विवेकानंद माथने
मै कोरोना, पृथ्वी को बचाने आया हूं। सजीव सृष्टि को बचाने आया हूं। मनुष्य को बचाने आया हूं। मानवता को बचाने आया हूं। किसी का विनाश करने नही आया हूं। लेकिन मनुष्य को यह समझना होगा कि पृथ्वी बचेगी तो सजीव सृष्टि बचेगी और सजीव सृष्टि बचेगी तो ही मनुष्य बचेगा। मनुष्य भी सृष्टि चक्र का एक हिस्सा है। जीवन चक्र का हिस्सा है। उसे तोडकर जीना उसके लिये संभव नही है।
मनुष्य को प्राकृतिक आपदाओं के द्वारा कई बार चेताया गया था कि जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो वह विनाश का रास्ता है। उसका गंतव्य ब्लैक होल है। जो तुम्हे हमेशा के लिये निगल जायेगा। उस रास्ते को बदलना होगा। नही तो सजीव सृष्टि का, पृथ्वी का विनाश अटल है। लेकिन किसी ने एक बात नही सुनी। मनुष्य विनाश के रास्ते दौडे जा रहा था। आखिर मुझे आनेका फैसला करना पडा।
कोरोना बोल रहा था, जब दुनिया में चारों तरफ कोरोना पर हमला हो रहा था कि वह मनुष्य को तबाह करने आया है। तब कोरोना उसपर लगाये गये आरोपों का खंडन करते हुये दुनिया के सामने अपना पक्ष स्पष्ट कर रहा था।
हे मनुष्य! मै क्यों आया हूं इसका जवाब जानना चाहते हो तो धैर्य रखकर सुनों। मै तुम्हे सारी बातें समझाता हूं कि आखिर मेरे आनेका प्रयोजन क्या है? भागदौड की जिंदगी में तुम्हारे पास सोचने का भी समय नही था। इसलिये मैने योजना बनाई है कि तुम आराम से अपने घरों में बैठकर जीवन के बारें में गंभीरता से सोच सको। सोचो कि जिस रास्ते पर तुम चल रहे थे क्या वह सही रास्ता था? अगर नही तो फिर सही रास्ता क्या है? तुम्हे आगे क्या करना चाहिये?
जब तुम कहते हो कि तुम अजेय हो। तुम्हारे पास विज्ञान, तंत्रज्ञान है। जिसके कारण तुम्हे कोई नही हरा सकता। तब तुम्हे यह अहसास दिलाना जरुरी था कि सब कुछ होने के बावजूद तुम कितने असहाय हो, लाचार हो। अपनी जिंदगी की भीख मांगते हुये खुद को घरों में कैद करके बैठे हों।
गति पर भी तुम्हे बडा गुमान था। दुनियां में एक कोने से दूसरे कोने तक तेज गति से जाने के लिये तुमने साधन बनाये। अब मै कोरोना, उसी गतिमान साधनों पर सवार होकर उतने ही तेजी से तुम तक पहुंचा हूं। जिस गति को तुम प्रगति मानते हो वह गति तुम्हारे लिये अधोगति साबित हुई है।
दुनिया भर के वैज्ञानिक वैश्विक तापमान और प्रदूषण के लिये किसानों और पशुओं को बदनाम करने में लगे है और तुम्हारी न्याय व्यवस्था प्रदुषण के लिये जिम्मेदार मानकर निरपराध अन्नदाता किसानों को सजा देने का काम कर रही है। इसलिये मैने सोचा कि कुछ दिन तुम्हारे प्रदुषणकारी उद्योगों और वाहनों को बंद करते है ताकि वास्तविक गुन्हेगारों को दुनिया के सामने लाया जाये। प्रदूषण के लिये खेती को, किसानों को बदमान करने का काम बंद हो जाये।
