प्रकाश जोशी
संस्कृति तथा साहित्य के संवर्द्धन एवं उन्नयन की जिम्मेदारी सरकार की है। यदि सरकार में संवेदनशीलता हो तो ऐसा काम होता भी है। उत्तराखंड में एक साहित्य, संस्कृति व कला परिषद् बनाई गई। बाद में उत्तराखंड भाषा संस्थान का गठन किया गया तो फिर वोट बैंक को बढ़ाने के लिए हिंदी अकादमी के साथ ही पंजाबी तथा उर्दू अकादमी जैसी संस्थाएं भी अस्तित्व में आये। राज्य बनने से पहले से ही यहाँ कुमाउनी तथा गढ़वाली भाषा अकादमी बनाने की मांग होती रही थी, मगर उस ओर सरकार ने ध्यान नहीं दिया।
जो काम राज्य की सरकार को करने चाहिए थे, वे उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मी तथा साहित्यकार अपने स्तर पर कर रहे हैं। आंचलिक भाषाओं के उन्नयन के साथ ही उत्तराखंड में बाल साहित्य पर भी स्वैच्छिक तौर पर महत्वपूर्ण प्रयास हो रहे हैं।
8, 9 तथा 10 जून, 2019 को बच्चों की पत्रिका ‘बाल प्रहरी’ तथा ‘बाल साहित्य संस्थान, अल्मोड़ा’ द्वारा वन निवास, श्री अरविंदो आश्रम नैनीताल में श्री अरविंदो आश्रम के सहयोग से आयोजित राष्ट्रीय बाल साहित्य संगोष्ठी एक ऐसा ही प्रयास है। जन सहयोग से आयोजित इस संगोष्ठी में भारत के 11 राज्यों के 103 साहित्यकारों ने समसामयिक विषय ‘मोबाइल, बच्चे और बाल साहित्य’ विषय पर व्यापक चर्चा की। संगोष्ठी को संबोधित करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. लक्ष्मणसिंह बिष्ट ‘बटरोही’ ने कहा कि सरकारी संसाधनों के उपलब्ध न होने के बावजूद जन सहयोग से राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी नैनीताल जैसे महंगे शहर में जून माह में होना बहुत बड़ी बात है।
भीलवाड़ा, राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका ‘बालवाटिका’ के संपादक डॉ. भैरूंलाल गर्ग ने कहा कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2019 के माध्यम से हम बच्चों के लिए बाल मनोविज्ञान आधारित एवं वैज्ञानिक सोच आधारित पाठ्यक्रम देने की बात सरकारी स्तर पर कर रहे हैं। ऐसे में बच्चों को पुस्तकों से जोड़ना एक महत्वपूर्ण चुनौती है। उन्होंने कहा कि बाल साहित्य आज बहुत लिखा जा रहा है परंतु वह बच्चों तक नहीं पहुंच रहा है। मुरादाबाद से आए बाल साहित्यकार डॉ. राकेश चक्र ने कहा कि स्मार्ट फोन के जमाने में हम देश व दुनिया से तो जुड़ गए हैं, परंतु अपने घर व परिवार से दूर होते जा रहे हैं।
इतिहासकार, हिमालयविद् तथा पहाड़ पत्रिका के संपादक शेखर पाठक ने कहा कि स्मार्ट फोन का इस्तेमाल जब बड़े लोग धड़ल्ले से कर रहे हैं तो बच्चे इससे दूर रहेंगे, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। भारत ज्ञान विज्ञान समिति देहरादून के प्रांतीय अध्यक्ष विजय भट्ट ने कहा कि कभी रेडियो, टेलीविजन को संस्कृति के लिए खतरा माना जाता था। आज ये हमारे जीवन में अपना स्थान बना चुके हैं। उसी प्रकार मोबाइल फोन भी जीवन में एक क्रांति लाया है। जरूरत है मोबाइल का सदुपयोग सुनिश्चित करने