डाॅ. कपिलेश भोज
उŸाराखण्ड के जाने-माने इतिहासविद् और लेखक ताराचन्द्र त्रिपाठी (जन्म: 24 जनवरी, सन् 1940) की-सन् 1998 में राजकीय इण्टर काॅलेज, नैनीताल से प्राचार्य के पद से सेवानिवृŸा होने के एक साल बाद- 1999 में पहाड़ प्रकाशन से पहली किताब ‘उŸाराखण्ड का ऐतिहासिक भूगोल’ प्रकाशित हुई थी। तब से 2014 तक के पिछले 15 वर्षांे में उनकी ये आठ और कृतियाँ आ चुकी हैं- ‘आँखिन की देखी’ (ललित निबन्ध एवं यात्रा-संस्मरण संग्रह), ‘मध्य हिमालय-भाषा, लोक और स्थान-नाम’, ‘कोहरे के आर-पार’ (काव्यकृति), ‘वह अविस्मरणीय देश’ (जापान में नवासी दिन), ‘ग्यारह वर्ष’ (एक प्रधानाचार्य के अनुभव एवं प्रयोग), ‘जापान-तोक्यो की छत से’ (दूसरी जापान यात्रा के संस्मरण), ‘महाद्वीपों के आर-पार’ (यात्रा-संस्मरण) और ‘शब्द, भाषा और विचार’।
इधर, इसी वर्ष 2019 में समय साक्ष्य प्रकाशन से उनकी नई किताब आई है- ‘इतिहास और सच’। इसमें इतिहास, भारतीय संस्कृति, दर्शन, धर्म, सम्प्रदाय, कला, शिक्षा, राष्ट्रीयता, वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, आरक्षण, अवतारवाद, राम-कथा, अध्यात्म-साधना, राजभाषा, सांस्कृतिक एकता, महिलाओं की स्थिति, वर्तमान भारत की अर्थव्यवस्था व राजनीति, विकास, कानून, निर्वाचन, गणतंत्र, बुद्धिजीवी, नैतिक शिक्षा, देशद्रोह, नक्सल समस्या आदि विभिन्न विषयों पर 42 छोटे-छोटे निबन्ध, लेख और 2 संवाद संकलित हैं।
पुस्तक के प्रारंभ मे ही लेखक ने कहा है कि ‘‘निहित स्वार्थ और प्रलोभन वास्तविकता को सामने नहीं आने देते। उनसे मुक्त हुए बिना न तो वास्तविकता को समझा जा सकता है और न उसे प्रकाशित किया जा सकता है।’’ सहज संवाद की शैली में लिखे गए इस पुस्तक के सभी लेख वास्तविकता को समझने के लिए चीजों की गहराई में पैठ कर उनकी छानबीन करते हैं।
लेखों में उल्लिखित प्रसंग, घटनाओं, धारणाओं के मूल तक पहुँचने तथा नए तथ्यों के अन्वेशण के लिए बहस और तर्क की पद्धति को अपनाया गया है, क्योंकि लेखक का मानना है कि ‘‘वैचारिक मतभेदों और उन पर बहस की, संस्कृति के विकास में मुख्य भूमिका होती है। बहस करने और तर्क करने से ही किसी घटना या धारणा के मूल तक पहुँचने और नए तथ्यों के अन्वेषण में सहायता मिलती है, इसलिए हमारे प्राचीन मनीशियों ने ‘वादे-वादे जायते तŸवबोधः’ का उद्घोष किया था। दुर्भाग्य से सामन्ती सोच वाला समाज और सŸाा इसे अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं और उसे हर तरह से दबाने की चेष्टा करते हैं।’’
हमारे पुराणों में वर्णित महाप्रलय की घटना कहाँ हुई थी ? ‘ऋषि’ कौन थे ? क्या वास्तव में वैदिक आर्य लेखन-कला से अनभिज्ञ थे ? पौराणिक साहित्य में विरोधियों का किस प्रकार विरूपण किया गया है ? दक्षिण-पूर्वी एशिया के विभिन्न समाजों में व्याप्त राम-कथा के विभिन्न रूप क्यों हैंय धर्मशास्त्रों का केन्द्रीय तŸव क्या है ? पुरुष-प्रधान समाज ने स्त्रियों पर सामान्य श्रमजीवी वर्ग से भी अधिक अंकुश क्यों लगाए ? जनजातीय समाजों को छोड़ कर कहीं भी नारी को बराबर के अधिकार प्राप्त क्यों नहीं हैं ? तथाकथित सभ्य समाजों में नारी की