नवीन जोशी
पिछले वर्ष की ही भांति इस वर्ष भी हमने गर्मियों में पूरा एक मास रामगढ़ में बिताया। इस बार और भी अच्छा लगा क्योंकि आबादी एवं बाजार से थोड़ा दूरएक बगीचे के बीच रहने का अवसर मिला। महानगरों की भीड़-भाड़, शोर और दमघोंटू प्रदूषण से बचकर कुछ समय पहाड़ पर बिताना नई ऊर्जा से भरजाना होता है। यह एक जगह, स्थानीय समाज तथा उनसे जुड़े विविध मुद्दों को निकट से जानने-समझने का अवसर भी होता है।
रामगढ़, विशेष रूप सेमल्ला रामगढ़, अत्यंत सुंदर, शांत, स्वच्छ हवा-पानी वाला, शीतल स्थान है। इसकी जलवायु फलोत्पादन के लिए पूर्णत: उपयुक्त है, हालांकि अब बढ़ते तापमान एवं अनियमित वर्षा से फलों के उत्पादन तथा उनकी गुणवत्ता प्रभावित होने लगी है। कभी अनाजों की खेती भीयहां होती थी लेकिन अब मल्ला-तल्ला रामगढ़ ही नहीं, महेशखान से मुक्तेश्वर तक औरआसपास के नथुआखान, सीतला, सतखोल, प्यूड़ा, आदि इलाकों में भी केवल फलोत्पादनहो रहा है। यहां के आड़ू, पुलम, खुबानी, नाशपाती और सेबे की अच्छी मांग है। निजी स्तर पर ही सही, ठीक-ठाक विपणन व्यवस्था बन गई है। हल्दवानी-भवालीमण्डी तो पास ही में हैकई बागवान सीधे मुम्बई तक फल भेजते हैं।
रामगढ़ का आकर्षण
अंग्रेजी शासन के समय से ही रामगढ़ शांतिप्रिय लोगों की पसंदीदा जगह रहा है। शांतिएवं एकांत में समय बिताने के शौकीन कुछ अंग्रेजों ने यहां अपने लिए बंगलेबनवाए थे। निकट ही महेशखान के जंगल में अंग्रेजों का बनवाया हुआ डाक बंगला है, 113 वर्ष पुराना, जो अब वन विभाग के पास है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को अपनी कुमाऊं यात्रा में यह स्थान बहुत पसंद आया था। वे पहली बार 1903 में यहां आए थे। फिर 1914, 1927 और 1937 में भी आए। अपनी बीमार बेटी को लेकर यहां लम्बे समय तक रहे। आज भी टैगोर टॉप यहां की सबसे सुंदर जगहों में एक है।
महादेवी वर्मा जब 1933 में शांति निकेतन गईं तो गुरुदेव ने उन्हें रामगढ़ के सौंदर्य तथा शांति के बारे में बताया। एक-दो वर्ष बाद बदरीनाथ से लौटते हुए महादेवी रामगढ़ आईं। इसकी शांति, शीतलता और हरियाली ने उन्हें प्रभावित किया। तब उन्होंने उमागढ़ में जमीन ली और 1936 में ‘मीरा कुटीर’ बनवाया। वे प्रति वर्ष गर्मियों में यहां रहती थीं। उनकी कई रचनाएं यहीं लिखी गईं। उनके आमंत्रण पर मीरा कुटीर में कई लेखक आए, रहे और उन्होंने यहां साहित्य सृजन भी किया। मीरा कुटीर आज एक स्मारक के रूप में मौजूद है। वहां एक अतिथि गृह भी लगभग तैयार है, जहां लेखक ठहर सकेंगे। ग्वालियर के सिंधिया घराने ने यहां बहुत बड़ा इलाका खरीदा था, जो उनके ट्रस्ट के अधीन होने के कारण आज भी बिचौलियों और अतिक्रमण से बचा हुआ है। आज़ादी से पहले और बाद में तो बहुत सारे नेताओं, अधिकारियों, उद्यमियों, लेखकों-पत्रकारों ने यहां अपने कॉटेज बनवाए।
रेलवे स्टेशन काठगोदाम यहां से मात्र डेढ़ घण्टे की दूरी पर है। नैनीताल एक घण्टे से भी कम समय में पहुंचा जा सकता है। हालांकि मई-जून में काठगोदाम से मुक्तेश्वर तक गाड़ियों का रेला लगा रहता है। डेढ़-दो घण्टे की दूरी चार-पांच घण्टे भी ले लेती है। शनिवार-रविवार को कहीं आना-जाना मुश्किल हो जाता है। तब भी सबसे अच्छी बात यह रही कि नैनीताल जैसी भीड़-भाड़ और शोर-शराबे से यह बचा रहा। रेलवे स्टेशन से दूर होने के बावजूद रानीखेत और कौसानी जैसी सुंदर जगहें ‘बिगड़’ गईं लेकिन रामगढ़ अपना सौंदर्य और शांति बचाता आया था।
