इस्लाम हुसैन
“कैफे काफी डे” यानी आधुनिक व्यापार व व्यवसायिक की डीलिंग का अड्डा सीसीडे, इसका बिजनेस स्लोगन इतना मारू है कि बस पूछा नहीं….. इस बार इस स्लोगन ने हद कर दी…… “ए लौट कैन हेप्पैन ओवर कॉफी” … (कॉफी पर बहुत कुछ हो सकता है)… यहां तक की कॉफी दुकानदार की आत्महत्या भी हो गई!
छ: सात वर्ष पहले दिल्ली में किसी परिचित से मिलना था, उसने मुझे नजदीक के कॉफी डे में बुला लिया, एक विषय पर बात थोड़ी सी होनी थी मैं थोड़ा असहज हो गया, कारण कॉफी डे कि औपचारिकता व माहौल। कॉफी डे का तामझाम और वहां जाने का मतलब, एक लम्बी बातचीत भी हो सकती है और वह मेरे बस की नहीं थी। वह परिचित कॉफी डे में आ गए और बातचीत शुरू हुई और जैसा कि कॉफी डे में परम्परा है आप जितनी देर बैठो, बस…
खाते पीते रहो,
आर्डर देते रहो,
विश लेते रहो,
टिप देते रहो,
तो वर्दीधारी बैरा आर्डर लेने आ गया, मुझसे कॉफी लेने के बारे में पूछा, मैं साफ मुकर गया, कारण साफ था। वहां कॉफी का कम से कम रेट 90 रुपये था, और मैं दो कॉफी के लिए दो ढाई सौ खर्च नहीं कर सकता था। उन परिचित जिनसे सीमित सम्पर्क था और जो कॉफी डे आने के आदि थे, उनके पैसे से कॉफी पीना भी नहीं चाहता था, यद्यपि यह सभ्यता के विरुद्ध था पर मेरी जेब को यह सभ्यता झेलने की सामर्थ्य नहीं थी। इस कारण बात उनकी एक कॉफी तक रही और Lot happened नहीं हुआ।
एक बार बंगलौर में बच्चे कॉफी डे में जबरदस्ती ले गए और जहां मोटा बिल पेटेन्ट किया, फिर घर में आकर मेरा लम्बा चौड़ा उपदेश पिया । पर वह जाते रहते हैं क्योंकि उनका सर्किल ही ऐसा है, पर मेरा नहीं, मैं अर्थात सामान्य आदमी।
तो कॉफी डे पर बहुत कुछ हो सकता है यहां तक कि व्यवसाय के साथ साथ षणयंत्र और आत्महत्या भी। इसके मालिक सिद्धार्थ ने कॉफी डे व्यवसाय में आई उलझनों और कठिनाइयों में उलझ कर नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली, क्योंकि कोई ऐसी कॉफी बनी ही नहीं जो आत्महत्या करने से रोक दे।
अब आते हैं कथित आधुनिक व्यापार के इस तरीके बाजारवाद, खुली अर्थव्यवस्था की विद्रूपता पर, कॉफी डे कोई छोटी मोटी दुकान नहीं थी जिस पर दूध चीनी कॉफी पावडर वाले का इतना कर्ज चढ़ गया कि दुकानदार ने आत्महत्या को चुना या फिर छोटा किसान भी नहीं जो एक फसल खराब होने पर साहूकार के डर के कारण आत्महत्या कर ले, कॉफी डे का मालिक कर्नाटक के प्रभावशाली नेता, बिजनेस टायकून परिवार से था वह पूर्व मुख्यमंत्री का दामाद था और सबसे बड़ी बात यह कि उसके बिजनेस की पूंजी अभी भी 18000 करोड़ है, और वह इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि कुछ सौ करोड़ का सैटेलमेन्ट नहीं कर पाया।
