जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
अजरबैजान की राजधानी बाकू में लगभग डेढ़ महीने पहले सम्पन्न हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सी.ओ.पी. 29) में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए, जिसमें विकसित देशों ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में, सहायता के लिए 2035 तक विकासशील देशों को प्रति वर्ष कम से कम 300 बिलियन डॉलर उपलब्ध कराने पर सहमति व्यक्त की व पेरिस समझौते के तहत अंतर्राष्ट्रीय कार्बन बाज़ारों के लिए तकनीकी नियमों को अंतिम रूप दिया गया। लिंग एवं जलवायु परिवर्तन पर लीमा कार्य कार्यक्रम को अगले 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। वहीँ जलवायु कार्रवाई में इन समूहों की आवाज को बुलंद करने के लिए बाकू कार्ययोजना को अपनाया गया। प्रतिभागी देशों ने 2025 में, नए एनडीसी प्रस्तुत करने से पहले उत्सर्जन में कटौती के संबंध में अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाने पर चर्चा की तथा एनओएए विशेषज्ञों ने डेटा-आधारित निर्णय लेने और कार्यान्वयन योग्य विज्ञान के महत्व पर जोर दिया। शिखर सम्मेलन में प्रकृति-आधारित समाधानों को एकीकृत करने पर जोर दिया गया। यह सीओपी-29 जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) का 29वां सम्मेलन (सीओपी) था।
अब उपरोक्त जलवायु परिस्थितियों को उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में कुछ ज्वलंत उदाहरणों से पहाड़ के गांवों में जलवायु परिवर्तन और जलवायु अनुकूलन को समझने की कोशिश् करते हैं. उत्तरकाशी जनपद के हिमांचल प्रदेश से लगा एक विकासखंड है मोरी, जो टोंस, रुपिन व सुपिन नदियों का विशाल जलागम क्षेत्र है. पर्वत के नाम से प्रसिद्ध यह एक विकत भौगोलिक परिस्थितियों वाला ईलाका है. लगभग 1000 मीटर से लेकर 2400 मीटर की ऊँचाई पर दर्जनों गांव बसे है, जहाँ बर्फवारी भी होती है. यह वही ईलाका है जहाँ प्रसिद्ध गोविन्द पशु विहार राष्ट्रीय पार्क है, यहीं हर की दून, केदारकांठा, भरारसर ताल आदि पर्यटक स्थल भी हैं.
लगभग 2000 मीटर की ऊँचाई पर बसा एक गांव है कोट, जहाँ 195 परिवार रहते हैं. चारों ओर से यह गांव घने जंगलों के मध्य में स्थित है. जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन करते यहाँ के गांव की कहानी आँख खोलने वाली है. उत्तराखंड के ऊँचाई वाले इलाकों में उगने वाली आलू की एक प्रजाति है तुमड़ी आलू. इसका स्वाद आलू प्रजाति में सबसे स्वादिस्ट माना जाता है. लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर आलू की इस प्रजाति पर भी पड़ा और अब यह केवल बहुत ऊँचाई वाले इलाकों में ही उगाया जा रहा है. कोट गांव में कभी तुमड़ी आलू ही उगाया जाता था. जिसकी बहुत डिमांड थी. गांव के किसान भगवती उनियाल बताते है, कि वे अपने पिताजी के साथ तुमड़ी आलू बेचने के लिए सहारनपुर की मंडी तक जाते थे. पहाड़ी आलू के नाम से प्रचलित तुमड़ी आलू अच्छे दाम पर तुरंत बिक जाता था. तुमड़ी आलू के दाम आम आलू की अपेक्षा 20 प्रतिशत ज्यादा मिलते थे.
गांव के किसान जबर सिंह कहते हैं कि तुमड़ी आलू की बुवाई 15 मार्च के बाद की जाती थी व मई – जून के मध्य इसके लिए वर्षा होनी जरुरी होती थी. तापमान में वृद्धि व वर्षा चक्र में बदलाव व अनियमित बारिश के कारण तुमड़ी आलू मिटटी से ऊपर नहीं उठ पाता था व किसानों को नुकशान उठाना पड़ रहा था. एक साल, दो साल, तीन साल तक गांववालों ने कोशिश की लेकिन परिणाम सुखद नहीं रहे.
गांव के किसान ह्रदय उनियाल कहते हैं कि जब आलू की परंपरागत तुमड़ी आलू की प्रजाति नहीं उग पा रही थी, तो तब हमें पता चला कि हिमाचल प्रदेश की कुफरी प्रजाति का आलू हमारी जलवायु के अनुकूल हो सकता है, तो प्रयोग के तौर पर कुफरी आलू की बुवाई की गयी. परिणाम चकित करने वाले थे. उनियाल कहते है तब से लगभग 10 सालों से गांव में कुफरी आलू की खेती बृहद मात्रा में की जा रही है. इसका साईज भी बड़ा है. व मौसम के अनुकूल ढल जाता है. जिससे किसानों को नुकशान नहीं होता. और व्यापारी गांव में ही आकर आलू खरीद लेते हैं. किसानों को मंडियों के चक्कर नहीं काटने पड़ते.
