प्रकाश चन्द
कक्षा 10
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल (उत्त्तराखंड)
पहाड़ों में रास्ते खोजना बहुत सरल है, दूर से ही अनेकों सड़कें चोटियों पर नज़र आ जाती है, लेकिन रास्ते बनाना उतना ही मुश्किल। इन रास्तों पर चलने वालों की दिनचर्या भी उतनी ही मुश्किल है, जो इन पहाड़ों के निवासी हैं। आज यह रास्ते सूने से हो गए हैं, इन सड़कों पर चलने वाले कदमों ने अपने रास्ते बदल दिए। लेकिन इस सूनेपन को शोर से भरने के लिए अभी विद्यादत्त शर्मा जी की चाह सजीव है।
इस चाह का प्रदर्शन निर्मल चंद्र डंडरियाल के निर्देशन में बनी ‘मोती बाग’ डॉक्यूमेंट्री फिल्म पर होता है। ‘मोती बाग’ अनेकों पुरुष्कार भी जीत चुकी है और साथ में ऑस्कर के लिए भी नॉमिनेट हुई है। यह 83 वर्षीय विद्यादत्त शर्मा और उनके सहयोगी राम सिंह की कहानी है, जो अपने खेत को जीवित रखने की कोशिश में पूरी तरह अस्त हैं, न सिर्फ बंदरों को खेतों से भागकर बल्कि गाँव को ज़िंदा रखने की चाह को भी ज़िंदा रखकर।
मोती बाग विद्यादत्त शर्मा जी द्वारा तैयार किया गया बाग है, जो उत्तराखंड के पौड़ी जिले के साँगुड़ा गांव पर स्थित है। पौड़ी उत्तराखंड के सबसे ज्यादा प्रवासन दर वाले जिलों में से एक है और इस पलायन का समाधान भी पौड़ी पर ही है। विद्यादत्त जी कहते हैं, “खेती, बागवानी और वानिकी है समाधान।” विद्यादत्त शर्मा ने 24 किलो वजन के साथ भारत की सबसे भारी मूली उगा चुके हैं, जो दुनिया की दूसरी सबसे भारी मूली है। इस के साथ वह प्रोग्रेसिव फार्मर का खिताब भी जीत चुके हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के राजस्व विभाग में सर्वेक्षण विशेषज्ञ के रूप में काम कर नौकरी से इस्तीफा देने के बाद खेती शुरू की। उस वक़्त उनकी उम्र 28 वर्ष थी।
जिस तरह बाज को ऊंचाइयों पर शिकार करने से डर नहीं लगता, उसी तरह विद्यादत्त जी भी पहाड़ों की ऊंचाइयों पर खेती कर रहे हैं। लेकिन वह बाज की तरह निडर नहीं है क्योंकि उन्हें डर है कि पलायन उत्तराखण्ड की परंपरा न बन जाए। लोग गाँव छोड़कर जाने लगे हैं और निर्जन के कारण चारो-तरफ शांति होने लगी है। यह शान्ति प्रकृति का शोर है जिसको सुनने की आदत विद्यादत्त जी को लग चुकी है। यही शान्ति पहाड़ों के गाँवों को ‘भूतिया गाँव’ में तब्दील कर रही है। विद्यादत्त जी का समस्याओं को गीतों के रूप में लिखने का शौक इस फिल्म की एक आकर्षिक निशानी है।
वह लिखते हैं,
“गरीबी मिट जाएगी जिस दिन, इस देश का यारों क्या होगा?
महल, अटारी चमके-दमके, पर झोपड़ियों का क्या होगा?”
