देवेश जोशी
बसंत पंचमी से प्रारम्भ बसंत मैदानी क्षेत्र में होली के साथ विदा ले लेता है पर पहाड़ में ये बैसाखी तक अपने पूरे ठाठ में देखा जा सकता है। मैदानी बसंत के प्रतीक-पुष्प टेसू, ढाक, कचनार, सरसों पहाड़ में भी खूब होते हैं पर यहां बसंत-उपमान बन कर लोकगीतों में इठलाने के लिए ये सदैव तरसते ही रहे हैं। आखिर हो भी क्यों नहीं, फ्यूंली, बुरांस और साकिनी जैसे पुष्प जब अपने शबाब में जल्वा-अफ़रोज़ हों तो नज़र भला किसी और पर टिकेगी भी क्यूं कर। यहां के लोक ने कदाचित् इसीलिए एक पर्व ही फूलों के नाम कर दिया है।
चैत-संक्रांति को मनाए जाने वाले इस पर्व फुलदेई के आयोजन, व्यवस्थापन और प्रसादग्रहण का सर्वाधिकार लोक ने समझदारी से, फूल से प्यारे नन्हें बच्चों को ही दिया है। प्रात: ही देहरी-देहरी ताजे फूल बिखेर कर बच्चे यही संदेश देते हैं कि फूलों का सम्मान और संरक्षण करें तो ही सम्पन्नता मिलेगी। आगाह भी करना चाहते हैं कि फूलों से सजी इन वादियों को आग और हथियार से बचाना तुम बड़ों का काम है।
जिन्हें बचपन में इस खूबसूरत पर्व फुलदेई का हिस्सा बनने का अवसर मिला हो वो इन पंक्तियों को बेहतर समझ सकते हैं पर जिन्हें नहीं भी मिला वे भी लोकगीत, लोकगाथाओं में इस पर्व का संदेश और खूबसूरती महसूस कर सकते हैं। और हां, अगर आपके दरवाजे पर आज भी फूल बिखेरने बच्चे आएं तो उन्हें सिर्फ बच्चे न समझें, वे संस्कृति के मासूम संवाहक हैं और पर्यावरण के मौन सचेतक।
पहली फुलदेई बच्चों के लिए प्रकृत्ति का पहला साक्षात्कार भी होती है और पर्यावरण का पहला फील्ड सर्वे भी। ये नन्हीं आँखों से दुनिया को समझने का पहला प्रयास भी है और प्रकृत्ति का पहला सबक भी। इतने महत्व के लोकपर्व वाले समाज का हिस्सा होने पर मुझे गर्व है।
बालपर्व फुलदेई (फुलसंग्रांद और फुल-फुल माई भी) बचपन की सबसे मधुर यादों में से एक है। उसी मधुर स्मृति की डोर पर लिखे एक फुलारी गीत के दो पद –
बसंत मा हिटीक लोग भैर आणा
फुलारि डेळि-डेळि मा ने लगाणा
उठा देखा डेळ्यूं तक मौळ्यार ऐग्ये
पौलू जु उठलू ख्वोलू जु स्येग्ये
स्यैते-रवैते न सब कुछ हारी।
फूल-बसंत ढोलण ऐग्या फुलारी।।
डाळ्यूं मा जु बौड़िक लांद मौळ्यार
हरि-भरि राखी ये गौं कि सार
गात भी सुपिन्या भी सबका मौळ्ये दे
खैरी को ह्यूंद जीवन को खळ्ये दे
आस को त्योहार हम बसंत पुजारी।
फूल-बसंत ढोलण ऐग्या फुलारी।।