की। भंडारा, महाराष्ट्र के डॉ. हरीशचन्द्र बोरकर ने कहा कि स्कूल के होमवर्क तथा ट्यूशन संस्कृति ने बच्चों का बचपन ही छीन लिया है। उनके पास न तो अतिरिक्त पुस्तकें-पत्रिकाएं पढ़ने का समय है और न ही खेलने का। बच्चों को माता-पिता व दादा-दादी का प्राकृतिक प्यार भी नहीं मिल पा रहा है, वे घर में दाई के संरक्षण में जी रहे हैं और फिर हॉस्टिल में। आगरा से आये प्रो. राजकिशोर सिंह ने कहा कि भागमभाग की जिंदगी में माता-पिता बच्चों को समय न दे पाने के कारण बच्चों के हाथ में मोबाइल थमा दे रहे हैं। बच्चा मोबाइल से क्या सीख रहा है, इसकी जानकारी हमें नहीं है। देखा जाये तो हम बड़े लोग बच्चों से मोबाइल के बारे में सीख रहे हैं। सुप्रसिद्ध छायाकार पùश्री अनूप साह ने बाल साहित्य से चित्रों को जोड़ते हुए कहा कि चित्र भी अपने आप में काफी कुछ कह जाते हैं।
सभी वक्ताओं की राय थी कि बच्चों से उनका बचपन न छीना जाए। पुस्तकें पढ़ने की संस्कृति बने। लोग पुस्तकों को पढ़ने को अपनी आदत बनायेंगे तो बच्चो में पढ़ने की आदत स्वयं में विकसित होगी।
अक्सर भाषणों में कहा जाता है कि बालसाहित्य की संगोष्ठियों में बच्चों को जोड़ा जाए। तीन दिवसीय इस संगोष्ठी में आयोजकों ने बच्चों को प्रोत्साहित करने का पूरा प्रयास किया। इस संगोष्ठी का 14वाँ साल होने के कारण इसकका उद्घाटन बच्चों ने 14 मोमबत्तियां जलाकर किया। ‘बाल साहित्य और बच्चे’ विषय पर आयोजित सत्र में अजमेर, राजस्थान की डायट प्रवक्ता डॉ. चेतना उपाध्याय ने बाल कहानी पढ़ी। बच्चे और बाल कविता में देश के विभिन्न राज्यों के चयनित 6 साहित्यकारों ने अपनी बाल कविता पढ़ी। उपस्थित 16 बच्चों ने बाल कविता तथा बाल कहानी पर टिप्पणी की। बच्चों की टिप्प्णी सुनकर सारे साहित्यकार दंग रह गए। बच्चों को बच्चा समझकर लिखने वाले लोगों को नए सिरे से सोचने के लिए बच्चों ने मजबूर किया है। बालसाहित्य में निरंतर नए प्रयोग करने वाले, तथा बाल साहित्य के उन्नयन एवं सवर्द्धन के लिए कार्य करने वाले देश के वरिष्ठ बालसाहित्यकारों को जन सहयोग से सम्मानित करने की परंपरा भी आयोजकों ने बनाई है।
बालप्रहरी के संपादक, बालसाहित्य संस्थान के सचिव तथा संगोष्ठी के मुख्य संयोजक उदय किरौला ने बताया कि 2006 से प्रतिवर्ष उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में जन सहयोग से राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। ये संगोष्ठियां उस स्थान पर की जाती हैं, जहां आवास की व्यवस्था निःशुल्क हो। संगोष्ठी में सारे लोग अपने व्यय पर सहभागिता करते हैं। उसके पीछे ये भी एक कारण है कि बालप्रहरी परिवार के सदस्य देश के अलग-अलग राज्यों में आयोजित संगोष्ठियों में प्रतिभाग करते हैं। तभी लोग बालप्रहरी के कार्यक्रमों से जुड़ते हैं।
मगर नैनीताल में बालसाहित्य पर आयोजित यह सफल राष्ट्रीय संगोष्ठी हमारे लिए यह बड़ा सवाल छोड़ गई है कि आखिर हमारी सरकारें साहित्य, संस्कृति और कला को लेकर अपनी जिम्मेदारी कब समझेंगीं।