दूर तक दूसरी भाषाओं का भी. तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी बांग्ला में प्रकाशनों और कामकाज की स्थिति पहले जैसी नहीं रही. अंग्रेज़ी पर उनकी निर्भरता बढ़ रही है. तमाम राज्यों के पाठ्यक्रम में अंग्रेज़ी को अनिवार्य किया जा रहा है.
तमिलनाडु के विरोध का अर्थ
ऐसे में तमिलनाडु के हिंदी विरोध का प्रतीकात्मक अर्थ जो भी हो, उसका वास्तविक अर्थ बहुत बचा नहीं है. सच तो यह है कि अब हिंदी और तमिल समेत सभी भारतीय भाषाओं को अंग्रेज़ी के साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ मिल कर लड़ने की ज़रूरत है.
दुर्भाग्य से भाषाएं अब किसी भी राजनीतिक पार्टी के एजेंडे पर नहीं हैं. कभी समाजवादी लोग हिंदी और भारतीय भाषाओं का आंदोलन चलाते थे. संघ और जनसंघ हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की बात करते थे. लेकिन उनकी हिंदी उस उर्दू से झगड़ा करती रही जिसकी एक शाखा के रूप में वह विकसित हुई और जिसके बिना सहज बोलचाल में उसका काम नहीं चलता रहा.
हिंदी की श्रेष्ठ कविता अपनी सारी उत्कृष्टता और अपने सारे वैभव के बावजूद एक ऐसी भाषा में है जिसे बहुसंख्यक हिंदी भाषी भी सीधे-सीधे नहीं समझ पाते.
बहरहाल, तमिलनाडु को इस हिंदी विरोध की ज़रूरत नहीं पड़ेगी- एक तो इसलिए कि हिंदी वाक़ई किसी पर थोपी नहीं जा रही और दूसरे इसलिए कि हिंदी हमारी सरकार के एजेंडे पर नहीं है. उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बहुत सीमित दृष्टि वाला है जिसमें भाषा को लेकर कोई आग्रह नहीं है. इसलिए ऐसा कोई प्रस्ताव होगा तो वह वापस हो जाएगा.
लेकिन यह सवाल फिर भी मौजूं है कि क्या भारतीय राष्ट्र राज्य को हमेशा-हमेशा के लिए अंग्रेज़ी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के साथ जीने का अभ्यास करना चाहिए या भारतीय भाषाओं के साझे से एक स्वतंत्र-विविधभाषी समाज का निर्माण करना चाहिए.
हालांकि अभी का जो माहौल है, उसमें अंग्रेजी इतनी अपरिहार्य हो उठी है कि ऐसी कोई कल्पना तक हास्यास्पद लगती है.
‘बीबीसी हिन्दी’ से साभार