भारत को हर मामले में एकरंगा बनाने की कोशिश है। कोशिश है कि सत्ता से असहमति को अब लोकतंत्र का सबसे बड़ा गुण न मानकर इसे राष्ट्रद्रोह की सबसे बड़ी पहचान बना दी जाए। ऐसा लोकतंत्र बनाने की कोशिश है जिसमें सत्ता की हां में हां मिलाना ही सबसे बड़ी राष्ट्रभक्ति हो।
आजाद भारत में शायद यह पहला मौका होगा जब देश के अलग-अलग हिस्सों में एक वक्त पर संविधान की इतनी शिद्दत के साथ चर्चा हो रही है। सुप्रीम कोर्ट के वकील हों या दिल्ली के शाहीनबाग, गया, कानपुर, अररिया, बेंगलुरू की महिलाएं या फिर देश के नामचीन शैक्षिक संस्थानों के स्टूडेंट- सब संविधान की याद दिला रहे हैं। इस संविधान में कुछ तो ऐसा है, जिसने इतने सारे लोगों को एक साथ जोड़ दिया है। वैसे, इसे समझने के लिए बहुत दिमाग लगाने की जरूरत भी नहीं है। सिर्फ संविधान का पहला पन्ना ही हम गौर से देख लें, पढ़ और समझ लें तो इन करोड़ों भारतवासियों की इससे लगाव की वजहें साफ हो जाती हैं।
ब्रितानी गुलामी से मुक्ति की जद्दोजहद के दौरान और आजादी के बाद नए भारत को जैसा बनाने का ख्वाब हमारे स्वतंत्रता सेनानी देख रहे थे, उन सबका निचोड़ संविधान का पहला पन्ना यानी उसकी प्रस्तावना में बहुत हद तक देखा जा सकता है। यानी भारत का चरित्र कैसा होगा? यह अपने लोगों को किस रूप में देखेगा? यह उन्हें क्या देगा? यह समाज से क्या खत्म करेगा? ‘हम नागरिकों’ के साथ कैसा सुलूक किया जाएगा?
अब थोड़ा और विचार करते हैं। जब हम भारत कहते हैं तो हमारे जेहन में किस तरह के देश का ख्याल आता है? या कोई हमें भारत के बारे में कुछ बोलने या लिखने के लिए कहता है तो हमारे जहन में किस तरह की तस्वीर उभरती है? किस तरह का नक्शा उभरता है? किस तरह का रंग उभरता है? क्या वह भारत किसी एक धर्म, एक जाति, एक भाषा, एक लिंग, एक इलाका, एक रंग, एक मौसम, एक नैन-नक्श, एक खान-पान, एक विचार या सीधी सपाट रेखाओं वाला भारत होता है?
इन सवाल के जवाब में ही भारत के संविधान की ताकत छिपी है। यही नहीं, इन सवालों का जो जवाब संविधान देता है, वही भारत कहलाता है। वही भारत का चरित्र है।
अरसे से स्कूली किताबों की एक पसंदीदा लाइन है: भारत विभिन्नताओं में एकता वाला देश है। विभिन्नता यानी, धर्मों की, बोली-बानी की, विचारों की, मौसम की, यौनिकता की, खान-पान की, लिबास की, विचारों की, नैन-नक्श की, रंगों की, त्योहारों की, शादियों की….वगैरह…वगैरह। और तो और उत्तर-दक्षिण के एक ही धर्म के मानने वालों के बीच विभिन्नता है। इसे ही तो बहुलता कहते हैं न! भरा बहुरंगी समाज कहते हैं। क्या यही भारत नहीं है? क्या ऐसे ही भारत का ख्वाब आजादी के लिए लड़ने वालों ने नहीं देखा था?
