बी.आर. पंत
मनुष्य या किसी भी जीव जन्तु प्राणी के लिए आग और पानी का महत्वपूर्ण स्थान है। सुनियोजित विकास के लिये जितनी ही इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, उतनी ही खतरनाक है इनकी अवहेलना करना उतराखण्ड के पहाड़ों में इनकी भूमिका कुछ अधिक ही बढ़ जाती है । क्योंकि यहां से सभी बड़ी नदियो का उदगम होता है जो भारत के सबसे समृद्धि उपजाऊ मैदान को प्रतिवर्ष उर्वरक मिट्टी प्रदान करने के साथ ही साथ खेती के लिए जल उपलब्ध कराकर सींचती भी है। जब धरातल के स्वरूप की बात करें तो 80 प्रतिशत से अधिक पर्वतीय है। जहां बिखरे से लेकर सघन वन या वनस्पतियों ने भूमि को आधार प्रदान किया है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में बर्फीले चोटियों के अतिरिक्त हिमानियां फैली हैं। संरचनात्मक दृष्टि से देखें तो उत्तराखण्ड ही नहीं समग्र हिमालयी भूभाग बहुत ही कमजोर एवं संवेदनशील है क्योंकि इसकी उत्पति ही विश्व के अन्य पर्वतो से नवीनतम है और अभी भी ऊपर उठने के लिए सक्रिय बनी हुई है, जब धरती गतिशील होती है तो संरचनात्मक परिवर्तन बार-बार देखे जा सकते हैं, उत्तराखण्ड का सुदूर उत्तरी हिस्सा मुख्य केन्द्रीय भ्रंश से भारत तिब्वत जल विभाजक सीमा तक कई उच्च पर्वत चोटियाँ हैं। इन्हीं में हजारों हिमानियों एवं हिमानी झीलें हैं। इन्हीं हिमानियों से यमुना, टौस, भागीरथी, भिलंगना, मंदाकिनी, अलकनन्दा, पश्चिमी धौली, पिण्डर, गौरी, पूर्वी धौली, कुटी एवं काली नदियाँ जल एवं मिट्टी को साथ लेकर उत्तराखण्ड उत्तरप्रदेश से होते हुए भारत के विभिन्न प्रदेशों में जीवन के लिये अपनी भूमिका का वहन करती बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले डेल्टा एवं सुन्दर वन जैसी संम्पत्ति एवं सुविधाजनक स्थल उपलब्ध कराती समुद्र में विलीन हो जाती हैं।
एक तरफ यह मनुष्य के जीवन में भरण पोषण में योगदान देती है तो दूसरी तरफ मनुष्य के द्वारा किये जा रहे अवैधानिक एवं अनियोजित विकास से अपना रौद्र रूप प्रकट कर सैकड़ों मनुष्यों, हजारों टन अनाज पैदा करने वाले खेतों, मवेशियों, मार्ग में बने अधिक भवनों, गाँवों तथा शहरों के हिस्सों को लील जाती है। यह बात भी सही है कि प्राकृतिक हलचल से भी इस प्रकार की आपदायें आती हैं, लेकिन मनुष्य की अदूर्दर्शी एवं त्वरित लाभ की योजनाओं ने इनकी आवृति में इजाफा किया है।
इसी जल से अनेकों परियोजनाओं के माध्यम से विद्युत उत्पन्न की जाती है तो इन्ही से खेती के बहुत सी भूमि में सिंचाई भी की जाती है, मनुष्य एवं जीवन के लिये भी अनिवार्य रूप से उपलब्ध रहती है। जलजनित बाढ़ की घटनाओं को देखें तो 1940 के आस पास कोसी नदी में बाढ़ आई जिससे खेती की भूमि को बहुत अधिक नुकसान हुआ था। 1951 में नयार में बाढ़ आई जिससे सतपुली में लगभग 20 से अधिक ड्राइवर 30 कन्डक्टर बह गये और कई अन्य लोगों की जान चली गई, 1970 में अलकनन्दा में, 1978 में भागीरथी में, 1978 में तवाघाट, 1981 में कर्मी एवं 1998 में मालपा भूस्खलन भी नदी के रास्ते बदलने से आये थे, 2013 की केदारनाथ आपदा, 2021 में ऋषिगंगा में बाढ़ तो वानगी भर हैं वैसे तो अनिश्चित वर्षा में हर छोटी बड़ी नदियों में बाढ़ें आती रहती हैं। लेकिन इधर जल के स्रोतों पर विकास ने छेड़ छाड़ बढ़ा दी है जिससे आवृतियों में बढ़ोत्तरी के साथ नदी किनारे बने निर्माण से अधिक जन-धन का नुकसान भी हुआ है। जल से चाहे प्रलय हो या कमी से उत्पन्न समस्याएं हों मनुष्य नियोजित ढ़ंग से प्रयोग करे तो जीवन ज्यादा कठिन नही होगा। यदि जलवायु में परिवर्तन भी हो रहे होंगे तो उसकी तीव्रता में कमी जरूर रहेगी,लेकिन तथाकथित विकास के लिये हम भविष्य को अंधेरे में डाल रहे हैं।