तुमड़ी आलू की ही तरह कोट गांव व आसपास के गांवों में एक लाल प्रजाति का आलू भी उगाया जाता था मौसमीय बदलाव ने लाल आलू की प्रजाति को भी लगभग समाप्त कर दिया है. क्लाइमेट अडेपटेसन के तौर पर आज कोट गांव में कुफरी प्रजाति का आलू सफलता पूर्वक उगाया जा रहा है. आज कोट गांव के लगभग सभी परिवार (195 परिवार 2011 की जनगणना) कुफरी आलू की खेती कर रहे है. एक अनुमान के अनुसार प्रति परिवार हर साल 15 कुंतल आलू बेचता है. इस हिसाब से गांव में लगभग 3000 कुंतल आलू की हर साल पैदावार हो रही है. गांव में आलू 20 रुपये में बिकता है. इस हिसाब से हर साल कोट गांव के किसान 60 लाख रुपये का आलू बेचते हैं.
जलवायु परिवर्तन के जहाँ दुष्प्रभाव देखे गए, वहां कभी – कभी यह वरदान भी बन जाता है. ऐसी ही एक कहानी है भंगजीरा की जिसे अंग्रेजी में बीफस्टीक प्लांट भी कहा जाता है. इसका वैज्ञानिक नाम पिरिला फ्रूटसेंस है. यह एक जंगली पौधा था जिसके बीज बहुत स्वादिस्ट होते है. इन्हीं बीजों से चटनी, मसाले में उपयोग, दाल – सब्जी में तड़के व इसके बीजों से खाद्य तेल भी निकाला जाता है. लगभग तीन दसक पहले तक उत्तराखंड के गांवों में इसे विनाशकारी खरपतवार के रूप में माना जाता था. क्यूंकि यह खेतों में फैलकर आनाजों वाली फसलों का स्थान ले लेता था. एक बार जिस खेत में यह जम जाता था तो फिर इससे निबटना मुश्किल हो जाता था. इसके बीज स्वत: झड़ते व समय आने पर फिर उग जाते थे. पहाड़ के गांवों में इस जंगली बीज का उपयोग घरेलू उपभोग तक ही सीमित था.
कोट गांव के किसान जबर सिंह कहते हैं कि भंगजीरा मूलतः गरम स्थानों पर ही उगता था. कोट गांव जो कि समुद्र तल से 2000 मीटर की ऊँचाई पर इसके कुछ ही पौधे जंगलों में पाए जाते थे, ठंड की वजह से पैदावार भी बहुत कम थी. जबर सिंह कहते है कि पिछले एक दसक से गांव के तापमान में तेजी से वृद्धि होने लगी, तो भंगजीरा की जंगली पैदावार में भी बढ़ोतरी देखी गई. लेकिन हम गांव वालों ने इसको ज्यादा महत्व नहीं दिया.
पांच साल पहले एक बार जबर सिंह जब मोरी विकासखंड मुख्यालय के निकटवर्ती गांव में गए हुए थे तो वहां हिमाचल के कुछ व्यापारी गांव के लोगों से लाल चांवल, राजमा खरीद रहे थे, व्यापारी गांववालों से भंगजीरा खरीदने की बात करने लगे, तो पुरे गांव में दो – चार किलो ही भंगजीरा मिल पाया. उस वक़्त व्यापारी ने ढाई सौ रुपये प्रति किलो के हिसाब से भंगजीरा खरीदा, जो लाल चांवल से चार गुना व राजमा से तीन गुना मंहंगा था. यही वह क्षण था जिसने जबर सिंह व अन्य किसानों की आंखे खोल दी.
तभी से जबर सिंह सहित गांव के चुनिन्दा किसानों जयेंद्र सिंह, खजान सिंह, विनोद, मणि प्रसाद, भगवती आदि ने तीन महीने में तैयार होने वाली भंगजीरा की खेती करनी शुरू की. प्रारंभ में अनुपयोगी, उबड़ खाबड़ भूमि व खेतों के किनारों पर कुदाल फावड़े से मिटटी खोदकर उसमें भंगजीरा के बीजों को छिड़क दिया जाता था, जिसमें बिना खाद बिना पानी व कोई अतिरिक्त मेहनत के भंग्जीरा की फसल मध्य जून से मध्य सितम्बर के बीच तैयार हो जाती थी. फसल पकने पर काटकर इसको एकत्रित कर बीज निकाल दिए जाते थे.
धीरे – धीरे पिछले पांच सालों में भंगजीरा की बाजार में मांग लगातार बढ़ने से लोगों ने अब इसकी बाकायदा खेती करनी शुरू कर दी. जबर सिंह बताते हैं की भंगजीरा की खेती खरा सोना है, बिना किसी खाद – पानी व कठोर मेहनत व तीन महीने की यह फसल गांव के लिए वरदान साबित हो रही है. इस साल अकेले जबर सिंह ने लगभग 24 हजार रुपये का भंगजीरा 300 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से घर पर ही बेचा.
मोरी विकासखंड के रुपिन – सुपिन घाटी के पर्वत, सिग्तूर व बड़ासी पट्टी के 15 गांवों में भंगजीरा की खेती की जा रही है. इन गांवों के लगभग 900 परिवार भंगजीरा की खेती से जुड़े हुए है. एक अनुमान के अनुसार प्रति परिवार एक साल में लगभग 40 किलो भंगजीरा का उत्पादन कर उसको बेचता है. इन गांवों में 36 हजार किलो भंगजीरा का उत्पादन हो रहा है, जिसे व्यापारी 300 रुपये प्रति किलो के हिसाब से गांव में ही खरीद लेता है. हर साल इन गांवो से 10 लाख 80 हजार रुपये का भंगजीरा खरीदा जा रहा है.