एक तरफ, संविधान बहुलताओं वाले इंद्रधनुषी भारत बनाने की जमीन तैयार करता है तो दूसरी ओर, हमसे ऐसी विभिन्नताओं को खत्म करने का वादा करता है, जो गैरबराबरियां पैदा करती हैं। यानी हर तरह की सामाजिक गैरबराबरियों से परे विभिन्नता/बहुलता- इसकी रूह है। यानी यह जातीय जकड़न, जेंडर गैरबराबरी, धार्मिक गैरबराबरी, पैसे की गैरबराबरी … और भी जितनी तरह की गैरबराबरियां हैं,… सबके खिलाफ है। इनकी वजह से होने वाली नाइंसाफियों के खिलाफ है। नफरत के खिलाफ है।
भारत में सामाजिक समता और समानता लाने की बात करता है। ये बातें इतनी साफ तौर पर इसे इसलिए करनी पड़ीं क्योंकि हमारा भारत सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरियों वाला देश भी है। इसलिए उसने वादा किया कि भारत की रंगीनियत की हिफाजत होगी लेकिन किसी एक रंग को दूसरे पर तरजीह नहीं दी जाएगी। जो रंग तरजीह की सत्ता और ताकत का इस्तेमाल दूसरे रंगों को दबाने या खत्म करने के लिए करेगा, उसकी जगह भारत में नहीं होगी।
सबसे बढ़कर, संविधान भारत के लोगों की बात करता है। भारत के लोग, जो हम सब हैं। वह हम सब लोगों को बिना कोई पहचान देखे, बराबर का इंसान मानने और इंसान की इज्जत देने की बात करता है।
इसीलिए यह बेआवाजों, सदियों से दबाकर रखे गए वंचितों, गरीबों की आवाज बन जाता है। यानी यह महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, हर तरह के अल्पसंख्यकों, हक से महरूम हर तरह के वंचितों की आवाज है। यही संविधान, ऐसे सारे समूहों, समुदायों और लोगों का सबसे बड़ा सहारा है। यह न सिर्फ ऐसे लोगों को सम्मान से जीने की गारंटी देता है, बल्कि गैरबराबरियों, नाइंसाफियों के खिलाफ लड़ने और अपने हक के लिए आवाज बुलंद करने का सबसे बड़ा और मजबूत अहिंसक हथियार भी है। यही भारत की ताकत है। दुनिया में सम्मान से पहचान बनाने का दस्तावेज है। और, अभी तो पुरखे-पुरखिनों के ख्वाब का देश बना भी नहीं और ऐसे भारत की सोच पर खतरा मंडराने लगा है।
गैरबराबरियों से आजादी की उठती आवाज को फड़कती भुजाओं से रोकने की कोशिश है। खान-पान का धर्म तय किया जा रहा है। बलात्कारी की धर्म तलाशने की आदत डलवाई जा रही है। हर गलत बात और नाइंसाफी पर बोलने से पहले धर्म का चश्मा पहनकर देखने को कहा जा रहा है। यही नहीं, संविधान की कसम खाने वाले उसके उसूलों को बेझिझक तोड़ने में जुटे हैं। कुछ लोगों को ‘हम भारत के लोगों’ की आवाज, दुश्मन की आवाज सुनाई दे रही है। तब ही तो हमारी आवाज खामोश करने और हमसे बदला लेने की बात की जा रही है।
सोचने और बोलने पर पहरा लगाने की कोशिश है। दिमागों को काबू में कर उन्हें रिमोट से काबू करने की कोशिश है। जो आंख में आंख डालकर बोलने की हिम्मत कर रहे हैं… जो किसी भी सूरत में खामोश रहने को राजी नहीं, उन्हें खामोश करने के हर तरीके आजमाए जा रहे हैं। आजाद सोचने वाले कुछ बहादुर दिमागों को तो हमेशा के लिए खामोश कर भी दिया गया। यह सब उसी संविधान के उसूलों के खिलाफ है, जिससे हमारा भारत मस्तक ऊंचाकर दुनिया के सामने खड़ा रहता है।
इसलिए इस वक्त की सबसे बड़ी लड़ाई इस संविधान के उसूलों की हिफाजत की है। जिनके पास सब कुछ है या बहुत कुछ है या जो सामाजिक-आर्थिक ताकत/सत्ता पर यकीन है, उनके लिए भले ही संविधान महज एक किताब हो मगर करोड़ों भारत के लोगों के लिए संविधान कोई मुर्दा नहीं, जिंदा धड़कती किताब है। इसलिए उनके लिए संविधान को बचाना, भारत को बचाना है। खुद को बचाना है।
कितना दिलचस्प है न कि हम एक ऐसी किताब के बारे में बात कर रहे हैं, जो किसी मजहब की पहचान नहीं है! किसी खास पार्टी के खास तरह के ख्याल को बताने वाली किताब नहीं है! सभी मजहब वाले साथ-साथ इसका पाठ कर रहे हैं। हाथ में लिए खड़े हैं। सभी इसके साये में अपने को महफूज समझ रहे हैं। वाकई दुनिया के इतिहास में यह उन किताबों की फेहरिस्त में अगुआ होगी, जिन्होंने न सिर्फ लोगों को झिंझोड़ा, जगाया है बल्कि उन्हें देश, समाज और अपनी जिंदगी के लिए लड़ने की हिम्मत दी। इसके चंद शब्द कितने करामाती निकले- हम भारत के लोग, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र, समता, न्याय, आजादी, बंधुता, गरिमा, एकता… विभन्नता में एकता!
हिन्दी वैब पत्रिका ‘नवजीवन’ से साभार