दिनेश जुयाल
‘आज भी मन की अंधेरी घाटियों में एक जुगनू सा चमकता है तुम्हारा नाम’…. रैमजे कॉलेज अल्मोड़ा के सभागार में जब देश के विभिन्न भागों से जुटे लोग शमशेर बिष्ट को उनकी पहली पुण्यतिथि पर याद कर रहे थे तो किशन सरोज का दर्द में डूबा ये गीत मन के अंदर बज रहा था। दर्द शमशेर को खोने का ही नहीं, संघर्ष की एक धारा के सूखते जाने का भी था। राजीव दा की एक धाद पर काफी लोग जुट गए थे। शमशेर भाई के पुत्रों और मित्रों ने भी कोशिश की कि शमशेर की परंपरा के लोग इस बहाने जुटें। यहां पहुंचे सब लोगों की बेचैनी वाकई बेचैन करने वाली थी। जैसे सब उत्तराखंड में चेतना के पहले केंद्र इस अल्मोड़ा से जुगनू बटोरने आएं हैं जिन्हें वे अपनी मशालों पर लगा कर संघर्ष की एक ऐसी राह पर निकल पड़ेंगे जो इस अंधेरे के पार जाती हो। जुगनू नहीं निकले लेकिन उम्मीद के दीपक में कुछ तेल जरूर पड़ा। सन्नाटा टूटा और लोग अपने हथियार टटोलते से लगे। थोड़ी धुंध थी इसलिए तय पाया गया कि कुछ और इंतजार सही।
श्रद्धांजलि, पुष्पांजलि से लेकर शमशेर के व्यक्तित्व पर लिखी कपिलेश भोज की पुस्तक के विमोचन तक कुछ वक्तव्यों को छोड़ बाकी काफी कुछ रस्मी ही था। शमशेर के व्यक्तित्व के तमाम पहलू उजागर किए जा रहे थे। क्यूंकि सब उनको जानने वाले ही थे तो ये रस्म ही थी। सभी धाराओं के लोग थे। राधा दीदी मौजूद थी। नगर प्रमुख प्रकाश जोशी, सांसद प्रदीप टम्टा, किशोर उपाध्याय, कॉमरेड राजा बहुगुणा , यू के डी के नारायण सिंह जंतवाल समेत तमाम दलीय नेताओं ने भी रस्म निभाई।दिल्ली से आए प्रशांत भूषण ने रवीश कुमार, और धु्रव राठी जैसे लोगो के उदाहरण रख कर इस गूंगे भक्तिकाल में अवाम की आवाज बनने के लिए एक धाद दी तो हॉल में कुछ हलचल महसूस हुई। मोब लिंचिंग के इस दौर में शीर्ष नेतृत्व की भूमिका पर उन्होंने सीधा और खुल कर वार किया। जल पुरुष राजेन्द्र सिंह और रवि चोपड़ा ने ऐसे दौर में जनांदोलनों के अहमियत समझाने की कोशिश की।शमशेर के व्यक्तित्व के कुछ पहलू सामने रखते हुए आगे मंथन के लिए भूमिका बनी। रैमजे से शिखर होटल तक जन गीतों के साथ निकले जुलूस ने बताया कि यहां कुछ खास लोग खास बात करने आए हैं। राजीव लोचन शाह बीच बीच में इस आयोजन का मंतव्य स्पष्ट करते रहे।
भोजनोपरान्त शिखर होटल के सम्मेलन कक्ष में शमशेर का रास्ता तलाशने के लिए हुए मंथन का पहला चरण कुछ खामियों के बीच विचारोत्तेजक रहा। सभी को बात कहने का मौका मिले इस चक्कर में की नोट एड्रेस भी ठीक से नहीं हो पाए। चारु तिवारी जो कहने के लिए भूमिका बना रहे थे उसे पूरा कह ही नहीं पाए। जनांदोलन और शमशेर के दौर पर बोलने आए विनोद पांडेय और कुछ दूसरे वक्ताओं को भी लगा, मन की बात मन में ही रह गई। इतना तो साफ हुआ कि अस्कोट आराकोट यात्रा के बहाने शमशेर और दूसरे लोगों की रिसर्च, नशा नहीं रोजगार दो, चिपको और वनाधिकार आंदोलनों के पीछे क्या सोच थी। यह भी कि राजनीतिक गैराजनीतिक के भेद विभेद में आंदोलनों का क्या होता है। यह भी साफ हुआ कि उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी से जुड़े कुछ लोग अजब राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चक्कर में क्या से क्या हो गए। किसी का बयान बने बिना यह बात भी सबके सामने थी कि शमशेर की ही जगह खाली नहीं हुई। राजनीति के इस भक्तिकाल में देशव्यापी सियासी संकट ने आंदोलन के सारे मैदान ही उजाड़ दिए हैं।
