राजीव लोचन साह
18वीं लोकसभा के चुनाव के बाद का संसद का पहला शीतकालीन अधिवेशन ऐतिहासिक रहा। संसद का स्तर नीचे गिर जाने का इस अधिवेशन में जो कीर्तिमान बना, पता नहीं वह कभी टूट भी पायेगा अथवा नहीं। यह अगर टूटा तो इसका अर्थ यही होगा कि देश को अब संसदीय लोकतंत्र की जरूरत ही नहीं रही। इस शर्मनाक हालात के लिये दोषी तो पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों रहे, मगर संसद चलाने की जिम्मेदारी मूलतः सरकार की होती है। आज सरकार चला रही भाजपा कल जब विपक्ष में थी तो वह भी अपनी बात मनवाने के लिये संसद ठप्प करने की कोशिश करती थी। वैसा ही व्यवहार यदि आज का विपक्ष कर रहा है तो उसे बहुत ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। देश के संविधान की 75 वर्ष की यात्रा पर हो रही बहस के दौरान जब गृहमंत्री अमित शाह के मुँह से बाबा साहब अम्बेडकर के बारे में एक गैर जिम्मेदार वक्तव्य निकल पड़ा तो विपक्ष ने चुस्ती से उसे लपक लिया और सरकार के सामने तमाम तरह की कठिनाइयाँ खड़ी कर दीं। सरकार के सामने यह विकल्प था कि शालीनता के साथ अपनी चूक स्वीकार कर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता। मगर ऐसा न कर संसद परिसर में टकराव और धक्कामुक्की का एक अशोभनीय नाटक खेला गया और दो सांसदों को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। इससे भी आगे लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के खिलाफ पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज करवा दी गई। कैसी शर्मनाक बात है कि देश की सबसे बड़ी सांवैधानिक संस्था, ‘संसद’ का फैसला अब एक सामान्य पुलिस थाना करेगा! यदि ऐसी कोई घटना संसद परिसर में घटी भी थी तो एक संसदीय समिति बनती और वह संसद भवन में लगे दर्जनों कैमरों की रिकॉर्डिंग के आधार पर अपना फैसला दे देती। मगर इन कैमरों की रिकॉर्डिंग की बात भी नहीे की जा रही है। कोई नहीं जानता कि इन कैमरों के अन्दर क्या छिपा हुआ है और बाहर बेमतलब का तूफान बरपा हो रहा है। संसदीय लोकतंत्र के लिये यह बेहद चिन्ता की घड़ी है।