इन पंक्तियों ने वह बात कही है, जिसमे गाँव की सुंदरता और शहर की सुंदरता दोनों के बीच का अंतर मन में ही प्रकट होता है और पढ़ने वाला गाँव के सौंदर्य पर समर्पित हो जाता है। इन शब्दों में दर्द भी है जिसे इन पंक्तियों में पहचानना सरल है और वह दर्द सिर्फ कवि का नहीं हैं बल्कि उस गाँव के लोगों का भी है जहाँ वह झोपडी स्थित है। विकास के अनछुए पहलुओं को भी आसानी से इन पंक्तियों में खोजा जा सकता है, जिसमे विकास की लत मानव को उसके आध्यात्मिक सम्बन्ध से दूर कर रही है, चाहे वह सम्बन्ध खेती से हो या झोपड़ियों से।
पहाड़ों के समाज को बाँधने की जिम्मेदारी जिस रस्सी की थी, वह पुरानी होने के कारण अब डगमगा चुकी है। अब उस रस्सी के बीच जो लोग रह गए वो सिर्फ बूढ़े लोगो में से है। आज यही बूढ़े व्यक्ति पहाड़ों के अस्तित्व को जिंदा रखे हुए हैं। विद्यादत्त जी का इस रस्सी से आध्यात्मिक सम्बन्ध है, जो इस फिल्म पर साफ-साफ झलकता है। बंजर जमीन, जंगलो में आग, पानी की कमी, आंधी-तूफ़ान, भूकंप, आदि जैसी बाधा का सामना 5000 फीट की ऊंचाइयों में करना पलायन करने में मजबूर कर देता है।
फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है पहाड़ों की चोट का घाव गहरा होते जाता है। विद्यादत्त के अलावा राम सिंह जी भी इस फिल्म में अपनी कहानी बयां करते हैं। राम सिंह को नेपाल से गरीबी के कारण आए थे, वह 18 साल से विद्यादत्त जी के बाग पर खेती के माध्यम से जुड़े हैं। सीजन अच्छा होने पर राम सिंह का परिवार 2-3 लाख रुपय आसानी से कमा लेता है। वह कहते हैं, “मोती बाग में हम ही जो सब्जियाँ उगाते हैं और कोई खेती करने वाला नहीं है, यहाँ तो ज्यादातर बहुत बड़े इलाके में नेपाली लोग ही खेती कर रहे हैं।” मुख्य किरदार को मद्देनजर रखते हुए किसी अन्य किरदार के सहारे सामान्य जनता की स्थिति को सामने रखकर फिल्म निर्देशक ने ऐसी स्थिति प्रकट की है जो विषय को विस्तार रूप से पसार देती है और बात बड़ी सिद्धिता से समझ आ जाती है।
अब वह घाव इतना गहरा हो गया है कि कुछ आंकड़ों के सहारे उसके दर्द को नापा जा सकता है। फिल्म पर गाँव के लोगों के बीच संवाद उन आंकड़ो ब्याख्यान करता है। 2013-2014 तक के आंकड़े कहते थे कि लगभग 3500 गाँव भूतिया हो गए हैं, लेकिन आज इसकी संख्या 7000 गाँवों से भी अधिक है। गाँवों में विकास होना बहुत मुश्किल है, विकास की मात्रा सबसे अधिक देहरादूर, उधम सिंह नगर और नैनीताल पर ही दिखती है। एक साल के अंदर पौड़ी पर लगभग 220 सरकारी स्कूल बन्द हो गए जबकि पूरे पर्वतीय छेत्र में लगभग 2724 स्कूल बंद हो चुके हैं। पहाड़ों पर गाँवों की संख्या तो उतनी ही है लेकिन जन की संख्या का ग्राफ तेजी से उतर रहा है।
विद्यादत्त जी मानते हैं कि औरतों को पहाड़ की रीढ़ माना जाता हैं लेकिन वर्तमान पीढ़ी पहाड़ों में रहकर काम करने से मुक़रना चाहती है। “आपके बाद मोती बाग का क्या होगा?”- कैमरे की पीछे से आवाज आती है। शर्मा जी कहते हैं, “ये बात आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं, उनसे पूछिये जिन्होंने इसे संभालना है। मैं तो अपने हिस्से का शारीरिक श्रम कर चुका हूँ ना।”
“तेरे राम बसे हैं मंदिर में,
और मेरे राम खेत खलियानों में।”
ये चंद पंक्तियां विद्यादत्त शर्मा द्वारा स्वरचित हैं। साथ-साथ यह उनके अनेकों प्रश्नों का जवाब भी है जैसे “खेती पर इतनी सफलता के क्या-क्या कारण है?” या “आप इतने प्रतिशील किसान कैसे हैं?” खेती-बाड़ी को प्रेमी मानते विद्यादत्त जी आज खेती के मंच पर बहुत आगे पहुँच चुके हैं लेकिन बंजर जमीन को व्यस्त करना, सन्नाटे की सड़क पर शोर के घड्डे भरना जैसी अनेकों मांग की भूख उनके अंदर जीवित है।
फिल्म निर्देशक निर्मल जी ने पहाड़ों की हंसी को तो दिखाया,
लेकिन हंसी का आकार न दिखा सके।
उन्होंने वादियों को तो दिखाया,
लेकिन उसके असर को न दिखा सके।
कच्ची सड़कों को तो दिखाया
लेकिन पक्की न दिखा सके।
खाली झोपड़ियों को तो दिखाया,
लेकिन भरी न दिखा सके
क्योंकि वह लोगों को न दिखा सके।
One Comment
Vikash bhatt
Waah behtreen likha hai. 👌💐💐