बची सिंह बिष्ट
रामगढ़ ब्लाक और धारी ब्लाक के सेब,आडू, खुबानी, नाशपाती और आलू गोभी मटर सहित तमाम पहाड़ी फल और सब्जियों के उत्पादक क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता में कभी नहीं रहे। कभी अंग्रेज यहाँ खट्टे सेबों को लाये होंगे। लेकिन स्थानीय प्रयासों ने पूरे इलाके को फल पट्टी में बदल कर खेती काश्तकारी को एक नई पहचान दे दी है। सरकार की इस क्षेत्र में 10 मोबाईल टीम यानि उद्यान सचल दल की टीमें हैं। जिनके पास इस क्षेत्र के बेशकीमती कृषि बागवानी के फ़र्मोन्न में प्रयोग उत्पादन और प्रशिक्षण की जिम्मेदारी के आलावा स्थानीय बागवानों को उन्नत प्रजाति के बीज,पौध,खाद तथा खेती बागवानी में लगने वाली बिमारियों अथवा जरूरी दवाओं आदि की जानकारी व् सुविधा देने की जिम्मेदारी है। विगत तिवारी सरकार ने उनमें से कुछ फार्म जो कभी आलू व् फूल उत्पादन से ही आत्म निर्भर थे कौड़ियों के भाव उद्योग पतियों को बेच डाले। कुछ जो सरकार के खुद के नियन्त्रण में संचालित हो रहे हैं उनमें स्थायी कर्मचारी मात्र एक या दो ही रह गये हैं। जो दोहरी तिहरी जिम्मेदारी निभाते हैं। जैसे एक माली जो फार्म में सुपरवाईजर का कार्य,माली चौकीदार और उद्यान सहायक का भी कार्य करता है।
रामगढ़,बमेटी,सतबूंगा,,सूपी,मनाघेर आदि कृषि बागवानी फार्मों में उत्तराखंड बनने के बाद से आज तक कोई माली स्थायी रूप से नियुक्त ही नहीं किया गया है। इन फार्मों की भूमि स्थानीय लोगों के प्रयासों से सरकार ने ली और उत्तराखंड बनने के बाद इनका निजीकरण करना शुरू कर दिया। निजी कम्पनियाँ इन फार्मों से स्थानीय लोगों को कोई लाभ नहीं देती हैं। बल्कि उनके पास नियुक्त कुछ निजी कर्मचारी उसी उत्पादन को करते हैं जो कम्पनी की जरूरत का होता है। स्थानीय काश्तकारों को इनसे लाभ मिलना एक पुरानी बात हो गयी है।
फल पट्टी के बागवानों का समस्त उत्पादन हल्द्वानी मंडी में बिकने जाता है। जहाँ किसानों का माल बेचने के लिये कुछ बिचौलिए मौजूद होते हैं। ये खुद कोई उत्पादन नहीं करते लेकिन इनकी जड़े मंडी में बहुत गहरी हैं। ये अपनी बेनामी फर्मों के माध्यम से बागवानों के उत्पादन का मनमाना दाम देकर उसका पीढ़ियों से शोषण करते रहे हैं। नये नये बनिये बिचौलिये बाहरी व्यापारियों व् लोडरों को मंडी में आने ही नहं देते। तमाम बनिये खुद ही लोडर और बाहरी बड़ी मंडियों के लिए सप्लायर बन गये हैं जो आपसी सहमति से स्थानीय उत्पादक बागवान का माल औने पौने दाम में खरीदकर उससे दोहरा कमीशन लेकर उसका शोषण करते हैं। इस पूरे खेल में मंडी बोर्ड और मंडी परिषद की खुली मिली भगत रहती है। मंडी समिति एक राजनैतिक इकाई होने के कारण कभी भी किसान बागवानों की मूल समस्या पर कार्य नहीं करती है। जबकि मंडी बोर्ड का पूरा ध्यान कुछ चयनित बड़े प्रोजेक्ट्स को हासिल करके उसके क्रियान्वयन पर रहता है। उसे जमीनी किसान और उसकी दिक्कतों से कोई वास्ता नहीं रहता। जिले का उद्यान विभाग भी किसानों के बदले नेताओं मंत्रियों के पीछे दौड़ाया जाता है और प्रदेश के कृषि बागवानी मंत्री व् सचिव को इस क्षेत्र विशेष के बारे में कभी कोई सही व् प्रमाणिक जानकारी नहीं दी जाती है। उसके पीछे उन दलालों की बड़ी भूमिका रहती है जो खुद की कम्पनी बनाकर सरकार के विभाग के प्रमुखों के साथ मिलकर करोड़ों के बजट व् सब्सिडी को डकारने का कार्य करते हैं। वे देशी विदेशी फल प्रजातियों की खरीद फरोख्त करके देश भर के बागवानों के उपर खुद का वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। साथ ही उनकी पकड़ सरकार के अंदर तक रहने से सरकारी तन्त्र उन्हीं को असली बागवान समझता है और जो भी सरकारी कार्यक्रम व् सुविधाएँ होती हैं वे दलालों के हाथों में आराम से पहुँचती हैं। असली किसान बागवान हमेशा शोषित वंचित ही रहता है।
