डॉ. अरुण कुकसाल
उत्तराखण्ड में सामाजिक चेतना के अग्रदूत ‘बिहारी लालजी’ का 18 मार्च, 2021 को बूढ़ाकेदार आश्रम में निधन होना एक युग नायक का हमारे सामाजिक जीवन से प्रस्थान करना है।
सर्वोदयी विचारधारा के अग्रणी बिहारी लाल जी ने टिहरी जनपद की बालगंगा घाटी में स्थित प्राचीन तीर्थस्थान बूढ़ाकेदारनाथ में वर्ष 1977 में लोक जीवन विकास भारती स्कूल का संचालन इस विचार के लिए शुरू किया कि खुशहाल एवं लोकोपयोगी जीवन के लिए बुनियादी समझ बच्चे स्कूल से सीखें एवं उसे जीवन में आत्मसात कर सकें । बिहारी लाल जी को गौरवशाली पारिवारिक परंपरा विरासत में मिली जिसे उन्होंने जीवनभर और समृद्ध किया।
पुण्यआत्मा ‘बिहारी लालजी’ को नमन करते हुए युगवाणी, अगस्त 2018 में प्रकाशित आलेख-
ददेश-दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा हुआ हो – पंड़ित, क्षत्रीय और शिल्पकार का सफल संयुक्त परिवार.
टिहरी गढ़वाल जनपद की भिलंगना घाटी में धर्मगंगा और बालगंगा के संगम पर है बूढ़ाकेदार (पट्टी-थाती कठूड़)। समुद्रतल से 1524 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बूढ़ाकेदार कभी गंगोत्री – केदारनाथ पैदल मार्ग का प्रमुख पड़ाव था। यह क्षेत्र नाथ संप्रदाय से प्रभावित रहा है। ‘गुरु कैलापीर’ इस क्षेत्र का ईष्टदेवता है। यहां बुढ़ाकेदारनाथ, राजराजेश्वरी और बालखिल्येश्वर के प्राचीन मंदिर हैं।
यह सर्वमान्य हक़ीक़त है कि जातीय भेदभाव से आज भी हमारा समाज नहीं उभर पाया है। समय-समय पर जागरूक लोगों ने इसके लिए प्रयास जरूर किए पर कमोवेश आज भी हमारा समाज इस मुद्दे पर सदियों पूर्व की यथास्थिति में वहीं का वहीं ठिठका हुआ खड़ा नजर आता है। कारण स्पष्ट है कि जातीय जकड़न को तोड़ने वाले प्रयासों को जनसामान्य का समर्थन लम्बे दौर तक नहीं मिल पाता है। ऐसा ही हुआ बूढ़ाकेदार में भी।
मैं बात कर रहा हूं, लगभग 70 साल पहले बूढ़ाकेदार क्षेत्र के थाती और रक्षिया गांव के उन तीन युवाओं की जिन्होने 12 वर्ष तक संयुक्त परिवार में रहकर सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण पेश किया था। समाज में जातीय भेदभाव को मिटाने का ऐसा प्रयास देश-दुनिया में शायद ही कहीं हुआ हो। हम सब जानते हैं कि 26 जनवरी, 1950 को आजाद भारत का संविधान लागू हुआ था। परन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी दिन देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शामिल उत्तराखंड की भिलंगना घाटी के बूढ़ाकेदार में एक अप्रत्याशित और क्रांत्रिकारी बात हुई थी। वैसे, आम-जन के लिए यह अचंभित करने वाली घटना थी, लेकिन तीन स्थानीय परिवारों के लिए एक नई जीवन शैली को अपनाने का दिन था। हुआ यह कि इस दिन जातीय बंधनों को तिलांजलि देते हुए एक पंडित, एक क्षत्रिय और एक शिल्पकार परिवार ने एक साथ रहने का फैसला लिया था। धर्मानंद नौटियाल (सरौला ब्राह्मण, थाती गांव), बहादुर सिंह राणा (थोकदार क्षत्रिय, थाती गांव) और भरपुरू नगवान (शिल्पकार, रक्षिया गांव) ने मय बाल-बच्चों सहित एक साझे घर में नई तरह से जीवन-निर्वाह की शुरूवात की थी। अलग-अलग जाति के मित्रवत भाईयों के इस संयुक्त परिवार में अब बिना भेदभाव के एक साझे चूल्हे में मिल-जुल कर भोजन बनाना, खाना-पीना, खेती-बाड़ी और अन्य सभी कार्यों को आपसी सहभागिता से निभाया जाने लगा। यह देखकर स्थानीय समाज अचंभित था। इनके लिए सर्वत्र सामाजिक ताने, उलाहना, कहकहे और विरोध होना स्वाभाविक था। स्थानीय लोगों में कहीं-कहीं दबी जुबान से इनके साहस और समर्पण की प्रशंसा भी हो रही थी। परन्तु प्रत्यक्ष तौर से इनका साथ देने का साहस किसी के पास नहीं था।