जल की तरह आग भी हिमालय में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का अहसास कराती रही है। आग की घटनायें प्रति वर्ष बढ़ती जा रही है, जिन नमी युक्त स्थानों में घनी वनस्पतियों उगी होती थी, वहां भी आग से प्रभावित हो रही हैं। उत्तराखण्ड का मध्य हिमालयी भाग जहां पूर्व में सर्वार्धिक आबादी और उसके जीवन के लिये आवश्यक भूमि, खेती, जंगल,पानी, आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध होती थी आग से सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है, जहां चौड़ी पत्ती की वनस्पतियों के स्थान पर नुकीली लीसा युक्त चीड़ ने अपना कब्जा कर दिया है। पहाड़ों में पानी के स्रोतों के निरन्तर सूखते जाने से नमी में निरन्तर गिरावट आ रही है। यहाँ के निवासियों को सूखी लकड़ी, चारा-पत्ती के अधिकारों से वंचित रखा है जिससे आग की घटनाएं बढ़ रही हैं और स्थानीयों को उनके अधिकारों से बेदखल करने के कारण उनका लगाव बचाने के बजाय अनदेखा करने का हो गया है, प्रतिवर्ष जंगलों में कार्य करने वाले व्यक्तियों की जानें जा रही हैं। उत्तराखण्ड ने उच्च हिमालयी भाग भी आग से अछूते नही हैं। आग के कारण मिट्टी भी हल्की हो जाती है। चट्टानों में भी कुछ दरारें फैल जाती हैं जीवाष्म-नमी तो नष्ट होती ही है, लेकिन जब वर्षा इन क्षेत्रों में होती है तो बड़ी मात्रा में मिट्टी के साथ अन्य पत्थरों को भी लेकर बहती है। मार्गों में आदमी ने फिर निर्माण कार्य कर नदी के रास्तों को पहले तो बन्द ही कर दिया है नहीं तो संकुचित कर दिया है जिससे पानी के बहाव में बाधा उत्पन्न होने से कृत्रिम बाँध का स्वरूप लेती है और वह जब बाँध टूटता है तो मार्ग को बदलकर बस्तीयों, खेतों, खलियानों को नष्ट कर आगे एक त्रासदी का रूप ले लेती है। आग और पानी के कुप्रबन्धन से क्षेत्र पूरी तरह प्रभावित हो जाता है.
पानी और आग की भूमिका को आपदा से बदलकर जीवन सवाँरने हेतु जन सहयोग के साथ मिलकर प्रबन्धन करना होगा, इसके लिए स्थानीय स्तर पर उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार ही योजनाएं प्रस्तावित होनी चाहिए। आधुनिक युग में सेटेलाइट से प्राप्त चित्रों के अध्ययन से बहुत अगम्य क्षेत्रों की स्थिति का भी अनुमान लगाया जा सकता है, इससे हिमानी क्षेत्रों में बनने वाले भूस्खलन, जलाशयों, झीलों, हिमस्खलनों की जानकारी जुटाई जा सकती है। संरचनात्मक अध्ययन भी करने होते हैं। नदियों के प्रवाह मार्गों के बदलावों की भी जानकारी जुटाई जा सकती है, सभी जानकारियों के बाद एक इमानदार कार्ययोजना बनाई जानी चाहिए, अध्ययन दल या नियोजन कर्ता को बिना दबाबों के अपनी योजनाओं को लोगों के बीच साझा कर स्थानीयता को बरकरार रखकर कार्य करना होगा।
यहां दुर्भाग्य है कि वैज्ञानिक हों चाहे नियोजनकर्ता हां अपने -अपने खेमों में बटकर कार्य करते हैं, जो सामान्य आदमी की समझ से परे है कि कुछ वैज्ञानिक किसी योजना के पैरोकार बन जाते हैं तो कुछ उसके विरोधी, इसका महत्वपूर्ण कारण दूरदर्शिता की कमी लगता है। हिमालय को यदि बचाना है तो सभी को एक साथ होना होगा,वृहत हित में निणर्य होने चाहिए, तभी हिमालय और हिमालय वासी को बचाया जा सकेगा।