कॉफी डे कोई छोटी मोटी दुकान नहीं थी, 1600 भव्य कैफ़ेटेरिया, 500 एक्सप्रेस स्टोर जिसमें कॉफी की 54000 हजार मशीनें लगी हैं जिनमें हजारों कर्मचारी काम करते हैं। जिसकी कुल पूंजी 18000 करोड़ है और उसमें सिद्धार्थ और उसके परिवार की अकेली पूंजी 10,000 करोड़ थी, इसके अलावा अरबों की सम्पति, 12000 हजार एकड़ में कॉफी प्लान्टेशन, कॉफी प्रोसेसिंग की तीन फैक्टरियां, तीन रिजार्टस, सहित बंगलौर मैसूर में बड़ी सम्पत्तियां थीं। इतना सब होते हुए भी अचानक ऐसा क्या हुआ? कुछ सौ करोड़ के भुगतान का विलम्ब या कर्ज न चुकाने के कारण यह मारा गया यह तो साफ साफ नव उदारवादी, नव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की असफलता की प्रतीक है।
शहर पूंजीवादी व्यवस्था के गढ़ और स्तम्भ हैं। यहीं से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पलती और बढ़ती है। बड़े बड़े उद्योगों में अनवरत उत्पादन होता है, इन फैक्टरियों कारखाने में माल बनाने और बेचने के लिए इन्हीं शहरों में अनवरत गतिविधियां चलती रहती हैं और इन गतिविधियों को संचालित करने वाले हाड़ मांस के इंसान होते हैं। उन्हें इस तेज भागती व्यवस्था में कुछ सुकून के लम्हों की जरूरत होती है।
कॉफी डे वह जगह है जहां इन हाड़मांस की मानवीय मशीनों को कुछ आराम के साथ समझौते, बातचीत, और डील करने का मौका और माहौल देते हैं, वही स्टार होटल रेस्टोरेन्ट वाला बिजनेस, सीक्रेट और पर्सनल टाइप।
सिद्धार्थ ने बढ़ती फैलती हुई इस अर्थव्यवस्था में कॉफी डे का अरबों का साम्राज्य खड़ा कर दिया पर जिस तेजी से अर्थव्यवस्था बढ़ती और उसका बिजनेस बढ़ता, वैसा नहीं हो पाया, हजारों लाखों युवा जो राजनैतिक मूर्खताशाही के कारण अपने रोजगार की अनिश्चितता झेल रहे हैं उनके पास कॉफी डे में कॉफी पीने का बजट नहीं रहा। हां कम्पनी की ओर से आए या कोई डीलिंग करनी हो तो चलेगा, 200 की क्रीम कॉफी और हजार पंद्रह सौ का बिल सब चलता था। पिछले चार पांच साल में अर्थव्यवस्था सुस्त होती गई और इसी के साथ कॉफी डे में चहल पहल का मौसम भी नहीं रहा। कॉफी डे की बिक्री घटी या यों कहें बिजनेस प्लान असफल हो गया जिसके कारण उद्यमी भी असफल हो गया।
कॉफी डे के बिजनेस प्लान और व्यवसायिक रणनीति के लिए जो अर्थव्यवस्था की जो गति आवश्यक थी वह नहीं हो पाई लेकिन बांकी खतरे और आवश्यकताएं यथावत रहीं, सिद्धार्थ इन खतरों के बहुत दबाव में थे, इसीलिए विदेशी धन निवेश, स्टाक एक्सचेंज और सरकारी एजेंसियों के दबाव में सिद्धार्थ आत्महत्या करने को मजबूर हो गया।
वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था शेर की सवारी है, चढ़ तो सकते हैं उतर नहीं सकते, और यदि एक बार यह असफल होती है तो इसकी भूख अजगर की तरह हो जाती है, बिना काम काज के जैसे जैसे समय बीता है वैसे वैसे उसकी भूख भी बढ़ती जाती है अपने बच्चों को खाते खाते अपने आसपास अपने भाई बंधु सभी को खा जाती है, तो कॉफी डे के मालिक की यह नियति भारतीय अर्थव्यवस्था की बहाली का साफ साफ इशारा कर रही है।
शेयर दलाल हर्षद मेहता, बिस्कुट किंग पिल्लई, सत्यम कम्पूटर का रामलिंगा राजू आदि ऐसे ही अर्थव्यवस्था के जाल में फंसे और मिटे। हां इनमें कुछ माल्या, नीरव मोदी और मोदी जैसे चालाकी से सार्वजनिक धन को लूटने के बाद भाग जाते है, जिसका भार अन्तत: आम जनता को भुगतना पड़ता है।