फल पट्टी में मौजूद शीतोष्ण बागवानी अनुसन्धान केंद्र एक केन्द्रीय सरकार का उपक्रम है। जिसका कार्य सेब पर अनुसन्धान करना और किसान बागवानों की दिक्कतों को दूर करना है। इस अनुसन्धान केंद्र को मुक्तेश्वर में बनाया गया है। जिसमें कुछ वैज्ञानिक शोध करते हैं ऐसा बताया गया है।
प्रत्यक्ष जाने पर ये समझ आया कि इस अनुसन्धान केंद्र की खुद की स्थिति बेहिसाब खराब है। अभी तक मिटटी जाँच तक की व्यवस्था नहीं है। कोई सेब का जानकर वैज्ञानिक नियुक्त नहीं है। उनकी खुद की सेब की पौधशाला में दसियों बीमारियाँ लगी हुयी हैं और उनके पास स्थानीय बागवानों की जानकारी बढ़ाने और उनकी दिक्कतों को दूर करने के साधन हैं ही नहीं। वे उसी सेब को लोद वन करके अपना बता रहे हैं जिसका प्रसार हमारे क्षेत्र के लोद गाँव के पुराने सम्मानित बागवान श्री राम सिंह लोधियालजी ने अपने बगीचे में किया था और बाद में जिसे स्थानीय पौधालय में महेश सिंह गलिया ने तैयार करके पूरे क्षेत्र में किसानों को उपलब्ध करवाया। ये बात बीसियों साल पुरानी हो गयी। जिसे आज ये अनुसन्धान केंद्र खुद की खोज बताकर वाहवाही लूट रहा है।
आम तौर पर सेब के उत्पादक मुख्य गाँव सूपी सतबूंगा लोद गल्ला बुडीबना कोकिलबना फिर चौखुटा गजार शिलंग आदि गाँव हैं। लेकिन जब इस क्षेत्र में सेब महोत्सव करवाया जाता है तो उसे सेब की फसल खत्म होने के बाद करवया जाता रहा है। उसे कभी भी स्थानीय किसान बागवानों के बीच नहीं करवाया गया। उस महोत्सव में हमेशा वे लोग या वे फर्मे प्राथमिकता पाती रहीं हैं जिनका योगदान स्थानीय किसान बागवानों के हक में या हित में नहीं रहा।
ये भी समझने जैसा है कि स्थानीय फल उत्पादकों के बीच में जिले का जिला उद्यान अधिकारी और कृषि बागवानी मंत्री कभी नहीं आया। फल पट्टी की कोई मान्यता भी सेव आडू उत्पादकों के क्षेत्र को नहीं मिली है। लेकिन जब मंडी समिति के अध्यक्ष से पूछिये तो वे किसान बागवानों के परिवार के हरेक सदस्य की प्राण पण से की जा रही अनथक मेहनत की जगह ये कहते मिले कि ये भगवान की बड़ी कृपा है कि ये क्षेत्र अपने आप फल पट्टी बन गया। यानि आप स्थानीय व्यक्ति हैं लेकिन आपको। खुद नहीं पता कि इन किसान बागवानों के घर के हरेक सदस्य यहाँ तक छोटे बच्चे तक कितनी मेहनत से इन फलों और सब्जियों को उगाते हैं? कैसे पहाड़ों में भयानक जोखिम उठाकर ये घास लकड़ी चारा लाकर पशुओं का पालन करते और गोबर की खाद बनाते हैं? किसी भी मंत्री तंत्री को नहीं पता कि धार पतर जाकर घास लाना मतलब भूखे प्यासे घोर जंगल में वन्य पशुओं के खतरे के बीच विकट पहाड़ में घुटने टेक टेक करके महिलाएं युवा इन खेतों में ठीक गोबर की खाद मिले इसलिए पशुओं के लिए चारा जुटाते रहे हैं। सुबह के 3 बजे अँधेरे में करीब 20 किमी तक बीहड़ जंगल में जाना और रात अँधेरे में आना क्या होता है अभी तक हमारे नीति निर्माता और अफसरों को नहीं पता है। उनको तो ये भी समझ नहीं आता कि फल पट्टी का हरेक घर अपनी पांच से 20 -25 नाली बिखरी असिंचित जमीन से कैसे अपने परिवार की गुजर बसर करता है?
