विवेकानंद माथने
देश में न्यायालयों के खिलाफ आक्रोश बढता जा रहा है और लोग यह मानने लगे है कि न्यायालयों में न्याय के लिये नही बल्कि सरकार के निर्देशों पर फैसले किये जाते है। उच्चतम न्यायालय में भी जिस तरह से राज्यसत्ता के पक्ष मेंफैसले दिये जा रहे है, उससे लोगों की धारणा सही साबित होरही है।अब लोगों का न्याय व्यवस्था पर विश्वास नही रहा।न्यायाधीश और वकील भी न्यायालयों के भ्रष्ट चरित्र को जाहिर रुपमें उजागर कर रहे है और कह रहे हैकिन्यायालयों से न्याय की उम्मीद नही की जा सकती।
हमे सिखाया गया है कि न्याय व्यवस्था न्याय के लिये बनी है। लेकिन यह सत्य नही है। न्याय व्यवस्था न्याय के लिये नही, बल्कि अन्यायी राज्यसत्ता को न्यायी साबित करने के लिये बनी है। राज्यसत्ता द्वारा न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग कभी खुले तौर पर या कभीछुपे रास्तेसे किया जाता है। राजसत्ता के पास जितनी शक्ति होती है, उतना अपने पक्ष में न्याय व्यवस्था का इस्तेमाल किया जाता है। हां, न्यायव्यवस्था तटस्थता दिखाने और विश्वासनीयता बनाये रखने के लिये कभी कभी न्याय करने का नाटक करती दिखती है।
सच तो यह है कि न्यायालयों में न्याय होता ही नही, निर्णय होते है और आंखों पर पट्टी बांधकर खडी न्यायदेवता यह निर्णय वकीलों के तर्क और पेश सबूतों के आधारपरकरती है। और तर्क बाजार में खरीदा जाता है। जो जितनी बडी बोली बोल सकता है, उतनी तर्क करनेवाले वकीलों की फौज अपने पक्ष मेंखडी कर सकता है। सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने के लिये तथ्यों को तोड मरोडकर पेश करने का काम जो जितना कुशलतापूर्वक कर सकता है, वह उतना बडा वकील माना जाता है। उतनी उसकी कीमत होती है। इसलिये हम कह सकते है कि न्यायालयों में न्याय धन-बल सेखरीदा जाता है।न्याय बिकता है।
अगर राज्यसत्ता के अनुकूल निर्णय की संभावना ना हो तो भय या लालच के आधारपर सत्तापक्ष अपने अनुकूल निर्णय प्राप्त कर लेती है। कभी जजों कोब्लैकमेल करके या कभीपद का लालच देकर निर्णय लगाये जाते है।वैसे भी भ्रष्ट और लालची न्यायाधीशों से न्याय संभव नही है।हम देखते है कि विशिष्ट लोगों के लिये रात में अदालतें खुलती है और फैसला हो जाता है और दूसरी तरफ छोटे छोटे अपराधों के लिये करोडों लोग सालों से जेल में पडे है लेकिनउनकी कोई सुनवाई नही है। जेल की उंची उंची दीवारों के पीछे घरेलू झगडे या गरीबी के कारण घटित छोटे छोटे अपराधों के लिये आरोपीबंद है। मुख्य अपराधियों को राज्यसत्ता बचालेती है।
गुलामी का इतिहास हम जानते है। मूलत: गुलामी की व्यवस्था एक अन्याय है, पाप है। लेकिन राज्यसत्ता ने घोषित किया कि गुलामी की व्यवस्था एक ईश्वरीय व्यवस्था है और मालिकों की सेवा करने के लिये ही गुलाम जन्म लेते है। तब न्याय व्यवस्था राज्यसत्ता और मालिकों के साथ खडी थी। और सजा का भय दिखाकर गुलामों से गुलामी के अनुबंध का पालन करवाने का काम कर रही थी। अन्यायी राज्यसत्ता को मजबूत बना रही थी।
अंग्रेजी राज्यसत्ता ने कानून को हथियार बनाकर ही हिंदुस्थान को अपना उपनिवेश बनाया और देड सौ साल गुलामी में रखकर शोषण किया। इंग्लैड की न्याय व्यवस्था ने इस गुलामी को न्याय्य साबित कर उसे मान्यता दी। वह हिंदुस्थान के मुक्ति आंदोलन को देशद्रोह करार देकर कुचलती रही। गुलामी के विरुद्ध आंदोलनकारीवीर पुरुषों को मौत की सजाऐं देती रही।और इंग्लैंड का साम्राज्य बढाने में मदद करती रही।
आज भी यही हो रहा है। आजाद कहे जानेवाले भारत में न्याय व्यवस्था आजाद नही है। न्याय व्यवस्था खुले तौर पर राज्यसत्ता के पक्ष में फैसले दे रही है। राज्यसत्ता की अन्यायकारी नीतियों के कारण कारपोरेट्स को लूट की खुली छूट मिली है। कारपोरेट्स दुनिया का सबसे अमीर बनने की स्पर्धा कर रहे है। दूसरी तरफ आधे से अधिक आबादी जिंदा रहने कासंघर्ष करने के लिये मजबूर है। अपना अंधकारमय भविष्य देखकर हर साल लाखों लोगों को आत्महत्या करनी पडती है। लेकिन न्यायव्यवस्था इस अन्याय के विरुद्ध कारवाई के लिये तैयार नही है। वह इस अमानवीय व्यवस्था को जिंदा रखने में राज्यसत्ता की मदद कर रही है।