हे मनुष्य! सुनो! सजीव सृष्टि में केवल तुम हो जिसे विशेष शक्तियां प्रदान की गई है ताकि तुम अपने साथ उन बेजुबान जिवों की रक्षा कर सको। लेकिन यह दुखद है कि तुमने अपनी शक्तियों का उपयोग केवल अपने स्वार्थ के लिये किया। तुमने मान रखा कि जो जितना अधिक भौतिक सुविधाओं का भोग करेगा वह उतना ही सुखी आदमी है। अति भोग के लालच में भौतिक सुविधाओं को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश बन गया।
तुमने केवल अपना सुखभोग देखा है। उसके लिये हिंसा का रास्ता अपनाया है। पूरी सृष्टि का शोषण किया। तुम मानते रहे कि सारी सृष्टि केवल तुम्हारे लिये बनी है। यह जंगल, जमीन, खनिज, पानी, हवा, पेड-पौधे, वनस्पतियां, पशु, पक्षी, पर्यावरण सब मनुष्य के लिये बने है। यह सोचकर तुम जब चाहो, जैसे चाहो अपने लिये सृष्टि के हर चीज का उपयोग करते रहे। सबका शोषण कर सारी भौतिक सुखसुविधाओं का निर्माण कर सुखभोग भोगते रहे।
तुमने तो अपनी ही बिरादरी के मनुष्य कों भी नही छोडा। तुम कहते हो कि यह सुविधाऐं सभी मनुष्यों को नही दी जा सकती है। क्योंकि इसे सभीको समान रुपसे उपलब्ध कराने से उसे भोगने में आनंद नही मिलता। सभी व्यवस्थाऐं दुनिया के मुट्ठीभर लोगों के लिये ही बनाई गई है और उसके लिये 80 प्रतिशत मनुष्यों का शोषण किया जाता है।
माना कि हर सजीव को जीने के लिये आहार जरुरी है। उसमें हिंसा होती है। लेकिन पशु पक्षी केवल अपना पेट भरने के लिये जरुरी हिंसा कर प्रकृति नियमों का पालन करते है। मनुष्य होते हुये भी तुमने इस प्रकृति नियम का पालन नही किया। तुमने पशु, पक्षी, जलचर, कीडे, मकोडे किसी को नही छोडा। तुम मानते हो कि यह सब मनुष्य के आहार के लिये बने है। तुम अपने रुची के लिये सबको तडपा तडपाकर मारते हो और खा जाते हो। तुमने अपने पेट को श्मशान बना रखा है। तुम्हारे पूर्वजों ने हिंसा का रास्ता छोडकर कृषि की खोज करके शाकाहार स्वीकार किया था। ऐसा करके तुम सजीवों के संरक्षक बन सकते थे। लेकिन तुमने ऐसा नही किया।
नीचे से ऊपर तक तुमने ऐसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया कि जिसमें बुद्धिमान युवाओं को मनुष्य नही, मानसिक रुपसे गुलाम यंत्रमानव बनाने का काम किया जाता है। और यह मानसिक गुलाम थोडेसे सुखभोग के बदले उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिये आम जनता, पर्यावरण और सजीव सृष्टि का विनाश करने का काम करते है।
विकास के स्वैराचारी मॉडल ने दुनियां को अनेक बीमारियां भेट दी है। तुमने चिकित्सा पद्धतियां ऐसी विकसित की है कि जो आत्मसंयम को प्रेरित करने के बदले भोग भोगने की छूट और स्वैराचारी मॉडल को स्वीकृति देती है।