पत्रकार और साहित्यकार के रूप में उत्तराखंड के सरोकारों से गहरे जुड़े नवीन जोशी ने उत्तराखंड की सियासी हकीकत की बुनियाद पर सुझाव रखा कि सियासी भागीदारी के लिए एक प्रेसर ग्रुप बने जो पहाड़ के अनुकूल नीतियां बनाने में सहायक होगा साथ ही गलत निर्णय होने से रोकेगा। इसलिए सदन में 7सदस्य भी इस तरह के पहुंच जाएं तो परिवर्तन की नींव रखी जा सकती है। भार्गव चंदोला ने एक झण्डे एक डंडे की बात रखी। इस बीच वामपंथी साथी इंद्रेश मैखुरी , रूपेश और महिला मंच की निर्मला बिष्ट, गीता गैरोला आदि इस प्रयोग से असहमत होने के साथ ही इस बात से आहत भी नजर आए की कांग्रेस भाजपा को मंच क्यूं दिया जा रहा है। वे संघर्ष के मंच के अपेक्षा कर रहे थे। विधानसभा उपाध्यक्ष को गरिमा देने के चक्कर में कई लोग रुष्ठ हुए। इंद्रेश भी थोड़े गुस्से के इजहार के अलावा कोई रास्ता दिखाने की अपेक्षा पूरी नहीं कर पाए। रात के सत्र में होते तो कुछ और बातें होती। उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के साथी अपने तरह से ही लड़ेंगे। बाहर पुष्पेश त्रिपाठी भी दिखे थे लेकिन इस बहस में यू के डी की शिरकत नहीं हुई। उसने राजनीति में जो प्रयोग किए उनके कारण मजम्मत जरूर हुई। विपिन त्रिपाठी जिंदा होते जरूर कुछ अलग होता। इस मजमे में काशी सिंह ऐरी की गैरमौजूदगी भी खली।
मंथन का दूसरा दौर 12 बजे के बाद तक चला। इस मजमे में जुटे सभी साथी अपनी अपनी जमीन मजबूती से पकड़े रहे। गीता गैरोला जैसे जोशीले चेहरे व्यग्र थे कि इतनी दूर आए हैं तो कोई एक राह निकले लेकिन सबकी अपनी -अपनी राहें भी हैं। अपने अंदाज भी हैं। डॉक्टर उमा भट्ट और महिला मंच की उनकी टीम उत्साह में थी और उन्होंने इस विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए अगले आयोजन की जिम्मेदारी भी स्वीकार की। बात फिर नवीन जोशी के सुझाव के इर्द गिर्द आती लगी। उमेश विश्वास की भी राय थी कि साठ से कम उम्र के कम से कम 100 लड़ाके तैयार होने चाहिए । शमशेर मंच का सुझाव भी उन्होंने रखा। जगत रौतेला बीच बीच में हस्तक्षेप कर कोई राह निकालने की कोशिश करते रहे।
इस सत्र में 11बजे के करीब अचानक कुछ उनींदी सी आंखें भी पूरी खुल गई जब नई पीढी के कुछ चेहरे मुखर होकर सामने आए। रोहित जोशी, अनिल कार्की, समीर , स्निग्धा तिवारी आदि के साथ ही एक कश्मीरी युवक ने भी जिस तरह अपनी जुबान में, अपने अंदाज में अपने वक्त को पढ़ते हुए, अपने सरोकार और सुझाव रखे वह इस आयोजन की बड़ी उपलब्धि थी। सठिया चुके लोगों के भौंथरे हथियारों और निष्कर्षों से अलग बातें सामने आते ही सम्मेलन कक्ष में मौजूद लोगों की औसत उम्र जैसे अचानक घट गई। जब स्कूल कॉलेजों को भक्त बनाने की फैक्ट्री में बदला जा रहा हो और करियर के चक्कर में बच्चों को तांगे का घोड़ा बना दिया गया हो ऐसे में कुछ युवाओं में ये जोश और तड़प देखना शायद राजीव दा और शेखर पाठक जैसे लोगों के लिए भी राहत देने वाली रही होगी।
हालात की वजह के हताश लग रहे बुजुर्ग लड़ाकों के लिए यह खुराक भी थी और विचारधाराओं की प्रतिबद्धता के चक्कर में एकला चलो वाले कुछ अधेड़ कुछ जवान साथियों के लिए एक संकेत भी कि ऊर्जा कहां से बटोरनी है। प्रो शेखर पाठक ने पूरे सब्र के साथ सबको सुना और आयोजन की कुछ बेतरतीबी पर प्यार से नाराज होते हुए उस इतिहास को तारतम्य से सामने रखा जिस पर सुबह से बात हो रही थी। सर्वोदयी नेता धूम सिंह और विजय जड़धरी की देर रात तक की मौजूदगी का अहसास कराने के साथ ही उनका संदेश था कि जनहित में निस्वार्थ काम करने वालों को जोड़ कर और जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप जन संघर्ष की राह बनाने से ही कोई बात बन सकती है।
इस सत्र में पी सी तिवारी और प्रभात ध्यानी ने अपने प्रयोगों के हवाले से कुछ बातें रखी और कुछ संगठनों को अपनी लाइन स्पष्ट करने का भी आग्रह किया। हरफन मौला रंगकर्मी अजित साहनी का अंदाजे बयां भी खूब था। कार्यक्रम को इतना प्रभावी बनाने में अजय मित्र उनके अनुज, दया कृष्ण कांडपाल, पी सी तिवारी, दीवान नगरकोटी आदि ने खूब मेहनत की।
कुछ साथियों ने जिस तरह 370 को पहले बिंदु के रूप में और फिर आगे का क्रम रखा उससे लगा कि अपनी जमीन को ठीक से देखा जाना चाहिए। कुछ प्रस्ताव आए, कुछ सुझाव भी, अल्मोड़ा घोषणापत्र का इंतजार है और ये जो काफिला बना है उसके अगले पड़ाव का भी।