सामाजिक स्थिति का अवमूल्यन क्यों हुआ है ? सभ्य समाज में जीवन की आधारभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराने वाला वर्ग, श्रमजीवी और नारी, उपेक्षा और उत्पीड़न के लिए अभिषप्त क्यों रहा है ? यह कहना कि ‘प्राचीन काल में हमारी संस्कृति में नारी का सामाजिक स्तर काफी ऊँचा था’ सच क्यों नहीं है ? नारी की सामाजिक स्थिति में सुधार किसी आचार्य या मसीहा के उपदेश की देन न हो कर अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की देन क्यों व कैसे है ? हमारे समाज में नारी के उत्पीड़न का मुख्य कारण क्या है ? उपजातियों में विभाजन का क्या आधार रहा होगा ? धर्म का सार क्या है ? सम्प्रदाय क्या हैं ? धमशास्त्रों का एकमात्र लक्ष्य क्या है? भारत के ज्ञात इतिहास में एकीकरण की अवधि की अपेक्षा विघटन की अवधि अधिक क्यों दिखाई देती है ? इतिहास में वर्णित ‘स्वर्णयुग’ का क्या अभिप्राय है ? वास्तविक स्वर्णयुग कब आते हंै ? हमारे देश की ‘आर्थिक प्रगति’ की वास्तविकता क्या है ? हमारे देश में इतनी अव्यवस्था होने का मूल कारण क्या है ? वास्तविक ‘देशद्रोही’ कौन हंै ? नक्सल-समस्या का समाधान क्या है- आदि ज्वलंत प्रश्नों पर इस पुस्तक में जिस प्रकार विवेचना की गई है, उससे इनके चारों ओर छाया कुहासा बहुत हद तक छँटता है और चीजें अपने असली रूप में उद्भासित होने लगती हंै। हाँ, यह जरूरी नहीं कि लेखक के विवेचन और निष्कर्षों से पूरी तरह सहमत हुआ ही जाए। लेखक ने तो बस हमारे सोच-विचार की जड़ता को झकझोर कर हमें चिन्तन करने के लिए सजग करने का काम किया है।
उदाहरण के लिए, हमारे स्कूल-काॅलेजों में जिस तरह से ‘इतिहास की पढ़ाई’ करवाई जाती है ? उस पद्धति की समीक्षा करते हुए और इतिहास के वास्तविक स्वरूप को उदघाटित करते हुए कहा गया है कि ‘‘हम आज भी अपनी अगली पीढ़ियों को वह इतिहास पढ़ा रहे हंै, जिसका मानव की विकास-यात्रा से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जो हम पढ़ा रहे हैं, वह एक ऐसा कथानक है, जिस में एक-सी घटनाओं को अलग-अलग नामों से दुहराया गया है। सामन्त का नाम, उसके अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कितने युद्ध किए, कितने लोगों की हत्या की, कितना बड़ा रनिवास बनाया, कितने बड़े महल या मन्दिर बनाए और कितने चाटुकारों को मालामाल किया आदि-आदि। सम्राट अशोक को छोड़ दें तो दुनिया के हर देश के इतिहास में यही कहानी बार-बार दुहराई गई है। सच कहें तो यह इतिहास, इतिहास न हो कर बाहुबलियों, बुद्धिबलियों और धनबलियों के उन कारनामों की पुनरावृŸिा की ऐसी गाथा है जो भविष्य में भी बार-बार इनके रक्तरंजित कारनामों की पृष्ठभूमि तैयार करती है।
इस तथाकथित इतिहास में धरती को मानव के जीने योग्य बनाने वाले मानव का कोई उल्लेख नहीं है। इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि किस तरह उसने धरती को उर्वरा बनाया। जान को जोखिम में डाल कर खाद्य और अखाद्य वस्तुओं का परीक्षण किया। वनस्पतियों के गुणों की पहचान की, उन्हें निश्चित नाम दिए। ईश्वर की कल्पना की और अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप उसका रूपांकन किया। थकान से भरे एकान्त क्षणों में अपने निवास की गुफाओं में दृश्यमान जगत की अनुकृति की, पर मानव की इस विकास-यात्रा में उसकी अन्तहीन उपेक्षा की छाती पर मिस्र के फराउनों से लेकर मायावती तक सब मकबरे ही बनाते रहे हैं।’’