तुमने जीडीपी बढोतरी को ही विकास माना। विकास के लिये तुमने शहरीकरण, औद्योगिकरण, कारपोरेटीकरण, बाजारीकरण का रास्ता अपनाया है। उसके लिये बडे बडे उद्योग खडे किये, शहरों का निर्माण किया, बडी बडी वास्तुऐं बनाई, जल, थल, हवाई रास्ते बनायें, हवा, पानी, जमीन पर दृत गतिसे दौडनेवाले वाहन बनाये। खानपान के लिये मनचाहे पदार्थ बनाऐं। भौतिक वस्तुओं का बेशुमार उत्पादन करते रहे। अति उत्पादन की बिक्री के लिये बाजार बनाया और उसे खरिदने के लिये प्रतिस्पर्धा पैदा की और पूरी दुनिया को बाजारवाद में तब्दिल कर दिया।
एक मर्यादा में जीवन के लिये जरुरी चीजे पैदा करना मान्य किया जा सकता है। लेकिन बाजारवाद के लिये जैसे जैसे औद्योगिकरण बढता गया वैसे वैसे जमीन, जंगल, पानी, खनिज आदि के साथ पूरे प्रकृति का अमर्याद दोहन होता गया। बडे पैमाने पर जैव, जीवाश्म इंधन जलाये जानेसे दुनिया में ग्रीन हाउस गैसेस, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान और प्रदूषण में लगातार वृद्धि होती रही। जिससे पेड़, पौधे, वनस्पति, पशु, पक्षी सभीके जीवन को खतरा पैदा हुआ है। जैवविविधता को खतरा पैदा हुआ है। पृथ्वी के अस्तित्व का खतरा पैदा हुआ है। अगर इसे रोका नही गया तो आनेवाले कुछ दशकों में पृथ्वी नष्ट होगी।
जीडीपी में कृषि की घटती भागीदारी के चलते किसानों को मुफ्तखोर कहकर उन्हे अपमानित करने में तुमने कोई कसर नही छोडी। लेकिन अब सारी व्यवस्थाऐं ठप्प हो चुकी है। अब बताओ, तुम्हारे लिये सबसे जरुरी क्या था? कौनसी व्यवस्था जरुरी थी? आज तुम्हे पता हो चुका है कि जीवन के लिये कल-कारखाने नही, सबसे जरुरी अन्न और अन्न पैदा करनेवाली खेती किसानी है। कृत्रिम उर्जा की जगह मनुष्य उर्जा को उपयोग में लानेवाली खेती पद्धतियां और ग्रामोद्योग जरुरी है। जिसे जीडीपी के आधार पर नही तोला जा सकता।
पूरी प्रकृति ईश्वर की निर्मिती है। मनुष्य मनुष्य है। वह एक ही ईश्वर की संतान है। उसे रंग, भाषा, जाती, धर्म, संप्रदाय, राष्ट्रवाद में बांटना ईश्वर के प्रति अपराध है। लेकिन तुमने अपने अंदर ऐसा जहर भर रखा है कि इतने भीषण संकट के बावजूद तुमने भेदभाव की मानसिकता को नही बदला।
हे मनुष्य! तुम झूठे राष्ट्रवाद के नारे लगाकर लोगोंको युद्ध के लिये भडकाते रहे। जनता को भूखा रखकर सारा धन रक्षा बजट पर खर्च करते रहे। देश की सुरक्षा के नामपर तुमने तलवारें, बंदूके, टैंक, मिसाइलें, प्रक्षेपास्त्र बनाये। परमाणु, रासायनिक, जैविक हथियार बनाये। लेकिन आज क्या स्थिति है? तुम्हारे युद्ध हथियार ना मुझे डरा सकते है और ना मुझे मार सकते है। फिर क्यों दुनिया में सबसे शक्तिशाली होनेका दंभ भर रहे हो? और क्यों इस हथियार की होड में पडे हो?