पिछले करीब एक दशक से रामगढ़ को भी भू-दलालों, बिचौलियों, अराजक पर्यटकों, बड़े होटल व्यवसाइयों और नवधनाढ्यों की नज़र लगगई है। इस दौरान यहां बेहिसाब निर्माण हुए हैं। छोटे-छोटे कॉटेज की बजाय तीन-चार मंजिले विशाल निर्माणों ने इसका चेहरा ही नहीं बिगाड़ा है, बल्कि भूस्खलन एवं अन्य आपदाओं की आशंका भी बढ़ा दी है। इस पर कोई नियंत्रण नहीं है।
बिकती जमीनें और बेहिसाब निर्माण
रामगढ़ का अधिकांश क्षेत्र आज भी ग्रामीण तोकों वाला है, जहां कोई भी निर्माण करने के लिए नक्शा पास कराना भी जरूरी नहीं है। इसका परिणाम यह है कि जो जैसा चाहे, जहां चाहे, जितना बड़ा चाहे निर्माण करा रहा है। जमीन बेचने-बिकवाने वाले शुरू में स्थानीय व्यक्ति ही थे, अब दिल्ली और हरियाणा तक के बिचौलिए जमीन बेचने के धंधे में लगे हैं। निर्माणों की देखरेख करने वाले अभियंता और वास्तुकार लगभग सभी बाहरी हैं। वे मैदानी पैमानों से नक्शा बनाते और निर्माण करवाते हैं। उन्हें पर्वतीय भू-संरचना और संवेदनशीलता का कोई प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है या इसका ध्यान रखने की परवाह नहीं है।
हमने दो साल में कई ऐसे निर्माणाधीन विशाल बंगले देखे जिन्हें पहाड़ी भू संरचना और पर्यावरण की सामान्य जानकारी रखने वाला भी खतरनाक बता देगा। खतरनाक ढलानों और गधेरों में भारी-भरकम रिटेनिंग वाल बनाकर बहुमंजिली इमारतें बेरोकटोक खड़ी की जा रही हैं। कभी आपदा आई तो वे उसकी विकरालता के कारण ही बनेंगे। अक्टूबर 2021 की अतिवृष्टि से हुई तबाहियों की निशानियां देखकर भी लोग अनजान बने हुए हैं।
मल्ला से तल्ला रामगढ़ तक अधिकांश जमीन बिक चुकी है। खेत, बाग, गौचरऔर गधेरे तक। जहाँ मकान बनवाना कुछ वर्षों पहले तक असुरक्षित माना जाता था, वहाँ भी गहरी रिटेनिंग वाल बनाकर भारी निर्माण हो गए हैं, होते जा रहे हैं। यूपी, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान तक से लोग जमीन खरीदने के लिए आ रहे हैं। बाहरी गाड़ी देखते ही चार-पांच आदमी घेर लेते हैं-‘जमीन चाहिए सर?’ गहरी खाइयां भी अब बढ़िया बताई जा रही हैं और लोग खरीद कर खुश हो रहे हैं। यहां चाय की गुमटियां चलाने वाले से लेकर दुकानदार और सरकारी कर्मचारी जमीनों की दलाली में लगे हैं।
उत्तराखंड की सरकार ने पर्यटन व्यवसाय को बढ़ाने के लिए होम-स्टे योजना स्वीकृत की है। पर्यटक यदि स्थानीय निवासियों के अतिथि बनकर रहते हैं, तो यह स्थानीय अर्थव्यवस्था और रोजगार के लिए अच्छा ही है। कई स्थानीय निवासी इस योजना से लाभान्वित भी हो रहे हैं लेकिन बाहर से आए बड़े होटल व्यवसाई इस योजना का अधिक दोहन कर रहे हैं। वे होटलों को होम स्टे के रूप में चलाकर बिजली, पानी व अन्य करों की छूट का लाभ उठा रहे हैं।
बड़े होटलों के कारण रामगढ़ की शांति भंग हो रही है। देर रात तक कान फाड़ू संगीत, हो-हल्ला और गाड़ियों की चिल्ल-पों शांतिप्रिय पर्यटकों और स्थानीय निवासियों को परेशान करते हैं। पिछले दिनों गांव की एक दादी को देर शाम अपने पड़ोस में खुल गए होटल में जाकर शोर-शराबा बंद करने का अनुरोध करना पड़ा था। कुछ पर्यटक होम स्टे के बाहर कुर्सियां डालकर या सड़क किनारे ही कार का स्टीरियो बजाकर शराब पीते हुए डांस करते देखे जा सकते हैं। वे खाली बोतलें और नमकीन के रैपर इधर-उधर फेंकने में तनिक संकोच नहीं करते। बढ़ते पर्यटन का यहविद्रूप चेहरा दुखद व चिंताजनक है।
