पवन चौहान
‘शैक्षिक दखल’-यह उस पत्रिका का नाम है जो शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर बहुत ही सुंदर तरीके के साथ बेबाकी से बात करती है। इस पत्रिका के प्रकाशन को 12 वर्ष हो चुके हैं, और पत्रिका निरंतर अपना स्तर बनाए प्रकाशित हो रही है। इसका सारा श्रेय इसकी पूरी संपादकीय टीम की दूरदृष्टि और उनके अथक परिश्रम को जाता है। शिक्षा, शिक्षण, शिक्षक, बालमन,अभिभावक और समाज के विभिन्न पहलुओं पर पत्रिका की खोजी नजर हमेशा बनी रहती है। यही कारण है कि पत्रिका शिक्षा से जुड़े कई अनछुए पक्षों पर बहुत गंभीरता से कार्य करती है और कर रही है। यही खासियत इस पत्रिका को औरों से अलग बनाती है। इन दिनों पत्रिका ने ‘मेरे जीवन में पुस्तकालय’ विषय को लेकर बहुत बेहतर दो अंक निकाले हैं और तीसरे की तैयारी है। एक ही विषय पर तीन अंक साफ-साफ बताते हैं कि पुस्तकालय के साथ सबका किसी न किसी बहाने या संदर्भ में जुड़ाव रहा है। बात दूसरे अंक की करूं तो यह अंक समान विषय पर पूर्व अंक की तरह एक सुंदर व संग्रहणीय अंक है। इस अंक में तीन कविताएं और 34 आलेख पुस्तकालय को केंद्र में रखकर शामिल किए गए हैं।
पत्रिका के संपादक महेश पुनेठा जी अपनी बात में, पिछले और इस अंक से जो साझा बातें निकली हैं उन पर बात करते हुए पुस्तकालय के महत्त्व की बात कहते हैं। डॉ० जगदीश पंत कुमुद कंटर (पीपे) में पुस्तकालय की शुरुआत पर अपनी रोचक बात सुनाते हैं। प्रियदर्शन जी का आलेख ‘मेरे पुस्तकालय : कुछ स्मृति चित्र’ में वे पहले पुस्तकालय से मुलाकात के साथ पुस्तकालयों से जुड़े बहुत से अविस्मरणीय संस्मरणों की याद को साझा करते हैं। हिमाचल प्रदेश के प्रशासनिक अधिकारी राकेश कंवर जी का संस्मरण ‘किताबों से प्रेम करने वाले पाठक लाइब्रेरी को अर्थ दे हैं’ बहुत ही सुनियोजित व आकर्षक ढंग से लिखा गया है। राकेश जी अपने घर के पुस्तकालय को अपना प्रथम पुस्तकालय मानते हुए फिर जिस अंदाज में पुस्तकालय के साथ जिए अपने अनुभवों को बयान करते हैं वे पाठक के लिए बहुत आनंददायक व रूचिपूर्ण तथा बहुत-सी बातों को हमारे मनन करने के लिए बाध्य करते हैं। ललित मोहन रयाल जहां अपनी बात को एक घटना के जरिए शुरू करते हैं वहीं रामजी तिवारी लिखते हैं कि जब बलिया शहर के राजकीय पुस्तकालय को देखा तो पुस्तकालय के बारे में हमारी धारणाएं बनी और बिगड़ी। हिमांशु बी० जोशी पुस्तकालय के अपने अनुभवों को साझा करते हुए लिखते हैं कि पुस्तकालय में पढ़ने ने मन को उजला बनाया है।
फेसबुक परिचर्चा कॉलम के अंतर्गत 11 लेखकों के पुस्तकालय को लेकर अपने-अपने विचार व चिंताएं समाहित हैं। अमृता पांडे जी जहां अपने घर में ही अपने पुस्तकालय से रूबरू हुई हैं वहीं डॉ० दीपा गुप्ता काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का दीदार कर हतप्रभ रही जाती हैं। रमेश चंद्र जोशी जी सीधे-सीधे अपनी बात को कहते हैं कि पढ़ने का मतलब जीवन को खुशहाल बनाना है। डॉ० अनुपमा गुप्ता वकील पापा के पुस्तकालय