उमा भट्ट
यह तो सर्वविदित ही है कि वैश्वीकरण के इस दौर में संसार की कई भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। ऐसे में उत्तराखण्ड की भाषाएं भी अपने समाज तक सीमित होती जा रही हैं। इन्हीं में से एक विलुप्तप्राय भाषा राजी भी है जो उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़, चम्पावत तथा उधमसिंह नगर जिलों के सीमान्त और सीमित क्षेत्रों में बोली जाती है। राजी भाषा बोलने वालों की संख्या यद्यपि अत्यल्प है परन्तु यह सुखद है कि उनकी जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। 2001 की जनगणना के अनुसार राजी जनसंख्या 517 है। 2011 में यही 732 हो गई है। पिथौरागढ़ जिले के अस्कोट क्षेत्र में कार्यरत गैरसरकारी संगठन अर्पण द्वारा 2022 में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार राजी जनसंख्या 1075 है। उम्मीद करनी चाहिए कि जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ राजी जनजाति की स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की स्थितियों में सुधार होगा और उनमें अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम तथा उसके संरक्षण की भावना भी बलवती होती जाएगी।
भाषा के संरक्षण के लिए जहां भाषा का लोक-व्यवहार में जीवित रहना जरूरी है, वहीं उसके व्याकरण तथा कोश-ग्रन्थों का निर्माण भी अत्यावश्यक है। उत्तराखण्ड की भाषाओं में कुमाउंनी, गढ़वाली, जौनसारी तथा रङल्वू के शब्दकोश बने हैं। जौनपुरी, जोहारी तथा बंगाणी में भी शब्द-संकलन के प्रारम्भिक प्रयास हुए हैं। इस बीच राजी भाषा का पहला शब्दकोश प्रकाशित हुआ है। लखनऊ विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान विभाग की प्रोफेसर कविता रस्तोगी पिछले पच्चीस वर्षों से निरन्तर राजी भाषा पर काम कर रही हैं। सोसायटी फार एनडेन्जर्ड लैंग्वेजेज (सेल) नामक संस्था के माध्यम से भी वे काम कर रही हैं। राजी समुदाय के साथ संवाद कायम करते हुए उन्होंने इससे पूर्व 2010 में राजी वर्णमाला तथा 2012 में राजी भाषा के व्याकरण की दो पुस्तिकाएं प्रकाशित की हैं।
यह एक दुष्कर कार्य था। जैसा कि कविता जी लिखती हैं, ‘यह एक अत्यन्त कठिन काम था क्योंकि राजी लोग आम जनजाति समुदायों से भिन्न प्रवृत्ति वाले हैं जो अपने पड़ोसियों तक से ज्यादा बातचीत करना पसन्द नहीं करते।’ इसी राजी जनजाति के लोगों को सूचक बनाकर कविता रस्तोगी ने राजी भाषा का शब्दकोश तैयार किया है जिसे दून लायब्रेरी एन्ड रिसर्च सेन्टर, देहरादून तथा मैसर्स बिशन सिंह महेन्द्र पाल सिंह, देहरादून ने प्रकाशित किया है। इस किताब में एक ओर से राजी-हिन्दी शब्दकोश (125 पृष्ठ) है तथा दूसरी ओर से राजी-इंग्लिश डिक्शनरी (122 पृष्ठ) है। इस प्रकार से यह त्रिभाषी शब्दकोश है तथा इसमें देवनागरी, रोमन और आईपीए (इन्टरनेशनल फोनेटिक एल्फाबेट) तीनों लिपियों का प्रयोग किया गया है। यद्यपि देवनागरी उत्तराखण्ड की विभिन्न भाषाओं की ध्वनियों का यथार्थ प्रतिलेखन करने में असमर्थ है परन्तु वर्तमान में देवनागरी को ही एकमात्र लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। कोश में दोनों भाषाओं में अधिकांश शब्दों के साथ उनका वाक्य प्रयोग भी दिया गया है जिससे कोश की उपयोगिता बढ़ गई है। संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं के शब्दकोशों में वाक्य प्रयोग देने की परम्परा थी पर आधुमिक भाषाओं के शब्दकोशों में यह नहीं देखी जाती। राजी-इंग्लिश डिक्शनरी में राजी शब्दों को आईपीए में लिखा गया है जिससे शब्द का सही उच्चारण सम्भव है। इसके अतिरिक्त एक अन्य विशेषता इस कोश की यह है कि इसमें अधिकांश शब्दों के चित्र भी दिये गये हैं।
कोश के आमुख में प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक प्रो अन्विता अब्बी लिखती हैं, ‘बहुभाषिक, बहु-लिपि वाला, सचित्र कोश एक ऐसी भाषा में बनाना जो लेखिका द्वारा लिपिबद्ध करने के पूर्व मात्र मौखिक रूप में विद्यमान थी, अपने में एक सराहनीय प्रयास है। भाषा की शब्दावली स्वयं एकत्रित करने के उद्देश्य से कविता रस्तोगी द्वारा हिमालय के निचले दुर्गम क्षेत्रों में किये गए कार्यों पर आधारित यह कोश, भाषाविदों और राजी समुदाय, दोनों के लिए अतुलनीय सौगात कही जा सकती है।’
कोशकार ने प्रारम्भ में संक्षेप में राजी जनजाति का परिचय, उसकी आनुवंशिक सम्बद्धता, राजी भाषा की वर्तमान स्थिति तथा उसका संक्षिप्त व्याकरण दिया है। यद्यपि राजी भाषा पर शोध कार्य करनेवाले डॉ. शोभाराम शर्मा ने ध्वनि संरचना, व्याकरण और शब्द भण्डार के आधार पर मानते हें कि यह मूलतः आग्नेय परिवार से सम्बन्धित मुडा परिवार की भाषा है परन्तु लेखिका ने राजी भाषा को तिब्बती-बर्मी परिवार की केन्द्रीय हिमालय शाखा से सम्बन्धित माना है जो अपनी पड़ोसी कुमाउंनी, नेपाली, हिन्दी और तिब्बती बर्मी परिवार की भाषाओं से प्रभावित हुई है। कुछ समय पूर्व राजी जनजाति के लोग अन्य समाजों से दूर एकान्त में जंगलों में रहने के आदी थे परन्तु जब से बाहरी समाज के सम्पर्क में आये हैं, उनकी शब्दावली मिश्रित होती जा रही है। कोश में शब्द की व्याकरणिक कोटि के साथ ही प्रविष्टि के आगे स्रोत भाषा का उल्लेख भा.आ. (भारतीय आर्य भाषा) या ति.ब. (तिब्बती बर्मी) के रूप में किया गया है। राजी की निकटवर्ती भाषा कुमाउंनी है। उत्तराखण्ड में माध्यम भाषा के रूप में हिन्दी व्यवहृत होती है। सम्पर्क भाषा के रूप में पहले कुमाऊं में कुमाउंनी का प्रयोग होता था पर अब उसका स्थान धीरे धीरे हिन्दी लेने लगी है। जिस प्रकार कुमाउनी में हिन्दी की पर्याप्त शब्दावली प्रयुक्त हो रही है, उसी प्रकार राजी में कुमाउंनी की पर्याप्त शब्दावली प्रयोग में लाई जा रही है।
प्रस्तुत कोश में शब्दों की निश्चित संख्या नहीं दी गई है परन्तु इसमें लगभग 1256 शब्द हैं। यद्यपि राजी समुदाय का कार्यक्षेत्र अत्यन्त सीमित रहा है परन्तु क्या कोई समुदाय कुल 1256 शब्दों से काम चला सकता है ? शोभाराम शर्मा मानते हैं कि राजी भाषा का शब्द भण्डार सीमित है। भाव, दशा और गुण आदि की अभिव्यक्ति करने वाले शब्दों की राजी भाषा में अत्यंत कमी है’ (उत्तराखण्ड की भाषाएं, 2014)। इन 1256 शब्दों में