अजैविक कचरा नया खतरा
रामगढ़ के समक्ष एक बड़ा खतरा अराजक पर्यटन से उपज रहे अजैविक कचरे से पैदा हो रहा है। तरह-तरह के पॉलीथीन, प्लास्टिक-थर्मोकॉल पैकेजिंग, रैपर, बोतलों, आदि से रास्ते, नालियां, गाड़-गधेरे और नदियां पट रही हैं। इस कचरे के कारण और भवननिर्माणों के मलबे से अधिकांश प्राकृतिक जलस्रोत पट चुके हैं। कुछ जलवायु बदलने से सूखे कुछ कचरे और मलबे से। जो जल-स्रोत बचे हैं उनका पानी भी सूख रहा है। इतने निर्माणों में सीवेज निस्तारण की कोई सुचिंतित व्यवस्था नहीं है। इन मुद्दों पर कोई चिंता भी दिखाई नहीं देती।
पानीसबसे बड़े संकट के रूप में उभरा है। होटलों-होम स्टे को पानी पहुंचाने कानया व्यवसाय खुल गया है। दर्जनों टैंकर और ट्रक नदियों या दूर के जलस्रोतोंसे पानी लाकर बेच रहे हैं। अवर्षण के कारण अबकी मई-जून में पानी का बहुतगम्भीर संकट हुआ। प्राकृतिक जल स्रोतों के सूखने या उन पर भी होटलों केकब्जे के कारण आम ग्रामीणों को, जो पानी खरीद नहीं पाते, पानी के लिए बहुतभटकना पड़ रहा है। उनके गधेरों का बचा-खुचा पानी पाइप डालकर होटलों और होम स्टे चलाने वाले खींच ले रहे हैं।
पर्यटन को रोजगार बनाना स्थानीय अर्थव्यवस्थाके लिए अच्छा है लेकिन उसे स्थानीय समाज, प्रकृति व पर्यावरण सम्मत होनाचाहिए। पर्यटकों के लिए तो कुछ नियमों, दिशा-निर्देशों के पालन करने कीबाध्यता होनी ही चाहिएलेकिन न होम स्टे चलाने वालों और न ही होटल वालों में ऐसी कोई चेतना दिखाई देती है। सभी होम-स्टे और होटलों की ढलान में अजैविक कचरे के ढेर दूर से दिखाई देते हैं। स्थानीय निवासी भी घरों का कचरा कहीं भी फेंक देते हैं।
वातावरण कीशांति, पानी और पर्यावरणबचाने के उपायों के प्रति चेतनाआवश्यक है। कचरा प्रबंधन की समुचित व्यवस्था तो अत्यावश्यक कही जाएगी। नीमराणा (राजस्थान) वालोंका एक होटल यहां भी है, जो अपना कचरा निस्तारण के लिए हलद्वानी भेजता है।उन्होंने इस पहल में दूसरे होटल और होम स्टे को शामिल होने का प्रस्ताव दिया था लेकिन किसी ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। अजैविक कचरा पहाड़ों का दम घोंट रहा है। यह पर्यटकों का नहीं, स्थानीय निवासियों का ही जीवन नरक बना रहा है।
स्थानीयनागरिकों, दुकानदारों और होम स्टे चलाने वालों को इस पर अवश्य ही ध्यानदेना होगा। मैंने रामग़ढ़ में रहते हुए फेसबुक पर इस आशय की पोस्ट लिखीं तो कुछ स्थानीय परिचित नाराज हो गए थे कि मैं रामगढ़ की बदनामी कर रहा हूं। यह आसन्न संकट के प्रति आंख मूंद लेना है।पर्यटक तो कुछ दिन की मस्ती करके चले जाएंगे। उनका फैलाया कचरारामगढ़ वालों के लिए ही आफत लाएगा। उनके नाले चोक होंगे, जल स्रोत उन्हीं केसूखेंगे, बीमारियां उन्हें ही व्यापेंगी। अंतत: यह उनके पर्यटन-रोजगार के लिए नुकसानदेह होगा।
पर्यटन बेहतर रोजगार साबितहो और ऐसा ही बना रहे, इसका उत्तरदायित्व स्थानीय व्यवसाइयों और सचेत नागरिकों को ही लेनाहोगा। प्रशासन नाम की चीज यहां है भी नहीं। उन्हें अपना संगठन बनाकर इसबारे में पहल करनी चाहिए। यूरोपीय देशों, बल्कि पड़ोसी भूटान से ही इस बारेमें बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अभी तो वे जो कर रहे हैं, वहमुर्गी का पेट फाड़कर सारे अंडे एक बार में निकाल लेने के प्रयास जैसा है।मुर्गी दम तोड़ देगी तो फिर उनके रोजगार का क्या होगा?