यह बेहद महत्वपूर्ण है कि उक्त त्रिजातीय साम्ययोगी परिवार की रचना में किसी प्रकार का आपसी दबाव और प्रलोभन नहीं था। अपने अन्तःकरण के भावों की सहर्ष स्वीकृति ही इस अभिनव संयुक्त परिवार का आधार था। इस क्रांत्रिकारी विचार को व्यवहार में लाने की पृष्ठभूमि भी रोचक है। बूढ़ाकेदार क्षेत्र में ही धर्मानन्द नौटियाल, बहादुर सिंह राणा और भरपुरू नगवान का बचपन, शिक्षा और रोजगार साथ-साथ ही रहा। तीनों मित्र सर्वोदय विचार के प्रमुख कार्यकर्ता होने के कारण ग्रामस्वराज्य आन्दोलन में सक्रिय रहते थे। सामाजिक जागरूकता के कार्यों को करने में उनमें किसी प्रकार का जातीय भेद नहीं था। आजीविका के लिए धर्मानन्द नौटियालजी की गांव में ही दुकान थी। बहादुर सिंह राणाजी खेती-बाड़ी और भरपुरू नगवानजी शिल्पकारी कार्य से जुड़े थे। नौटियाल जी की दुकान पर उस समय के प्रचलन के अनुसार आने-जाने वालों के लिए पंडित, क्षत्रिय और शिल्पकार जाति के हिसाब से तीन हुक्के हर समय तैयार रहते थे। तीनों मित्रों में बातें अक्सर सामाजिक समानता की ही होती थी। आपसी बातचीत में उनको ध्यान आया कि, हम ही आपस में इस जातीय भेद से नहीं उभर पा रहें हैं, तो अन्य को क्या उपदेश दे पायेंगे। लिहाजा, सबसे पहले तीन हुक्कों में दो को हटा कर सभी जातियों के लिए एक ही सार्वजनिक हुक्का रहेगा, ये तय हुआ। यही नहीं धीरे-धीरे आपसी समझ में आयी परिपक्वता और सकारात्मकता ने तीनों परिवारों को एक साथ रहने की ओर प्रेरित किया। थाती गांव में तीनों ने अपनी सार्मथ्य और हुनर का उपयोग करते हुए एक तिमंजला साझाघर बनाया जो कि उनके त्रिजातीय संयुक्त परिवार के सपनों और प्रयासों के साकार होने का हमसफर और गवाह बना।
उक्त तीनों महानुभावों ने इस साझेघर की प्रत्येक गतिविधि को सामाजिक चेतना का प्रेरक और वाहक बनाने का प्रयास किया। अस्पृश्यता को मिटाने के लिए समय-समय पर सभी जातियों का सामुहिक भोज, दलितों के मंदिरों में प्रवेश और विवाह में डोला-पालकी का समान अधिकार, सामुहिक उद्यमशाला का संचालन, सार्वजनिक पुस्तकालय, भू-दान, प्रौढ़ शिक्षा, बलि प्रथा को रोकना, उन्नत खेती और पशुपालन आदि के लिए रणनीति बनाने और उसे व्यवहार में लाने के प्रयासों का संचालन केन्द्र यह साझाघर बन चुका था।
यह उल्लेखनीय है उसी दौर में इसी बूढाकेदार क्षेत्र में सवर्णों द्वारा समय-समय पर दलितों को मंदिर प्रवेश से रोकना, उनके पारिवारिक विवाह में डोला-पालकी का विरोध करना और अन्य तरह की सामाजिक प्रताड़नायें भी प्रचलन में थी। इसी इलाके के अध्यापक दीपचंद शाह की बारात को डोला-पालकी की वजह से 21 दिनों तक जंगलों में भटकते हुए रहना पड़ा था। परिणामस्वरूप दीपचंद ने बाद में अध्यापकी छोड़कर पटवारी बनना कबूल किया ताकि वे ज्यादा मजबूती से सामाजिक अन्याय का विरोध कर सके। वे नायब तहसीलदार पद से अवकाशप्राप्ति के उपरांत पुनः अपने गांव में रहकर सामाजिक सेवा और जागरूकता के कार्यां से जुड़े रहे।
तीनों मित्रों का उक्त सहजीवन लगभग 12 साल तक बिना किसी कटुता के निर्बाध रूप में चला। जैसे भाई-भाई आपस में एक समय के बाद एक दूसरे से अलग परिवार बना लेते हैं, उसी प्रेमपूर्वक तरीके से यह संयुक्त परिवार भी 12 साल बाद जुदा हुआ था। परन्तु उनकी अन्य सभी सामाजिक कार्यां में पारिवारिक साझेदारी आगे भी चलती रही। इन अर्थों में यह अभिनव प्रयास किसी भी दृष्टि से असफल नहीं था।
बेहतर हो कि पूर्व में हमारे समाज में हुए ऐसे प्रयासों को अधिक से अधिक प्रभावी माध्यम से आज सामने लाया जाये।
संदर्भ-
1. ‘तीन कार्यकर्ताओं का सहजीवन’, कुंवर प्रसून, युगवाणी, देहरादून, जुलाई 2002.
2. ‘भरपूरू नगवान’ पुस्तक, प्रकाशक- समय साक्ष्य एवं लोक जीवन विकास भारती, बूढ़ाकेदारनाथ, पो- थाती कठूड़, टिहरी गढ़वाल।
डॉ. अरुण कुकसाल