विनोद पाण्डे
टेक्नोलॉजी का अर्थ हम समझते हैं और चमत्कार का भी। इसलिए हरित भ्रम को समझाना जरूरी है। जब से दुनियाँ में ये समझ पैदा हुई कि प्रकृति और पर्यावरण खतरे में है और मनुष्य के दीर्घकालीन अस्तित्व के लिए इसे बचाना जरूरी है। इसे बचाने के लिए प्रयासों की जरूरत हुई। दरअसल प्रकृति और मनुष्य के बीच के रिश्तों मे सबसे बड़ी अड़चन लालच है। इसको बहुत पहले महात्मा गांधी ने पहचान लिया था और कहा था कि प्रकृति हर व्यक्ति की जरूरतें पूरी कर सकती है पर एक भी व्यक्ति के लालच को पूरा नहीं कर सकती। इसलिए प्रकृति या पर्यावरण को बचाने का एक ही रास्ता है वह यह कि मनुष्य अपनी जरूरतें घटाये। यह मजेदार बात है कि मनुष्य की हर जरूरत किसी न किसी तरह प्रकृति को ही प्रभावित करती है। इसलिए प्रकृति को बचाने के लिए जब प्रयासों की शुरूआत हुई तो अपनी जरूरतें कम करने के बजाय मनुष्य ने ऐसी चीजें इजाद करनी शुरू की कि आभास हो कि “कुछ हो रहा है”। मसलन वृक्षारोपण अभियान, क्षतिपूरक वृक्षारोपण, बड़े परिपक्व पेड़ को काटने के बजाय समूचा उखाड़ कर कहीं लगा देना, कागज के बदले डिजीटल साधन, एसी को 2-3 डिग्री अधिक में चलाना, एक घंटा बिजली कम जलाना आदि। इस तरह के कामों से सरसरी तौर पर लगता है कि “कुछ” तो हो रहा है। फिर कुछ आशावान लोग कहते हैं कि कुछ न होने से कुछ तो हो रहा है। कुछ अच्छा ही तो होगा। इस तरह के कामों को वास्तव में हरित भ्रम या ग्रीन वाशिंग का नाम दिया गया है। ईमानदार पर्यावरणवादी मानते हैं इस तरह के प्रयास वास्तव में मूल प्रश्नों को ही भटका देते हैं, इसलिए पर्यावरण का नुकसान करते हैं। ग्रीन वाशिंग का शाब्दिक अर्थ होता है हरी पुताई। पुताई का मतलब हम लोग समझते हैं, जब घर खराब होने लगती है तो उसे सुंदर दिखने के लिए उस पर पुताई कर दी जाती है। इससे इस बात का फर्क नहीं पड़ता है कि घर में मजबूती आयी या नहीं। अलबत्ता घर के अच्छा दिखने से आभास होता है कि मजबूती आ गयी है। ग्रीन वाशिंग का पर्यावरण से यही रिश्ता है।
जिस संदर्भ में आज ये बात करना चाह रहा हूं वह ये है कि कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र जो वन विभाग के सर्वोच्च पद से कई साल पहले रिटायर हो गये थे, ने व्हाट्स अप में एक मैसेज फॉरवर्ड किया था। ये मैसेज उत्तराखण्ड वन विभाग द्वारा तैयार किया गया है और बताया गया है कि अब वन विभाग किस तरह पर्यावरण को बचाने के लिए टैक्नोलॉजी का प्रयोग कर रहा है। इसमें बताया गया था कि वन विभाग अब पेड़ों को दुर्गम क्षेत्रों में लगाने के लिए आधुनिक तकनीकों का प्रयोग कर रहा है। इसके लिए सीड बॉलों को दुर्गम इलाकों में ड्रोन के माध्यम से इन्हें गिराया जायेगा। सीड बॉल मिट्टी और गोबर में बीज डालकर गोले जैसे बना लिए जाते हैं। उन्हें फिर सुखाया जाता है। कहा गया है कि कुछ समय बाद वहां इन बीजों से पेड़ उग जायेंगे। निश्चित रूप से वह इलाका हरा भरा हो जायेगा। सुनने और देखने में कितने अच्छे लगते हैं इस तरह के प्रयास। दुर्गम इलाकों के लिए इतने “गंभीर” प्रयास और सुगम इलाको के लिए?