प्रकृति ने हर मनुष्य को विशिष्ट क्षमताऐं दी है। उन क्षमताओं का प्रामाणिक उपयोग करने वाले हर व्यक्ति को उसकी जीविका के लिये पर्याप्त श्रममूल्य मिलना ही न्याय है। लेकिन न्याय व्यवस्था राज्यसत्ता द्वारा बौद्धिक और शारीरिक श्रम में भेदभाव करनेवाले कानून पर मौन है। उन्हे सरकारी और कंपनियों के कर्मचारियों के साथ खुद के वेतन की चिंता है लेकिन आत्महत्या के लिये मजबूर किसान, मजदूर, कामगार आदि श्रमिकों को उनका जीवित स्वतंत्रता का हक देने के लिये अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाए वह इन शोषणकारी कानून को स्वीकार कर फैसलें सुनाती है।
जमीन प्रकृति की देन है। उसपर समाज का अधिकार है। लेकिन राज्यसत्ता ने कानून बनाकर जमीन पर व्यक्तिको मालिकाना हक दिया और उसपर लगान लगा दिया। और न्याय व्यवस्था समाज के अधिकार की रक्षा करने के बजाय जमींदारों द्वारा लगान वसूलने के पक्ष में निर्णय करती रही। सवाल जब जमीन की मालिकी पर है तब टैक्स वसूलने के लियेफैसला सुनाकर वहअन्यायपूर्ण जमींदारी कानून को सही साबित कर रही थी। औरआज जब राज्यसत्ता किसानों की मालिकी छीनकर खेती को कंपनियों के हवाले कर रही है तब न्याय व्यवस्था विरोध करने वाले किसानों को अपराधी घोषित करने में जुटी है।
जैसी जमीन की बात है, वैसे ही जल, जंगल और खनिज की बात है। राज्यसत्ता ने जिन कंपनियों को प्राकृतिक संपदा भेट की है, उस पर उनका क्या अधिकार है? उस की कितनी लूट हो रही है? इस पर न्याय व्यवस्था मौन है। वह बिजली की दरों में छूट को रेवडियां कह कर उपभोक्ता से बिजली की कीमत वसूलने और कंपनियों को नियमित रुप से मिलते रहने पर फैसला करती है। किसी ने घरका चूल्हा जलाने के लिये प्रकृति से लकडी, कोयला लिया तो उसे चोर साबित कर अपराधी बनाने का काम करती है। लेकिन कंपनियों की अमर्याद लूट के खिलाफ न्याय व्यवस्था मौन है।
संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और संविधान की रक्षा करना न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी है। लेकिन कट्टरपंथियों को राजाश्रय मिला होने के कारण न्याय व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी ठीक से नही निभा रही है। कट्टरपंथी हर दिन जहरीले बयान देते है। कारपोरेट प्रसार माध्यम इन मुद्दों पर रोज बहस कराते है और न्याय व्यवस्था पक्षपाती फैसले सुनाती है। जिससे सांप्रदायिक विद्वेश बढ रहा है। धर्मों के बीच तनाव पैदा हो रहा है। हिंसा हो रही है। धार्मिक संघर्ष बढने से देश की अखंडता और एकता को खतरा पैदा हो रहा है।
न्याय देवता आंखों से पट्टी हटाकर यह नही देखना चाहती कि वास्तविक जल, जंगल, जमीन, खनिज क्या है? श्रम क्या है? आर्थिक विषमता क्यों है? गरीबी क्यों है? धार्मिक तनाव क्यों पैदा हो रहा है? बल्कि वह इस अन्यायी व्यवस्था का पोषण करने का काम करती है। और यही कारण है कि समाज में आज भी अन्याय है।
न्याय व्यवस्था अगर न्याय के लिये बनी होती तो समाज में न्याय दिखाई देता। लेकिन वह शोषितों को न्याय की आस दिखाकर उसे अन्याय के चक्की में पिसने के लिये बाध्य करती है। लोगों के जीने के अधिकार छीनकर उन्हें गरीबी में जीने के लिये मजबूर करती है। वह अपने फैसलों से समाज को नही राज्यसत्ता को मजबूती प्रदान करती है। मानवजाती का इतिहास इसी बात का गवाह बना हुआ है।
राजतंत्र में न्याय व्यवस्था राजा के अधीन होती है।इसलिये राजतंत्र में तो समझा सकता है कि राजा अपने मर्जी के अनुसार न्याय करेंगा। लेकिन लोकतंत्र में भी इसमें कोई बदलाव नही आया। लोकतंत्र मेंभले ही संविधान और उसके अनुपालन के लिये कानून बने है, लेकिन न्याय व्यवस्था राज्यसत्ता के अधीन ही काम करती है। वह राजसत्ता के विरुद्ध फैसलें नही कर सकती। राज्यसत्ता पर आश्रित न्याय व्यवस्था में न्याय संभव नही है।
न्याय पर आधारित समाज व्यवस्था चाहनेवालों के लिये यह गंभीर चिंता का विषय है। उसे सही करने की जिम्मेदारी न्याय की आस लगाये बैठे समाज कीहै। हमे समझना होगा कि घटना से अनभिज्ञ व्यक्ति केवल कानून की किताब हाथ में लेकर वकीलों के तर्क के आधारपर न्याय नही कर सकता। न्याय व्यवस्था जिसे‘न्याय’ कहती है,वह ‘न्याय’ से बहुत दूर है। मनुष्य के लिये न्याय आधारित व्यवस्था की तलाश, सच्चे न्याय की तलाश आज भी जारी है।