तुम्हारे दिमाग में बैठा विकास वायरस दुनिया में हर दिन लाखों लोगों की जान लेता है। युद्ध, गृह युद्ध, औद्योगिक दुर्घटनाऐं, सडक दुर्घटनाऐं, भुखमरी, कुपोषण आदि में हरसाल करोडों लोग मारे जाते है। तब तुम मान लेते हों कि कुछ लोगों के सुखभोग के लिये हिंसा अनिवार्य है। तुम्हारा पूरा विकास का मॉडल हिंसा पर आधारित है। विकास ने पेड़-पौधे-वनस्पतियां, जलचर, थलचर पशु-पक्षी सबको अपना भक्षक बनाया है। हर दिन किसान, आदिवासी, मेहनतकश लोगों को कुचला जाता है।
तुम एक अन्यायी व्यवस्था में जी रहे हो। लेकिन तुमने इस अन्यायी व्यवस्था को न्यायी साबित करने के लिये न्यायालय बना रखे है। जहां न्याय नही तर्क के आधारपर निर्णय किये जाते है और तर्क धन से खरीदा जाता है। जहां दूर दूर तक न्याय की कोई गुंजाइश नही है। लेकिन लोगोंको न्याय का झूठा एहसास दिलाने और उसमे उलझा रखने के लिये तुमने न्यायालय खडे किये है।
आज भी अर्थशास्त्री सलाह दे रहे है कि कोरोना संकट के कारण जीडीपी घटेगी और पूरी अर्थव्यवस्था डूब जायेगी। कुछ कह रहे है कि कोरोना के कारण ज्यादा संख्या में केवल बुजुर्गो की मृत्यु हो रही है। इसलिये बुजुर्गों के जान की कीमत चुकाकर उद्योगों को चालू करना चाहिये। जिस अनर्थशास्त्र के कारण दुनियां में इतनी हिंसा फैली है, उस हिंसा पर आधारित अर्थशास्त्र को ही उपाय बताने का काम यह अर्थशास्त्री कर रहे है।
इसका अर्थ यही है कि यह अर्थशास्त्री घरों में बैठे लोगों को परिवर्तन के लिये शांति से सोचने नही देंगे। ऐसे अर्थशास्त्री वैकल्पिक विकास के तलाश में सबसे बडे बाधक है। इसलिये मेरी सलाह है कि ऐसे दलाल अर्थशास्त्रियों को एक यान में बिठाकर कुछ सालों के लिये मंगल ग्रह पर क्वारंटीन कर देना चाहिये ताकि वहां उन्हे माथापच्ची करने का पूरा अवसर मिले और मनुष्य अपने सही रास्ते की तलाश कर सके।
हे मनुष्य, अपने लालच को पूरा करने के लिये ही तुमने दुनियां में सारी व्यवस्थाऐं बनाई है। राजतंत्र तो पहले से बदनाम है लेकिन लोकतंत्र के स्तंभ माने जानेवाली विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडियां भी जनकल्याण का नाटक कर केवल अमीरों को लाभ पहुंचाने के लिये काम कर रही है। शिक्षा, चिकित्सा, उद्योग, खेती आदि जीवन के लिये जरुरी व्यवस्थाऐं अमीरों के हवाले कर दी गई है। अमीरों के हितों का रक्षण करने के एकमात्र उद्देश के लिये यह सारी व्यवस्थाऐं काम कर रही है।
तुम्हारे द्वारा बनाई सारी व्यवस्थाऐं हिंसा पर आधारित है। उसे बदलने का समय आ चुका है। तुम्हे एक नई दुनिया बनाने के बारें में सोचना होगा। जो अहिंसा की तलाश में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में नये बदलाव लायेगी। शोषणमुक्त समाज की वैश्विक रचना करेगी। अगर नही बदलोंगे तो पृथ्वी का विनाश अटल है। तुम्हारा मृत्यु अटल है। फिर तुम्हे कोई नही बचा सकता। क्योंकि जिस रास्ते पर तुम आगे बढे रहे हो वहांसे वापस लौटने का कोई रास्ता नही है। तब ना सृष्टि बचेगी, ना तुम बचोगे। इसीलिये समय रहते एकबार फिर से तुम्हे चेताने आया हूं। सोचो, समझो और बदलने की प्रक्रिया शुरु कर दो। प्रेम और अहिंसा के आधार पर नई दुनिया का निर्माण संभव है।
मै कोरोना, कुछ महिनों तक आपके साथ रहूंगा। तुम्हे सोचने के लिये पुकारता रहूंगा। तब तक मुझे मारने के लिये तुम्हारे पास टीका आ जायेगा। लेकिन यह मत समझों कि तुमने मुझ पर विजय प्राप्त की है। इतिहास के पन्ने पलटोगे तो पाओंगे कि मै पहले भी तुम्हे जगाने आता रहा। लेकिन तुम नही सुधरे। ध्यान रखना कि अगर तुम नही बदले तो नया रुप धारण करके मानवता को बचाने, सजीव सृष्टि को बचाने, पृथ्वी को बचाने मै फिर आउंगा। इति कोरोना।