अतुल सती
7 तारीख को पुनः रैणी जाना हुआ , संयोगवश 7 जुलाई को ही आपदा के पांच माह भी पूरे हुए । 5 माह में ऋषि गंगा के किनारे सिर्फ इतना बदलाव आया है कि, 7 फरवरी को आया और जमा हजारों टन मलवा अधिकांश साफ हो गया है । इसी मलवे में लापता लोगों के दबे होने की आशंका थी । जिन्हें ढूंढने की लोग गुहार लगाते रह गए । वह मलवा जून महीने की तीन दिन तीन रात की 15 ,16, 17 जून की लगातार हुई बारिश में बह गया । बारिश के चलते नदी में पानी बढ़ गया । 7 फरवरी को बह गये पुल के स्थान पर बने नए पुल पर भी खतरा उत्तपन्न हो गया और रिणी गांव के नीचे, सीमा को जोड़ने वाली 40 मीटर सड़क भी बह गई ।
रैणी गांव 15 ,16 ,17जून की बारिश में फिर एक बार दहशत और भय से कांपा । तीन दिन तीन रात की लगातार की बारिश से ऋषिगंगा में पानी खतरे के निशान से ऊपर आ गया । ऊपरी गांव का एक हिस्सा धँस गया । नीचे गांव में सड़क के धँसने से लोगों के घरों को खतरा पैदा हो गया । लोग रात भर घरों से बाहर अन्य ठिकानों पर जाने को मजबूर हुए । विस्थापन की मांग जो फरवरी की आपदा के बाद से शुरू हुई थी, किन्तु इस बीच प्रशासन की चुप्पी और उपेक्षा के चलते मन्द पड़ने लगी थी, यहाँ की त्रस्त जनता इस मांग को पुनः जोर शोर से लोग उठाने लगी है।
रिणी गांव के नीचे सड़क के धँसने से सीमा के साथ साथ उस पार के 22 गांवों से भी इसका सम्पर्क कट गया । सड़क का जो हिस्सा धँसा था उसीके ठीक ऊपर चिपको की नेता गौरा देवी का स्मारक और उनकी मूर्ति लगी थी । अब सड़क पुनः जोड़ने के लिए स्मारक को हटाना पड़ रहा था, साथ ही सड़क के इस तरफ आने से गांव के लिए खतरा भी बढ़ जाने वाला था । चार पांच दिन के गतिरोध के बाद, प्रशासन पुलिस की ताकत के साथ,स्मारक को हटाने व गौरा देवी की मूर्ति को निकालने के लिए पहुंचा। पहले यह कहा गया कि गांव वाले खुद मूर्ति निकाल लें । पर गांव वाले इसलिए तैयार नहीं हुए कि कल को हम पर ही यह जिम्मेदारी आ जायेगी । दूसरा कारण यह था कि मूर्ति निकालने को गांव वाले शुभ संकेत भी नहीं मान रहे थे । प्रशासन ने सड़क न बनने पर सुरक्षा व शेष कट गए गांवों की नाराजगी की जिम्मेदारी के तर्क के साथ रिणी की महिलाओं को समझाने की कोशिश की । महिलाओं के लिए अपने अस्तित्व के साथ साथ यह भावनात्मक सवाल भी था । प्रशासन के जोर, विस्थापन के आश्वासन और रिणी गांव के खतरे की जिम्मेदारी सीमा सड़क संगठन पर डालने के कारण गतिरोध टूटा ।मूर्ति हटी और सड़क का कार्य भी हुआ ।