हमारे देश के मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक हालात की पड़ताल करते हुए ये निश्कर्ष प्रस्तुत किए गए हैं कि ‘‘वस्तुतः कांग्रेस के तंत्र और भाजपा के तंत्र में कोई अन्तर नहीं है। जमीन हड़प दोनों ही हैं। पैंसठ साल हो गए, न पुलिस बदली न प्रशासन। ठेके पर काम करवाना, न तब रूका है, न अब रूकेगा। निजी स्कूलों में, सरकारी और गैर सरकारी उद्यमों में गुलामों की तरह न्यूनतम वेतन पर काम करने और न्यायोचित माँग रखने पर निकाले जाने वाले युवकों के बारे में सोच न अब तक बदली है, न मोदी के आने पर बदलेगी। स्वाधीनता के बाद विकास तो जितना भी हुआ हो, विनाश की प्रक्रिया उससे भी तेज हो गई है।
हमारी संसद हुड़दगियों के जमावड़े में बदल गई है और इसका कारण है हमारी मूल्यहीन राजनीति। हमारी मूल्यहीन न्याय-व्यवस्था। मौका देख कर निर्णय लेने की आदत।क हर देश में क्रान्ति का अग्रदूत माना जाने वाला मध्यमवर्ग केवल अपने ही ‘गुणमुणाट’ में लगा है।
लोकधारा या जनवादी शक्तियाँ बिखराव पर हैं। देश गौण हो गया है। सŸाा और उसका पोषण करने वाली शक्तियाँ हावी होती जा रही हैं।
किसान मर रहा है, बड़े इजारेदार राजनीतिक दलों को चुनाव-व्यय के लिए दिए गए अपने चन्दे की वसूली कर रहे हंै।’’ ऐसी स्थिति में क्या किया जाना जरूरी है ? इसे लेखक ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, ‘‘इसलिए जो देश को बचाना चाहते हैं, उसकी ऐतिहासिक नियति को दूर रखना चाहते हंैयखास कर हम, तथाकथित बौद्धिक लोग, उन्हें अपने क्षुद्र स्वार्थो से जरा-सा ऊपर उठ कर विभिन्न वर्गो ? वर्णो ? सम्प्रदायों को इस जड़ सम्प्रदायवाद, बुद्धिजीवियों के सर्वग्रासी दुश्चक्र के प्रति सावधान करने के लिए आगे आना होगा।’’
एक तरह से यह पुस्तक लेखक के अब तक के 79 वर्षीय दीर्घ जीवन के अनुभवों और चिन्तन-मनन का सार, अत्यंत रोचक व सधे हुए अन्दाज में, प्रस्तुत करती है। इसमें नई उद्भावनाओं से युक्त अनेक ऐसे सारगर्भित सूत्र मौजूद हैं, जो पाठक को विचार करने के लिए आमंत्रित करते हैं। यह भी गौरतलब है कि आज जब बड़े-बड़े विद्वान सच को जानते-समझते हुए भी उसके सम्बन्ध में निर्भयतापूर्वक कुछ कहने से परहेज कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में लेखक का अत्यन्त बेबाकी के साथ सच्चाई को अनावृत किए जाने का बौद्धिक साहस काबिलेतारीफ है।
कुल मिलाकर, पुस्तक पठनीय और विचारणीय होने के साथ-साथ हमें अतीत व वर्तमान से जुड़े महŸवपूर्ण मसलों पर अपनी अवधारणाओं के बारे में थोड़ा ठहर कर सोचने तथा समस्याओं के समाधान के लिए कारगर हस्तक्षेप करने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
पुस्तक : इतिहास और सच
लेखक : ताराचन्द्र त्रिपाठी
प्रकाषक: समय साक्ष्य 15 फालतू लाइन, देहरादून-248001
संस्करण: प्रथम, 2019
मूल्य : 250 रुपए