से अपने जुड़ाव की बात करती हुई स्कूली पुस्तकालय और फिर कॉलेज की लाइब्रेरी के अपने संस्मरण जीती हुईं पुस्तकालय के होने का मतलब समझाती हैं। रुचि भल्ला अपनी डायरी के पन्नों से महाराष्ट्र के भिलार गांव को खोज लाती हैं जहां हर घर में पुस्तकालय है। अमिता गुप्ता ठीक कहती हैं- “किताबें सच में बातें करती हैं”। ज्योति देशमुख इस बात से चिंतित हैं कि जहां हाथ में किताब होनी चाहिए वहां आज बच्चों के हाथ में मोबाइल है। वे इस बात को भी केंद्र में रखते हैं कि जिन पुस्तकालयों में दूसरी किताबें भी होनी चाहिए वे ज्यादातर पाठ्यक्रम की ही किताबों से भरे पड़े हैं। पूनम शुक्ला बहुत सच्ची बात कहती हैं- “पुस्तकालय और मैं, जैसे बीज और मिट्टी”। विद्यालय में एक अच्छा पुस्तकालय और बच्चों के साथ उसका जुड़ाव, एक बेहतर कल हमें सौंपेगा। मनीषा जैन यही बात पर कहती हैं। लेखिका डॉ० अमिता प्रकाश और पवन चौहान अपने आज को पुस्तकों की ही आत्मीयता का परिणाम मानते हैं। साथ ही, डॉ० योजना कालिया, शिरोमणि महतो, सुजीत कुमार सिंह, वेद प्रकाश सिंह, राजेंद्र सिंह यादव, विनीता यशस्वी, इंदु पंवार, निर्मल न्योलिया, डॉ० नरेंद्र कुमार अपने-अपने पुस्तकालय अनुभवों के जरिए कई रोचक संस्मरणों से हमें सराबोर करते हैं।
‘साक्षरता की सीढियों से पुस्तकालय तक’ आलेख में भास्कर उप्रेती अपनी बात बहुत सुंदरता और ईमानदारी से शुरू करते हुए अपने पुस्तकालय के सफर को शानदार तरीके से पाठकों के समक्ष रखते हैं। शिक्षिका रेखा चमोली पुस्तकालय को जीवन की दिशा देने में मदद करने वाला कहते हुए अपने जीए अनुभवों के आधार पर पुस्तकालय से बच्चों में आए सुधारों की बात सुनाती हैं। अनिल अविश्रांत के अनुसार, हमें बच्चों की बदलती रुचियों के अनुसार पुस्तकें उपलब्ध करवाने के साथ उन्हें स्वतंत्र रूप से समूहों में पुस्तकें पढ़ने, उन पर चर्चा करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। जब बच्चे इन पन्नों में अपने सपनों के रंग खोज लेंगे तो पुस्तकालय का वह सबसे हसीन दिन होगा। कवयित्री सपना भट्ट की बहुत सुंदर कविता ‘किताबें’ भीतर के आवरण पर सजी है। कवयित्री किताबों को ही अपना सब-कुछ, अपना विश्वास, अपनी हिम्मत, अपनी मित्र व अपना सरमाया मानती हैं। राजसत्ता से ज्यादा पुस्तक प्रेम की कहानी कहती बोधिसत्व की मार्मिक कविता ‘दाराशुकोह का पुस्तकालय और औरंगजेब के आंसू!’ इस अंक का एक अन्य आकर्षण है। अंतिम पन्नों में पत्रिका के संपादक दिनेश कर्नाटक इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इस इलेक्ट्रॉनिक युग में क्या किताबों का वजूद बचा रह पाएगा? क्या हम किताबों के पन्नों की खुश्बू से महरूम हो जाएंगे? शैक्षिक दखल का यह अंक पूर्व अंक की तरह संग्रहणीय है। पुस्तकालय पर केंद्रित यह अंक हर पुस्तकालय तक अवश्य ही पहुंचना चाहिए। बेहद रोचक, जानकारीप्रद, कई तरह के अनुभवों व संस्मरणों से सजे इस अंक के लिए शैक्षिक दखल की पूरी संपादकीय टीम साधुवाद की पात्र है।