प्रशासन द्वारा विस्थापन के आश्वासन के क्रम में 24 जून को भूगर्भ विभाग की एक टीम ने गांव का सर्वे किया । यह देखने के लिए कि गांव को खतरा कितना गम्भीर है । सर्वे के दरमियान ही धंसाव वाली जगह में पुनः पत्थर गिरे जिसमें सर्वे वाले उसकी चपेट में आने से बाल – बाल बचे । सर्वे की रिपोर्ट गांव के विस्थापन किये जाने के पक्ष में थी । आनन फानन में प्रशाशन ने एलान कर दिया कि रिणी के बगल के गांव सुभाईं में भूमि देख ली गयी है और वहां रिणी के 50 परिवारों का विस्थापन किया जाएगा । विस्थापन जैसी जटिल प्रक्रिया का इतना त्वरित समाधान गजब था । इसकी प्रतिक्रिया भी तत्काल हुई । दूसरे ही दिन सुभाईं गांव के लोगों ने इसका विरोध कर दिया । और आंदोलन की चेतावनी दे डाली । क्योंकि विस्थापन का मतलब सिर्फ 100 स्क्वायर मीटर (आधा नाली ) भूमि व दो कमरों का घर नहीं होता । जल , जंगल, जमीन, चरागाह, मरघट पनघट सहित हक – हकूक सभी कुछ होता है । इसके बगैर विस्थापन सिर्फ खाना पूर्ति व गम्भीर स्थाई समस्या का तात्कालिक व चलताऊ हल है । अब जिस भी गांव में विस्थापन होगा वहां रहने वाले अपने ये हक हकूक किसी के साथ क्यों बांटने लगे । जबकि जमीन जंगल चरागाह सभी आबादी के अनुपात में सिकुड़ रहे हैं ।
उत्तराखण्ड में ढाई सौ से ज्यादा गांवों का विस्थापन होना है । जोशीमठ ब्लॉक में ही 2007 से 17 से अधिक गांव विस्थापन की बाट जोह रहे हैं । पूर्व में हम लोगों ने सुझाव दिया था कि उत्तराखण्ड के जो गाँव भूतहा कहे जा रहे हैं, यानी जो पलायन के चलते खाली हो गए हैं, उन गांवों को सरकार अधिग्रहित करे । इन खाली पड़े गांवों की संख्या भी खतरे में रह रहे विस्थापित होने वाले गांवों के लगभग बराबर ही है । इन खाली गांवों में विस्थापित होने वाले गांवों को बसाया जाय । जिससे इन लोगों को अपने छूट जाने वाले हक हकूक से भी वंचित नहीं होना पड़ेगा । वे भुतहा गांव भी आबाद होंगे । यहां जो भूमि विस्थापन के बाद खाली होगी वृक्षारोपण के व संरक्षण के विभिन्न उपायों के जरिये उन गांव का संरक्षण किया जाय । जिससे भूमि धंसाव को वहीं सीमित किया जा सके ।
आपदा के विभिन्न पहलुओं व रिणी के विस्थापन के साथ विस्थापन के भी सभी पहलुओं पर व्यापक नीति हेतु हम कुछ लोगों द्वारा नैनीताल उच्च न्यायालय में याचिका भी दायर की गई है । उत्तराखण्ड राज्य जो विस्थापन की गम्भीर चुनौती से पिछले कई वर्षों से दो चार है, उसकी विस्थापन नीति लचर व अव्यवहारिक है । इसलिए इस पर भी बहस होनी चाहिए व विस्थापन के सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए विस्थापन नीति बननी ही चाहिए ।
रिणी गांव जो 1974 में चिपको आंदोलन के जरिये पर्यावरण व जंगलों पर हक हकूक का प्रतीक बना, आज आपदा के बाद विस्थापन की मांग के साथ उजड़ने की तरफ अग्रसर जरूर है मगर इसे नए सन्दर्भों में विकास के इस प्रकृति विरोधी मॉडल के खिलाफ बहस विचार और नीति का प्रस्थान बिंदु भी बनना चाहिए । चिपको की लगभग आधी सदी बाद पर्यावरण संरक्षण की मार झेलते, अपने हक हकूकों से वंचित हुए लोग, आज अपनी भूमि को छोड़ने के लिए क्यों मजबूर हैं, इसकी पड़ताल भी होनी चाहिए । अन्यथा विकास के नाम पर हिमालय को संकट में डालने वाली नीतियों के कारण ज्वालामुखी बना यह हिमालय एक दिन सबके संकट का कारण बनेगा ।