से लगभग 180 शब्द ऐसे हैं जो कुमाउनी में भी किंचित उच्चारण भेद के साथ विद्यमान हैं जिनमें कई शब्द ऐसे हैं जो कुमाउनी में तद्भव कहे जाते हैं। जैसे राजी का शब्द हज्जे। यह कुमाउनी में शज्य या शज्जि है और संस्कृत में शय्या। कुमाउनी की सीराली बोली की तरह राजी में भी आदि श का उच्चारण ह है। जैसे – हकलकंद-शकलकंद, हालो-शालो, हरम- शरम, हङे-संग, हाहो- शश। राजी में नासिक्य ध्वनियों में ङ की प्रधानता है। आगत शब्दों को मातृभाषावत् बनाने के लिए भी शब्दान्त में ङ जोड़ दिया जाता है। यह देखने में आया है कि कुमाउनी के प्रायः अकारान्त तद्भव शब्दों में ङ जोड़ा गया है। जैसे- दुधङ (दुग्ध, दूध), घमङ (घर्म, घाम), घुमङ (गोधूम, गेहूं), फुलङ (फुल्ल, फूल), तिलङ (तिल, तिल), बिषङ (विष), सीगङ (श्रृंग, सींग), हुनङ (स्वर्ण, सोना) इत्यादि। इखुङ (इक्षु, रिखु) इसका अपवाद है। तद्भव शब्दों के अतिरिक्त राजी-कुमाउनी में बहुत से समान शब्द ऐसे हैं जिनको कुमाउनी में रूढ़ या अज्ञातव्युत्पत्तिक माना गया है। जैसे गड़-गोड़ि (खेत), कुच-कुचा या कुच्चा (झाड़ू), जाम्मै-जम्मा (सब), झट्ट-झट्ट (शीघ्र), गाज-गाजी (झाग), झिक-झिक्कल (अधिक), थोल-ठौल्या (होंठ)। ऐसे शब्दों की सूची लम्बी है। यह आदान-प्रदान राजी से कुमाउंनी में भी हो सकता है और कुमाउंनी से राजी में भी।
कुमाउनी भाषा पर काम करने वाले सभी विद्वानों ने राजी भाषा से कुमाउंनी में आगत शब्दों की सूची दी है। जैसे- बगड़, गड़, पुङ, लिङुण, झुङर, बोक्कि, मडु, च्यो, घुरड़, किरमई, जुङ, घुगुत आदि। इसके पीछे यह विचार है कि आर्य भाषाभाषियों से पूर्व इस क्षेत्र में आग्नेय परिवार की भाषाएं बोली जाती थीं। वर्तमान में जिनका प्रतिनिधित्व राजी करती है। जिन शब्दों के स्रोत नहीं दिये गये हैं, यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें राजी के अपने मूल शब्द माना गया है। उनमें से कई ऐसे हैं जो भाआ या फारसी मूल के हैं। आगत शब्दों के प्रचलन के कारण बोधगम्यता के लिए एक ही अर्थ के द्योतक दो-दो शब्दों का प्रयोग भाषा में शुरू हो जाता है। यह स्थिति राजी में भी देख सकते हैं। जैसे चाकू के लिए चक्खु और कइया, काटने के लिए कट्ट और कइया, मोती के लिए दानू और गुल्याल, बैंगन के लिए भाटा और बइकन, रस के लिए रस और हुरू (कु. में शुरुवा), दरांती के लिए शेम और श्यङ, अमरूद के लिए अमरोदे और बेहे। (अमरूद और बिही दोनों ही फारसी मूल के शब्द हैं।)
इस प्रकार एक मृतप्राय भाषा को जीवित रखने का यह प्रयास अत्यन्त सराहनीय है। राजी भाषा के अध्येताओं के लिए तो यह महत्वपूर्ण है ही, राजी भाषा बोलने वालों के लिए भी उत्साहवर्धक है। आशा करनी चाहिए कि मातृभाषा के व्यवहार के साथ ही उनमें उसके प्रति अभिमान की भावना भी बनी रहेगी तथा वे इसके संरक्षण के प्रति उत्सुक होंगे। प्रो. कविता रस्तोगी से प्राप्त सूचना के अनुसार सेल संस्था के माध्यम से राजी भाषा का बोलता हुआ शब्दकोश (टॉकिंग डिक्शनरी) भी तैयार किया जा रहा है जो उनकी वेबसाइट पर उपलब्ध हो सकेगा जिससे राजी शब्दों का सही उच्चारण सुना जा सकेगा।