वन विभाग को हमारे देश में पर्यावरण की देखभाल की जिम्मेदारी दी गई है। अंग्रेजों ने जब वन विभाग को करीब 1860 के आसपास बनाया था तो इसका उद्देश्य था जंगलों को गांव वालों से बचाना और कटवाना। ताकि लगातार जंगलों से कच्चा माल मिलता रहे इसके लिए उसने तकनीकें इजाद की। इन तकनीकों में वही पेड़ उगाये जाते थे जो उद्योगों के मतलब के थे। इसके लिए उन पेड़ों को खत्म किया गया जो गांव वालों और वन्यजीवों के आवास, चारा, पत्ती, जलौनी, दवा भोजन आदि के मतलब के थे। समय बदला और बाद में करीब 100 साल बाद दुनियाँ में समझ आयी कि जंगल केवल पेड़ न होकर पर्यावरण हैं, यानी मानव और जीवों के अस्तिव के लिए ये अनगिनत सेवाऐं देते हैं। वन विभाग जो जंगलों अब तक कटवा कर जंगल को क्रमशः अवनत कर रहा था अब उसे संरक्षित करेगा। जिन पदों का नाम अरण्यपाल था उनका नाम वन संरक्षक कर दिया गया। नाम बदला और काम भी दूसरा दिया पर परिणाम नहीं आये। मसलन पहाड़ों में जो मिश्रित जंगलों को चीड़ के मोनोकल्चर बना दिया गया था और जो अब अवनत हो कर कूरी और काला बांसा के कब्जे में जा चुके हैं, उन्हें ठीक कर मिश्रित जंगलों में बदलने के लिए इनके पास कोई तकनीक नहीं है। कागजों में शायद हो। हमारे पहाड़ों के जंगल किस तरह अपना स्वरूप खो चुके हैं, उसका प्रमाण यह है कि नदी, नाले, गधेरे, सोते लगातार सूखते जा रहे हैं। जंगलों में आग हर साल भयानक होती जा रही है। जंगल के जानवरों का आबादी में घुसना बताता है कि जंगलों में उनका निर्वाह संभव नहीं हो रहा है। तराई का हाल तो और भी बुरा है वहां कभी पारिस्थिकी से सबसे दुर्लभ तंत्र- वैटलैंड थे। वहां पर साल में करीब छह महीने अधिकांश जगहों में दलदल रहता था। दलदल का मतलब है पानी का टेबुल शून्य से भी कम होना। इसलिए कई किस्म के जीव पलते थे। इन जंगलों में खैर, शीशम, हल्दू, गुटेल जैसे चौड़ी पत्ती के पेड़ों के अलावा अनगिनत किस्म की झाड़ियाँ और शाक थे। सत्तर के ही दशक में उद्योगों के कच्चे माल की आपूर्ति के लिए यहां के पेड़ों को कटवाकर उनकी जगह यूकेलिप्टस, सागौन और पौपलर जैसे बाहरी पेड़ लगाये गये। इनके बीच की खाली जगह में खेती के लिए लीज दी गई। खेती के लिए आधुनिक बीज, खाद और कीटनाशकों का प्रयोग हुआ। जंगल की बची खुची विविधता इससे बर्बाद हुई। न्यायालयों के दखल के बाद यहां पर खेती और बाहरी पेड़ लगाने पर रोक लग और आदेश हुआ कि यहाँ के मूल पेड़ों को ही रोपित किया जाय। पर हकीकत ये है कि आज वहां की परिस्थितियाँ यहाँ के मूल वनस्पतियों के अनुकूल नहीं है। नतीजा यह है कि अधिकांश वृक्षारोपण असफल हो रहे हैं। तराई के जंगलों का अधिकांश इलाका बंजर हो गया है, यानी वनस्पति और जीव विहीन। निश्चित रूप से ये बंजरपना अब खरपतवारों को आमंत्रित करेगी और उन्हें खत्म करना असंभव हो जायेगा क्योंकि खरपतवारों में विपरीत स्थितियों में भी बचे रहने की अदभुत क्षमता होती है। ये तो सुगम क्षेत्र है यहाँ जंगल उगाने के गंभीर प्रयास क्यों नहीं हो रहे हैं?
ये पहाड़ और तराई का उदाहरण इसलिए दिया कि प्रकृति बचाने के लिए यहां के जंगलों को मूल रूप में लाना सबसे जरूरी काम था। इस दिशा में चुप्पी है पर बात हो रही है ड्रोन से सीड बॉल गिरा कर दुर्गम स्थानों पर पेड़ उगाना। ये एक चमत्कार जैसे लगता है। अगर इसके पीछे का बजट और कमीशनखोरी की जांच की जाय तो शायद कई और तथ्य सामने आयेंगे। इसके बजाय वास्तव में वन विभाग का कर्तृव्य था कि तराई और पहाड़ के जंगल को उनके मूल रूप में लाने का प्रयास। इसके बजाय हमें ड्रोन का चमत्कार दिखाना ग्रीन वाशिंग या हरित भ्रम का आदर्श उदाहरण है। अलबत्ता इस तरह के मैसेज जनता की पर्यावरण की समझ को भटकाने के लिए बढ़िया मसाला होता है। शातिर नौकरशाह ऐसा भ्रम फैलाते हैं और सीधी-सादी जनता इस भ्रम का शिकार हो जाती है। कुल मिलाकर ये टोटके रवीश कुमार के शब्दों में मध्यवर्गीय कॉलोनियों के रिटायर्ड अंकल आंटियों के बातचीत और व्हाटस अप मैसेजिंग लिए बढ़िया मैटर।
आइंस्टीन ने कहा था- कुछ लोग टैक्नोलॉजी का उपयोग करते हैं और कुछों को इसके लिए उपयोग किया जाता है। यही हो रहा है।