घर के हरेक सदस्य को पूरे साल भर अपनी हड्डियों को तोड़ना पड़ता है। भूखे प्यासे अध्खाए रहकर काम करना पड़ता है तब जो ऊपर की मार से बचकर उत्पादन निकलता है। उसके लिये बनियों से लेकर,वन विभाग,ट्रक वालों की चिरौरी करनी पड़ती है। रात रात जागकर इन टूटी खड्डे वाली सड़कों से ट्रक पार करवाने पड़ते हैं। कितने ही दिन न दिन का खाना मिलता है न रात का।
तब मंडी तक हमारा उत्पादन जा पाता है। वहां लालाजी की कृपा हुई तो कुछ भाव अच्छा मिलेगा वरना फिर एक बार नसीब को कोस अगली तैयारी के लिए हाड़ तोड़ने निकलना पड़ता है।
विगत 2017 से आज तक उससे पहले भी कुछ 5 सालों से फल। पट्टी का किसान बागवान मौसम की मार झेल रहा है। दलालों ने बीमा का धंधा करके कुछ को फायदा दिलवा दिया। लेकिन असली गरीब सीमांत किसान की जमीन तो अभी तक बैंकों के पास बंधक पड़ी हैं। इसमें भी कितने ही फ्राड कितने ही दलाल घुसे पड़े हैं। कोई किसान को KCC ऋण दिलवाने की दलाली में जूटा है तो कोई स्थानीय को आपरेटिव के सचिव को घूस देकर लोन निकलवा रहा है। जिन्दा रहने के लिए खुद के परिवार को पालने के लिये ये सारे टोटके करने ही पड़ते हैं साहब।
आपको पता है इन्हीं बैकों की धोखाधड़ी से पहले पहल लोगों की जमीनें बिकी थी। अब इस पूरे क्षेत्र के शीर्ष पर होटलों,रिसार्ट्स की भरमार हो गयी है। स्थानीय लोगों की स्थिति और खराब हो चुकी है। वे कुपोषण बीमारी कर्ज और नशे की भयंकर चपेट में आकर अल्पायु मृत्यु का ग्रास बनने को मजबूर हैं। जितनी कसर थी वो स्कूलों में टीचर्स की कमी और गुणवत्ता हीन पढाई ने पूरी कर दी है। इन स्थानीय विद्यालयों से निकलकर बच्चे नशेड़ी जुवारी आवारा ही अधिक बन रहे हैं।
इन सबका असज तक कोई समाधान नहीं खोजा गया। कोई उपाय नहीं किया गया कि फल व् सब्जी उप्ताद्क क्षेत्र के बच्चे अच्छे संस्थानों में पढ़ने जा सकें। ये भी नहीं कि किसान बागवानों को परिवार बीमा जैसी कोई सुविधा मिले। न ही इस क्षेत्र में आ रही दिक्कतों को दूर करने के लिए कोई गम्भीर सर्वे ही किया गया। कुछ भी नहीं किया सिवाय श्रेय लूटने के। हरेक पार्टी को यहाँ से लोग मिलते हैं क्योंकि इस क्षेत्र ने अपनी कोशिशों से युवा पलायन को रोक लिया है। लेकिन सबको वोट चाहिए। जिसके लिए उन्होंने दारू और दलाली को माध्यम बना रखा है।
फल पट्टी में विगत कुछ महीनों की ओला वृष्टि ने बागवानों की कमर तोड़ दी है। आज तक कोई नेता अफसर नहीं आया। पटवारी से नुकसान का सर्वे करवाया गया उसे दबाव में लेकर कि वह मात्र 17 प्रतिशत ही क्षति दिखाये। कोई जानकर या वैज्ञानिक आधार भी सर्वे का नहीं लिया गया है। नेता अफसरों ने मुँह बंद रखे हैं। लोग भुखमरी कर्ज और बीमारी की ओर बढ़ गये हैं। भविष्य में अनेक अल्पायु की मौतें होंगी लेकिन सरकार के सामने कोई मामला नहीं आयेगा। ऐसा काफी बार हुआ लेकिन कौन पड़ेगा झंझट में?
वर्तमान में अंतराष्ट्रीय आपदा ग्रस्त दुनिया में सभी लोग घरों में बंद हैं या कोशिश में हैं कि उचित दूरी पर रहें। हमारे फल पट्टी में लोग खेतों में हैं। ओले के नुकसान के बाद जो मटर लगाई। आलू बोये उनमें सिंचाई करने में लगे हैं। पूरे क्षेत्र में आडू में टफरीना कोढ़ आ गया है। पत्तियों को नोचकर आडू के पेड़ को सूखने से बचाने का कार्य पूरा परिवार करता है। अभी तक ये माना जाता है कि जहर मुक्त उत्पादन स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये बेहतरीन है। इस क्षेत्र में सेब खुबानी मटर सब जहर मुक्त होता है। आलू भी जहर मुक्त है। जब देश दुनिया सब बंद है तो जो कुछ उत्पादन होगा भी उसे कैसे मंडी व् उपभोक्ता तक भेजा जायेगा ये चिंता सभी को सता रही है?
फल पट्टी का सीमांत किसान बागवान जलवायु परिवर्तन,मौसम,बनिये बिचौलिए और सरकारी तन्त्र की काहिली की मार से त्रस्त हो चुका है। हताश हो चुके बागवान को अब किसी से उम्मीद भी नही है।
कभी वास्तविक स्थिति को लिखा समझा बोला जायेगा तो अंदर से रिसते घाव की तरह ये दर्द उभर आयेगा। लेकिन सीमांत किसान बागवान की इस पीड़ा को कौन सुनने देखने वाला है?