फलोत्पादन पर चौतरफा मार
बिगड़ते पर्यावरण और बढ़ते तापमान के कारण रामगढ़ का फल-व्यवसाय भी प्रभावित हो रहा है। अवर्षण और बढ़ती गर्मी से आड़ू-पुलम-खुबानी-सेब का आकार और स्वाद दोनों कम हो रहे हैं। दिल्ली स्थित एक स्वयंसेवी संगठन ‘क्लाइमेट ट्रेण्ड्स’के अनुसार उत्तराखण्ड का औसत तापमान 1970 से 2022 के बीच 1.5 डिग्री सेण्टीग्रेड बढ़ गया है, जबकि भारत का औसत तापमान सन 1900 के बाद 0.7 डिग्री और 1880 के बाद वैश्विक तापमान 1.1 डिग्री बढ़ा है। स्थानीय निवासियों ने बताया कि इस बार सबसे अधिक गर्मी पढ़ी। जिन घरों में कभी पंखे नहीं लगे थे, वहां लगवाने पड़े। बढ़ते तापमान का सबसे अधिक नुकसान सेब की फसल को हो रहा है, जिसे अच्छे उत्पादन, आकार और स्वाद के लिए खूब हिमपात की आवश्यकता होती है। पूरे उत्तराखण्ड में हिमपात अब बहुत कम होने लगा है।
फलों के उत्पादन का सरकारी आंकड़ा भी कम होता जा रहा है। उद्यान विभाग के अनुसार पूरे नैनीताल जिले में 2016-17 में 10916 हेक्टेयर क्षेत्र में फल उगाए गए थे जो 2022-23 में घटकर 9685 हेक्टेयर रह गया। प्रति हेक्टेयर फल उपज में भी 11 फीसदी की गिरावट आई है। इसका कारण बिगड़ता मौसम तो है ही, बगीचों का बिकना और उसमें होटल-मकान-आदि का निर्माण और बड़ा कारण है। अधिकतर छोटे किसानों ने अपनी जमीनें बेच दीं। वहां कंक्रीट की इमारतें बन गईं। अब वे उन्हीं होटलों-मकानों के चौकीदार या केयर टेकर हैं अथवा हल्दवानी-रामनगर की ओर चले गए। बड़े काश्तकार इस समस्या से जूझ रहे हैं कि उनकी नई पीढ़ी को फलोत्पादन या कृषि में ही रुचि नहीं है। वे उच्च शिक्षा के लिए बाहर जा रहे हैं और वहीं अपना करिअर तलाश रहे हैं।
अपवाद रूप में पृथ्वी ‘लक्ष्मी’राज सिंह जैसे युवा हैं जो ‘बढ़िया करिअर’छोड़कर किसानी के लिए अपने रामगढ़ में आ डटे हैं। उन्होंने फल उत्पादन के अलावा, मछली पालन में भी नए प्रयोग किए हैं। यह बहुत श्रम और धैर्य मांगता है। प्राकृतिक आपदा के साथ सरकारी तंत्र और कथित किसान कल्याणकारी योजनाओं के मकड़जाल से भी जूझना पड़ता है। पृथ्वी को अपने प्रयोगों के लिए स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर केपुरस्कार मिल रहे हैं लेकिन इस मोर्चे पर डटे रहना आसान नहीं है। तो भी, पृथ्वी एक उम्मीद जगाते हैं। उनकी सफलता की कामना इसलिए भी करनी चाहिए कि उससे अन्य युवा भी ओर आकर्षित हो सकते हैं।
फोटो इंटरनेट से साभार